हमारे देश में हर दिन कुछ ऐसा हो रहा है जिससे इस देश की अपनी वैश्विक ‘पहचान’ संकट में है। बीते कुछ दिनों में दो घटनाएँ ऐसी घटी हैं जिसके बारे में सोचकर अफ़सोस, गुस्सा और शर्म आती है। महाराष्ट्र के अहिल्यानगर में 28  अक्टूबर को 12वीं में पढ़ने वाले एक लड़के ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या का कारण अंतरात्मा को झकझोर देने वाला है। आत्महत्या से एक दिन पहले इस लड़के ने पास के एक गाँव से गाय खरीदी थी जिसे लेकर वो अपने गाँव आ रहा था, तभी गुंडों के एक समूह ने, जो ख़ुद को गौ रक्षक बोल रहे थे, लड़के की गाड़ी रोकी, उसे नीचे उतारा और रॉड और डंडे से पीट-पीटकर बेदम कर दिया। गुंडों ने इस घटना को फेसबुक/इंस्ट्राग्राम जैसे तमाम प्लेटफ़ॉर्म पर लाइव टेलीकास्ट भी किया। लड़के को बुरी तरह पीटने और अपमानित करने के बाद ये गुंडे लड़के को पास के पुलिस स्टेशन पर ले गए जहाँ महाराष्ट्र पशु संरक्षण अधिनियम के तहत FIR दर्ज करवाई।

शाम तक लड़के की पिटाई और गाली गलौज का वीडियो क्षेत्र में वायरल हो गया, दर्ज FIR की मदद से थोड़ी ही देर में उसकी पहचान एक गौ तस्कर के रूप में हो गई। 12वीं में पढ़ने वाला यह लड़का इतना सब कुछ बर्दाश्त नहीं कर पाया और उसने आत्महत्या कर ली। लड़का महाराष्ट्र के धनगर समुदाय से था, यह समुदाय एक चरवाहा समुदाय है जिसका मुख्य काम ही पशुचारण है। यह वो समुदाय है जिसका यशवंतराव होलकर और अहिल्याबाई होलकर जैसे लोगों से संबंध है। अब पुलिस उन लोगों की तलाश कर रही है जिन्होंने उस लड़के को पीटा और आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया। अब गुंडों पर आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला भी दर्ज कर लिया गया है और जांच जारी है।

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लेकिन क्या ये मामला सिर्फ़ इतना ही है। इस तरह से किसी को क्यों मरना चाहिए? ऐसी मौतों का कारण क्या है? क्या भारत में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाना अब सुरक्षित नहीं है? क्या भारत में एक व्यक्ति गाय खरीद कर कहीं जाएगा तो वह मारा जा सकता है? ऐसा माहौल कैसे बन गया? कौन है इसका ज़िम्मेदार? क्या भारत लोकतांत्रिक संकट से गुज़र रहा है, इतना कहकर बात समझ में आ जाएगी? शायद नहीं, भारत न सिर्फ़ लोकतान्त्रिक संकट से गुज़र रहा है बल्कि इस समय भारत में मानवीय संकट ने विकराल रूप धारण कर लिया है, और यह सिर्फ़ इसलिए हो रहा है क्योंकि भारत की संवैधानिक संस्थाओं ने अपना व्यवहार ऐसा बना लिया है जैसे उन्होंने तय कर लिया हो कि अब पतन हो जाये तो हो जाये। 

सवाल यह है कि जो पुलिस आज आत्महत्या के लिए मजबूर करने का मामला दर्ज करके जांच नामक कार्यवाही शुरू करके काफ़ी फ़ख्र महसूस कर रही है उसने उस समय चार गुंडों के कहने पर एक 12वीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्र पर मामला दर्ज क्यों किया? पुलिस ने उसी समय उन गौरक्षकों को सबक सिखाते हुए हिरासत में क्यों नहीं लिया जो असल में ‘मॉब लिंचिंग’ के दोषी थे। असहाय, निढाल और ख़ून से लथपथ लड़के के ख़िलाफ़ केस दर्ज करने से पहले पुलिस ने यह कैसे नहीं सोचा कि पीड़ित कौन है और अपराधी कौन?

गौरक्षा के नाम पर देश में मॉब लिंचिंग लगातार कई सालों से जारी है, पुलिस लापरवाह कैसे हो गयी, उसे तो सतर्क रहना चाहिए था? क्या पुलिस वर्तमान सत्तारूढ़ दल की उस गौ-नीति से दबाव में है जिसकी राजनीति इन गौरक्षक गुंडों पर आ टिकी है? क्या हमारी पुलिस गाय के नाम पर ऐसे सहम जाती है जैसे कोई आतंकवादी हमला हो गया हो?

लिंचिंग गाय की सुरक्षा या धर्म की रक्षा के लिए?

क्या यह सब सचमुच गाय की सुरक्षा के लिए किया जा रहा है या धर्म की रक्षा के लिए? क्या भारत के लोग गाय की रक्षा करना नहीं जानते या धर्म का पालन करना नहीं जानते? इन दोनों में ऐसा क्या नया है? असल में ये सब न तो गाय की रक्षा की बात है और न ही किसी धर्म की। यह सिर्फ़ चंद लोगों के सत्ता में बने रहने के लिए लगातार चलाए जा रहे नरेटिव का एक हिस्सा है जिसपर भारत के लोग लगातार भरोसा कर रहे हैं। यह किसी की सत्ता के लिए किया जा रहा है, यह बात आँकड़ों से स्पष्ट हो जाएगी। इंडिया स्पेंड के अनुसार, 2010 से 2018 के बीच गाय से जुड़ी हिंसा के 123 मामले दर्ज किए गए लेकिन सबको जानकर आश्चर्य होगा कि इसमें से 98% मामले 2014 के बाद के हैं। इसका मतलब यह वो अवधि है जब केंद्र में नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं। यह भी जानकर किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि गौरक्षकों की आड़ में इन गुंडों के सबसे ज़्यादा शिकार दलित/आदिवासी और मुसलमान हैं।

1 जुलाई 2024 को लागू की गई भारतीय न्याय संहिता में ‘मॉब लिंचिंग’ को लेकर कठोर सजा का प्रावधान किया गया है (BNS 103-2)। इस प्रावधान में दंड स्वरूप मौत की सजा तक का प्रावधान है। लेकिन इसके बावजूद मॉब लिंचिंग की घटनाएँ थमने का नाम नहीं ले रही हैं। कहीं न कहीं मॉब लिंचिंग करने वाले गुंडों को यह भरोसा है कि सरकार और प्रशासन, कानून और संविधान के साथ बेईमानी करके उन्हें जरूर बचा लेगा। इन्हें शायद इस बात का भरोसा है कि वे ही इस सत्ता के अस्तित्व की कुंजी हैं, और कौन सी सत्ता है जो अपने ही सहयोगियों को मिटायेगी! जो उसकी सत्ता के लिए इस तरह के काम करते हैं?
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देशभर में लिंचिंग की घटनाएँ

कम से कम आंकड़े तो यही बता रहे हैं। 5 जून 2025 को मध्यप्रदेश के मेहगांव में 2 युवकों को गुंडों की एक भीड़ जो ख़ुद को गौ-रक्षक बता रही थी, इतना पीटा कि 2 हफ़्ते तक आईसीयू में जीवन और मौत के बीच जूझने के बाद एक की मौत हो गई। 24 अगस्त 2025 को 58 वर्षीय एक दलित को गाय की हत्या के आरोप में इतना पीटा गया कि वो अधमरा हो गया। 27 अगस्त 2025 की रात को, आगरा के रामबाग इलाके में गौ-रक्षकों ने एक ट्रक को रोका, चालक और उसके तीन भाइयों की पिटाई की, आरोप था कि ट्रक में “बीफ” ले जाया जा रहा है। बाद में सच्चाई सामने आई कि ट्रक में कानूनी रूप से मृत पशु की हड्डियाँ/सींग थीं और ड्राइवर के पास इससे जुड़े कागजात भी थे। लेकिन सिर्फ़ शक के आधार पर चालक और उसके भाइयों को अधमरा कर दिया गया। 

क्या यह बात सब भूल गये हैं कि वह सिर्फ़ शक ही तो था जिसको सच मानकर सितंबर 2015 में अख़लाक़ को मौत के घाट उतार दिया गया था जबकि उसके घर से कभी गोमांस तक नहीं मिला। इन गुंडों को मिलने वाले प्रश्रय और सुरक्षा के आश्वासन का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब सितंबर 2024 (फरीदाबाद) में इन्हें लगा कि एक कार में गौ तस्कर हैं तो इन गुंडों ने खुलेआम गोलियाँ बरसाना शुरू कर दिया जिसकी वजह से 12वीं में पढ़ने वाले आर्यन की मौत हो गई। गाय बचाने के तथाकथित पुण्य काम ने इन गुंडों को चलता फिरता वहशी गैंग और दरिंदा गैंग बना दिया है जिन्हें कानून का कोई डर नहीं है। जबकि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में एक महत्वपूर्ण आदेश दे चुका है (तहसीन पूनावाला,2018)। लेकिन इसका पालन तो सरकार को करवाना है और सरकार, इस मामले में नज़रें बचाती घूम रही है?

बहुत गौर किया जाए तो बात साफ़ दिखाई पड़ती है और सवाल भी उठता है कि एक तरफ़ अख़लाक़ की हत्या करने वाले जमानत पर रिहा होकर बाहर आ जाते हैं और दूसरी तरफ़ 40 साल से भी पुराने एक मामले में एक रिटायर्ड आईपीएस कुलदीप शर्मा को गुजरात सरकार जेल भेजना चाहती है, क्यों?

एक तरफ़ मामला सीधा आराजकता से जुड़ा हुआ है, धर्म के आधार पर समाज को बाँटने और मनमर्जी करके लोगों को पीटने और हत्या से जुड़ा हुआ है वहीं दूसरा मामला एक आईपीएस का है जिस पर 40 साल पहले एक दुर्दांत अपराधी ने मामूली आरोप लगाए थे। अन्तर ये है कि पहला मामला सत्ता के नरेटिव में फिट बैठता है जबकि दूसरा वो है जिसने वर्तमान सत्ताधीश के नाक में दम कर रखा था। 

क्या सब कुछ इस बात पर टिका है कि ऐसा क्या किया जाए कि कानून के शासन का बलात्कार हो? जिससे जिसका चाहें शोषण किया जा सके और जिसे चाहें बचाया जा सके, वो भी सिर्फ़ इसलिए क्योंकि इस तरह सत्ता सुरक्षित रहेगी? भले ही देश तबाह क्यों न हो जाये? 

महाराष्ट्र: डॉक्टर की आत्महत्या

अब 26 साल की महाराष्ट्र की डॉक्टर का मामला लेते हैं, डॉक्टर ने यौन शोषण से परेशान होकर आत्महत्या कर ली, उन्होंने अपने हाथ में एक पुलिस अधिकारी और एक सॉफ्टवेर इंजीनियर का नाम लिखा जो उन्हें मानसिक और शारीरिक यातना दे रहे थे, लेकिन सत्ता और प्रशासन ने, संस्थाओं के निकम्मेपन ने, जिन्हें महिलाओं की सुरक्षा और उसके अधिकारों के लिए बनाया गया था, वे महिलाविरोधी कामों में लग गए। इस मामले में महाराष्ट्र महिला अधिकार आयोग की अध्यक्ष रूपाली चाकणकर मामले की जांच के लिए पीड़िता के पक्ष के पास नहीं गयीं, वो पहले आरोपियों का पक्ष सुनने चली गईं। इसके लिए न्याय और निष्पक्षता की दुहाई देते हुए उन्होंने कहा उनका मकसद था “सत्य को समझना,” न कि किसी का पक्ष लेना। उन्हें नहीं पता तो बता दिया जाये कि महिला आयोग का काम महिलाओं की आवाज़ सुनना है पुरुषों की नहीं, न्याय और निष्पक्षता का समाधान करने के लिए देश में अदालतें हैं उन्हें स्वयं अदालत बनने की जरूरत नहीं थी उन्हें सिर्फ़ पीड़िता के परिवार की आवाज़ बनना था। वो महिला आयोग की अध्यक्ष हैं, भारतीय पुरुष आयोग की नहीं। रूपाली जी ने ना सिर्फ़ आरोपियों की बात सुनी बल्कि मृतक पीड़िता को भी संदेह के घेरे में रखने की कोशिश की। उनका कहना था कि पीड़िता ने कोई शिकायत क्यों नहीं की? सवाल यह है कि जब वो ख़ुद को ख़त्म करके कुछ साबित करना चाह रही है तब तो उसकी बात सुनी नहीं जा रही है जब वो जीवित होकर कुछ कहती तो उसकी कौन सुनता?
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हालात ठीक नहीं हैं, हालात ये हैं कि पुलिस गुंडों की बजाये पीड़ित पर ही मामला दर्ज कर देती है और महिला आयोग महिलाओं की सुनने की बजाय आरोपियों के पक्ष को सामने रख रहा है।

नए भारत में न्याय की अवधारणा

संस्थाओं का नाश इतना अधिक हो चुका है कि जिन संस्थाओं को शोषित और पीड़ित की नजर से और उनके साथ खड़े होकर अपराधों को देखना चाहिए था वो दूसरे पक्ष अर्थात, शोषकों के साथ आकर खड़े हो गए हैं। न्याय की डायमेंशन उल्टी कर दी गई है उसे अधोमुखी बना दिया गया है। नए भारत में न्याय की अवधारणा में दोनों पक्षों के चेहरे देखना जरूरी कर दिया गया है, न्याय की देवी की पट्टी खोल दी गई है जिससे वो समाने देखकर न्याय कर सके। अगर सामने मजबूत और सत्ता पक्ष का व्यक्ति खड़ा है, धनाढ्य और इलीट व्यक्ति खड़ा है तो फैसले इनके ख़िलाफ़ नहीं किए जाएँगे। 

जॉन रॉल्स 1971 में लिखी अपनी किताब, अ थ्योरी ऑफ़ जस्टिस में कहते हैं कि “न्याय सामाजिक संस्थाओं का पहला गुण है, जैसे सत्य विचार प्रणालियों का पहला गुण है।” भारत में सामाजिक संस्थाएं- न्यायपालिका, सरकार, संसद, शिक्षण संस्थाएं इत्यादि - अपना पहला और मौलिक गुण ही त्याग चुकी हैं इसलिए यहाँ एक पतनोन्मुखी और निराशा से भरी व्यस्वथा दिख रही है जहाँ दिखावटी राहत तो है लेकिन न्याय का ठोस सहारा और मुखर अभिव्यक्ति नहीं है।

नए भारत में जिस बात में सबसे ज़्यादा गिरावट हुई है वो है मानव गरिमा का। जीवन का अधिकार और मानवीय गरिमा का अधिकार, एक प्रमुख मूल अधिकार है लेकिन सत्ता समर्थित गुंडों ने संविधान के इस धागे को छिन्न भिन्न कर दिया है। कुछ लोग अपनी चार पाये की ‘कुर्सी’ के लिए देश के 280 करोड़ पायों को दाँव पर लगा रहे हैं और संस्थाओं में बैठे लोग अपनी व्यक्तिगत इर्ष्याओं और लालच के कारण ये सब होने दे रहे हैं, इसके लिए उन्हें कभी माफ़ी नहीं मिलेगी।