18 की उम्र में ही कोई बात है। यह कोई भय नहीं जानती, कोई बाधा नहीं, उसके अग्निमय नेत्रों में तूफ़ान उठते हैं, वह मृत्यु को नहीं जानती। बांग्ला कवि सुकांत भट्टाचार्य की कविता की याद आई जब  खबर मिली,टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के 10 विद्यार्थियों को हिरासत में ले लिया है और उन पर मुक़दमा दायर किया है। उनका जुर्म यह है कि जी एन साईंबाबा को याद करने के लिए वे परिसर में इकट्ठा हुए थे। वे साईंबाबा के पोस्टर  लिए हुए थे और उन्होंने कुछ मोमबत्तियाँ जलाईं। पुलिस के मुताबिक़ यह ग़ैरक़ानूनी जमावड़ा था।संस्थान के प्रशासन का  कहना है कि उससे अनुमति नहीं ली गई थी। इन विद्यार्थियों पर राष्ट्र के विरुद्ध दुर्भावना पैदा करने और विभिन्न समुदायों के बीच शत्रुता पैदा करने का आरोप है। 
इस तरह की घटनाएँ भारत में अब आम हैं। कुछ समय पहले दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में फ़िलस्तीन के लिए प्रदर्शन कर रहे विद्यार्थियों पर पुलिस ने कार्रवाई की थी।जामिया मिल्लिया इस्लामिया,जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय या हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय हों या बिहार या केरल के शिक्षा संस्थान, विद्यार्थी प्रायः खबर में रहते हैं।अपनी डिग्रियों के लिए नहीं। बल्कि ऐसे विषयों पर आवाज़ उठाने के कारण जिनका उनके पाठ्यक्रम  से कोई रिश्ता नहीं। 
भारत में परिसरों में विद्यार्थियों की सक्रियता नई बात नहीं है।आज की सरकार इसे अपराध मानती है।1960-70 के दशक को याद कीजिए। प्रेसीडेंसी कॉलेज हो या पटना साइंस कॉलेज या सेंट स्टीफेन्स, अनेक प्रतिभाशाली छात्र नक्सल आंदोलन में शामिल हो गए। सरकार ने भयंकर दमन किया।लेकिन नक्सल आंदोलन का आकर्षण विद्यार्थियों में कम नहीं हुआ। यह सरकार जिन्हें गौरव पुरुष मानती है, उन जयप्रकाश नारायण की ख्याति 1974 के छात्र आंदोलन के कारण ही है। उसके पहले गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन की जान छात्र ही थे। इस सरकार के सत्ता में आने के पहले दिल्ली में हुआ सबसे बड़ा आंदोलन ‘निर्भया बलात्कार कांड’ के बाद हुआ मुख्य रूप से छात्रों का आंदोलन ही था। अरविंद केजरीवाल के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में भी विद्यार्थियों की भूमिका अहम थी। 
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यह स्वाभाविक ही था कि छात्रवृत्ति के मसले पर विद्यार्थी आंदोलन करें।यह 2105 की बात है।लेकिन यह भी अस्वाभाविक न था कि गोमांस खाने या रखने पर हिंसा के ख़िलाफ़ भी उस्मानिया या हैदराबाद विश्वविद्यालय के विद्यार्थी आवाज़ उठाएँ। दोनों में कोई विरोध नहीं। दिल्ली विश्वविद्यालय और जे एन यू में कामगारों के वेतन के सवाल पर आंदोलन करनेवाले विद्यार्थियों को कुछ लोग हैरानी से देखते हैं लेकिन जिन्हें परिसरों का कुछ भी अनुभव है वे जानते हैं कि विद्यार्थी प्रायः अपने मामलों से अधिक दूसरों के दुख से दुखी रहते हैं। 
2016 की 17 जनवरी को रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद पूरे देश के परिसरों में विद्यार्थियों का विद्रोह फूट पड़ा। उस विद्रोह में सिर्फ़ दलित छात्र न थे।पहली बार परिसरों में जातिगत भेदभाव का प्रश्न इतनी तीखी बहस का विषय बना। लेकिन ख़ुद रोहित भी छात्र आंदोलन का हिस्सा ही था।उसने सिर्फ़ दलितों का मुद्दा नहीं उठाया था।मुसलमानों के साथ देश में जो भेदभाव हो रहा था, उसके ख़िलाफ़ रोहित और उसके संगठन अंबेडकर स्टूडेंट्स यूनियन ने आवाज़ उठाई।उसके कारण ही उन्हें देशद्रोही कहा गया और उनपर हमला हुआ। 
छात्र सक्रियता या छात्र राजनीति को लेकर समाज में एक ही नज़रिया नहीं।बहुत सारे लोग इसे विद्यार्थियों के दिमाग़ का ख़लल मानते हैं। कई मानते हैं कि वे अपने असली काम, यानी पढ़ाई लिखाई से भागकर राजनीति में वक्त ज़ाया करते हैं। फिर भी छात्रों को देश का दुश्मन 2016 के पहले कभी नहीं कहा गया था। 

जिन्हें लगता है कि भारत के विद्यार्थियों के दिमाग़ में कुछ षड्यंत्रकारी लोग, शायद राष्ट्रविरोधी अध्यापक कीड़े डाल रहे हैं, वे समझने को तैयार नहीं कि विद्यार्थी होने का मतलब ही है विद्रोह।

अभी कुछ वक्त पहले नेपाल में स्कूलों और विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों ने सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह किया जिसके चलते सरकार को इस्तीफ़ा देना पड़ा। उसके एक साल पहले बांग्लादेश में शेख़ हसीना की तानाशाही के ख़िलाफ़ विद्यार्थियों ने ही विद्रोह किया। उसके बाद जो हुआ उसपर विद्यार्थियों का बस नहीं रहा लेकिन उन्होंने देश में चल रहे अन्याय को देखते नहीं रह सके।जो बड़े न कर पाए, वह नौजवानों ने कर दिखलाया। 
विद्यार्थी शायद इसीलिए विद्रोह कर पाते हैं कि वयस्कों की तरह उन्हें कुछ खोने का डर नहीं होता। लेकिन कुछ और है जो स्वाभाविक तौर पर नौजवानों को विद्रोही बना देता है। 1960 का दशक पूरी दुनिया में छात्रों के विद्रोह के कारण जाना जाता है। अमरीका के छात्रों ने वियतनाम युद्ध में भाग लेने से इनकार कर दिया और अपने ही देश की सरकार की साम्राज्यवादी हिंसा के ख़िलाफ़ आंदोलन किया। उन्होंने नस्ली भेदभाव के ख़िलाफ़ आंदोलन किया। उसी के आस पास जर्मनी और फ़्रांस में राजनीतिक और सांस्कृतिक बदलाव के सवाल पर विद्यार्थियों ने बड़ा आंदोलन किया।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के ख़िलाफ़ विद्रोह छात्रों ने ही किया। तिनेमन चौक में टैंक के सामने खड़े एक अकेले इंसान की तस्वीर अन्याय और दमन के ख़िलाफ़ मनुष्य के स्वाभाविक प्रतिकार की सबसे सहज तस्वीर है। वह व्यक्ति छात्र था या नहीं, यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता लेकिन चीन की उस सर्वशक्तिमान कम्युनिस्ट पार्टी के ख़िलाफ़ विद्रोह छात्रों ने ही किया।
छात्र क्यों आंदोलित होते हैं? संभवतः उसका कारण स्वतंत्रता के मूल्य से उनकी प्रतिबद्धता है।परिसर में प्रवेश का अर्थ है स्वतंत्र होना। अपनी भौगोलिक, सांस्कृतिक सीमाओं से आज़ादी।इसलिए उनके लिए सबसे क़ीमती तजुर्बा है आज़ादी का जिसे इस तरह उन्होंने कभी महसूस नहीं किया और उसका अभ्यास भी उस प्रकार करने का अवसर उन्हें कहीं नहीं मिला। सत्र शुरू होने पर रात के 11 बजे परिसर में साइकिल चलाते हुए लड़कियाँ क्या महसूस कर रही हैं, यह उनसे कभी किसी ने नहीं पूछा। 
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इस अनुभव के चलते ही वे कुलपति से कह पाती हैं कि आर 9 बजे के बाद हमारे हॉस्टल का ताला क्यों बंद हो जाता है जबकि लड़कों के हॉस्टल रात भर खुले रहते हैं।कुलपति समाज की इस मर्यादा के उल्लंघन से हैरान रहते हैं लेकिन परिसर में आने के बाद जिसने आज़ादी का स्वाद चख लिया वह फिर उसपर कोई सीमा बर्दाश्त नहीं कर सकता। आज़ादी का मतलब बराबरी के बिना कुछ नहीं और उसका अर्थ एकजुटता के बिना भी कुछ नहीं। इन मूल्यों को हासिल करने की बेचैनी ही विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम और कक्षा से आगे सड़क तक ले जाती है।इसके लिए उन्हें किसी और की प्रेरणा की ज़रूरत नहीं।