उत्तर प्रदेश में इस समय एकसाथ जाति और सांप्रदायिक मुद्दों को हवा मिल रही है। राजनीति एक खतरनाक मोड़ पर है। देश के सबसे अधिक आबादी वाले और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य में हो रहे ताज़ा घटनाक्रम बता रहे हैं कि हिंदुत्व के अलावा जाति आधारित विभाजन पर फोकस किया जा रहा है। जाति बताने पर रोक लगाने और मुहम्मद साहब का नाम लेने पर एफआईआर की घटनाएं बता रहे हैं कि इससे हिन्दुत्व को मज़बूत करने की कोशिश हो रही है। राज्य में चुनाव 2027 में है लेकिन उसकी तैयारी अभी से दिख रही है। इसी दौरान सपा के वरिष्ठ नेता आजम खान भी जेल से बाहर आए हैं। आजम सपा नेता के अलावा प्रमुख मुस्लिम चेहरे वाले नेता भी हैं। आजम की अगला फैसला बताएगा कि चुनाव 2027 में वो खुद का इस्तेमाल किस तरह कराना चाहेंगे।

जाति-आधारित रैलियों पर प्रतिबंध: प्रगतिशील कदम या राजनीतिक चाल? 

21 सितंबर को उत्तर प्रदेश सरकार ने एक 10-सूत्री निर्देश जारी किया, जिसमें जाति-आधारित राजनीतिक रैलियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया। इसके अलावा, वाहनों और साइनबोर्ड पर जाति के नाम प्रदर्शित करने तथा पुलिस रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख करने पर रोक लगा दी गई। सरकार का दावा है कि यह कदम "जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करने" के उद्देश्य से उठाया गया है, जो इलाहाबाद हाईकोर्ट के 16 सितंबर के फैसले पर आधारित है। 
हालांकि, हाईकोर्ट का फैसला जाति भेदभाव से जुड़ा मामला नहीं था। यह एक शराब तस्करी के आरोपी की याचिका पर आया था, जिसमें आरोपी ने अपने खिलाफ दर्ज मुकदमे को रद्द करने की मांग की थी। विशेषज्ञों का मानना है कि जाति को कम महत्व देना प्रगतिशील सोच हो सकती है, लेकिन निर्देश का असली उद्देश्य कुछ और है। इसमें जाति-आधारित राजनीतिक रैलियों पर प्रतिबंध लगाते हुए कहा गया कि ये "सामाजिक संघर्ष को बढ़ावा देती हैं और सार्वजनिक व्यवस्था तथा राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा हैं।" विपक्षी दल इसे भाजपा की जातिगत राजनीति को दबाने की साजिश बता रहे हैं, खासकर 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले।
ताज़ा ख़बरें
योगी सरकार के इस निर्देश ने भाजपा के सहयोगी दलों, खासकर निषाद, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) और अपना दल, को असहज स्थिति में डाल दिया है, क्योंकि जातिगत पहचान ही उनकी राजनीति का सार है। निषाद पार्टी मुख्य रूप से निषाद या मछुआरों की पार्टी है; इसी तरह ओपी राजभर के नेतृत्व वाली सुभासपा को राजभरों की पार्टी माना जाता है। जबकि अपना दल को कुर्मियों की पार्टी माना जाता है। ये सभी दल अतीत में कभी न कभी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में रहे हैं।

निषाद पार्टी सुप्रीमो संजय निषाद ने योगी सरकार के आदेश पर अपनी आपत्ति जताते हुए कहा, "जातियों का हमेशा से गौरवशाली इतिहास रहा है। अगर आप अपनी जाति नहीं लिखेंगे तो आपकी पहचान कौन करेगा?" उन्होंने यह भी संकेत दिया कि वे इस आदेश के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं।

भाजपा के दोनों सहयोगियों ने संकेत दिया कि उनकी राजनीति मुख्य रूप से पिछड़ों और दलितों के सशक्तिकरण पर आधारित है, जिसके माध्यम से वे अपना वोट बैंक बनाते हैं। जाति आधारित दोनों दलों के नेताओं ने यह भी कहा कि उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनावों से पहले, भाजपा ने हर जाति के प्रमुख चेहरों तक पहुँचने के लिए कई जाति-आधारित बैठकें और सम्मेलन किए थे। उनका मानना ​​है कि 2024 के चुनावों से पहले, कुछ जातियों का एकजुट होना एनडीए के जातिगत गणित को बिगाड़ देगा।

जाति आधारित दल गठबंधन का हिस्सा, बीजेपी का नहींः बीजेपी

विपक्ष के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी ने इसे "सरकार का ऐतिहासिक फैसला" और समाज में जातिवाद को खत्म करने का एक प्रयास बताया, जो इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने के लिए ज़रूरी था। चौधरी ने कहा, "सहयोगी दलों के असहज होने के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है। लेकिन देखिए, वे गठबंधन का हिस्सा हैं, हमारी पार्टी का हिस्सा नहीं। इसलिए, उनके लिए हर फैसले से सहमत होना ज़रूरी नहीं है, और उन्हें अपनी राय रखने का अधिकार है।"

जाति पर सोची समझी रणनीति

जाति आधारित दलों ने 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में एनडीए में शामिल होकर बीजेपी को समर्थन दिया। 2024 में उनका समर्थन बीजेपी को रहा। बीजेपी को बड़े पैमाने पर ओबीसी वोट ट्रांसफर हुए। बीजेपी यह मानकर चल रही है कि अगले चुनाव में उसके ओबीसी वोट बरकरार रहेंगे, चाहे ये दल साथ दें या न दें। लेकिन सत्ता की राजनीतिकी वजह से जाति आधारित दलों का एनडीए निकलना मुश्किल लग रहा है। दूसरी तरफ अगर जाति आधारित दल बीजेपी या सरकार से अलग होकर अपना कार्यक्रम करते हैं तो उन्हें सरकारी कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा। योगी सरकार का आदेश जारी होते ही सबसे पहले क्षेत्रीय और ब्राह्मण सम्मेलन करने वाले संगठनों ने उसका स्वागत किया और योगी आदित्यनाथ को धन्यवाद दिया। यूपी में ओबीसी संगठनों ने अपने जाति आधारित सम्मेलनों के जरिए अपना एक बड़ा वर्ग तैयार किया था। उसके बाद सवर्ण जातियों के लोगों ने अपने सम्मेलन शुरू किए।    

यूपी में साम्प्रदायिक एजेंडे पर भी लौटी बीजेपी

कानपुर की घटना मामूली थी। 4 सितंबर को बरावाफात (ईद-ए-मिलाद-उन-नबी) जुलूस के दौरान रावतपुर में एक समूह ने जुलूस मार्ग पर "आई लव मुहम्मद" का बैनर लगाया। स्थानीय हिंदू संगठनों ने इसका विरोध किया। उन्होंने दावा किया कि बरावाफात पर "नई परंपरा" लाने की कोशिश है। इस विवाद ने सांप्रदायिक माहौल को चार्ज कर दिया। देखते ही देखते यह घटना बड़ी हो गई। पूरे यूपी में आई लव मुहम्मद के बैनर लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं। इसका दायरा अब पूरे देश में फैल गया है। विदेशों में भी प्रतिक्रिया हो रही है।
कानपुर में पुलिस का हस्तक्षेप काफी कुछ बता रहा है। डीसीपी दिनेश त्रिपाठी के अनुसार, धार्मिक जुलूसों में नई रिवायतें लाने पर सरकारी नियम प्रतिबंध लगाते हैं। लेकिन मामला इस तरह नहीं है जो डीसीपी बता रहे हैं। स्थानीय मीडिया ने इसकी रिपोर्टिंग की है। जिसमें कहा गया कि आई लव मुहम्मद बैनर फाड़ा गया। इसके जवाब में मुस्लिम युवकों ने प्रदर्शन किया। दूसरे पक्ष ने आरोप लगाया कि मुस्लिम युवकों ने उनके धार्मिक बैनर फाड़े हैं। पुलिस ने बैनर फाड़ने वाले मुस्लिम युवकों पर एफआईआर दर्ज की और कुछ की गिरफ्तारियां कीं। इसके बाद उन्नाव में ऐसी घटना एक दिन पहले दोहराई गई। लखनऊ में विधानसभा के सामने प्रदर्शन हुआ। अब तक यूपी के एक दर्जन से ज्यादा शहरों में आई लव मुहम्मद का नारा लगाने या पोस्टर लेकर प्रदर्शन करने पर एफआईआर हो चुकी है। इसकी आंच अब उत्तराखंड, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र आदि में भी पहुंच रही है।
एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने 15 सितंबर को एक्स पर एक पोस्ट शेयर कर कहा, "आई लव मुहम्मद कहना अपराध नहीं है।" उन्होंने कानपुर पुलिस को टैग करते हुए कार्रवाई की निंदा की।

साम्प्रदायिक एजेंडाः हताशा का नया हथियार 

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि योगी सरकार एक साथ जाति और सांप्रदायिक कार्ड खेलकर विपक्ष को कमजोर करने की कोशिश कर रही है। यूपी के पूर्व आईएएस अधिकारी विजय शंकर पांडे ने जोर देकर कहा कि यह "हताशा से उपजा कदम" है, क्योंकि आर्थिक और विकास के मोर्चे पर सरकार नाकाम रही है। पांडे ने कहा- "योगी सरकार 2017 से सत्ता में आने के बाद सभी मोर्चों पर विफल रही है। जाति और धर्म को भड़काकर यह सरकार अपनी हताशा को छिपाने की कोशिश कर रही है। हिंदुत्व काम नहीं कर रहा, इसलिए कोई भी उकसावा जायज है।" समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने भी भाजपा पर निशाना साधा, इसे "गैंगवार" जैसी राजनीति बताया।
उत्तर प्रदेश से और खबरें
सवाल यह है कि क्या यह दोहरी रणनीति 2027 के चुनावों में भाजपा को फायदा पहुंचाएगी, या उत्तर प्रदेश को और गहरा विभाजन देगी? राजनीतिक गलियारों में बहस तेज हो चुकी है, और आने वाले दिनों में और तनाव की आशंका है।