'हम भारतीय पर्याप्त बेसब्र नहीं हैं', इस बार की अपनी भारत यात्रा में मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने यह शिकायत की। बुज़ुर्ग सब्र की नसीहत देते पाए गए हैं, लेकिन हमारा यह बुज़ुर्गवार अध्यापक हमें अधैर्य की शिक्षा दे रहा है। ज्यां द्रेज़ के साथ अपनी पिछली किताब में भारत की दुर्दशा का वर्णन करने के बाद उन दोनों ने एक अध्याय लिखा,'बेसब्री की ज़रूरत'। सेन ज़िंदगी का लंबा हिस्सा भारत से बाहर गुजारने के बावजूद मानसिक रूप से भारत में रहते आए हैं। वे विश्व नागरिक हैं, रवीन्द्रनाथ टैगोर की परम्परा में, इंग्लेंड और अमरीका में लंबा वक़्त गुज़ारा है लेकिन भावनात्मक तौर पर वे भारत के ही नागरिक बने रहे हैं। भारत की जनता की वे आवाज़ हैं और इसकी परवाह उन्होंने नहीं की है कि वे अपने कद की ग़रिमा बनाए रखने के लिए संतुलित और संयमित होकर बोले।
बहुसंख्यकवाद के दौर में धैर्य और अधैर्य पर गाँधी ने क्या कहा था?
- वक़्त-बेवक़्त
- |
- |
- 14 Jan, 2019

धैर्य और अधैर्य को लेकर पुत्र देवदास गाँधी और पिता मोहनदास करमचंद गाँधी के बीच संवाद हुआ था। उसी अधीर गाँधी के जन्म के हम डेढ़ सौवें साल में हम हैं। बहुसंख्यकवाद के प्रति अपने अधैर्य के चलते अपनी जान गँवानेवाले गाँधी की ह्त्या के सत्तर साल भी पूरे हुए। हमें भी धैर्य और अधैर्य में चुनाव करना है।
वस्तुपरक और निष्पक्ष होने की मांग अक्सर बुद्धिजीवियों से की जाती रही है। सेन वस्तुपरकता को समस्याग्रस्त अवधारणा मानते हैं और उसपर विचार करने की आवश्यकता महसूस करते हैं। संतुलित, वस्तुपरक और धैर्यवान, बौद्धिक को ऐसा ही होना चाहिए। राजसत्ता या कोई भी सत्ता धैर्य को सबसे बड़े नागरिक गुण के रूप में प्रचारित करना चाहती है। इस धैर्य से अनुशासन का बड़ा रिश्ता है। हालाँकि साहित्य अक्सर इसके ख़िलाफ़ रहा है। 'गार्डियन' अख़बार को अपने इंटरव्यू में अमर्त्य सेन क़ाज़ी नजरुल इस्लाम को उद्धृत करते हैं, “
'धैर्य निराशा का लघु रूप है, जिसे गुण की तरह पेश किया जाता है।'
'धैर्य निराशा का लघु रूप है, जिसे गुण की तरह पेश किया जाता है।'