आपात स्थितियाँ नागरिकों की तरह ही प्रजातंत्र और उससे सम्बद्ध संस्थानों की इम्युनिटी को भी किस हद तक प्रभावित या कमज़ोर कर देती हैं उसका पता वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं लगाया जा सकता।
इस कठिन समय में सरकार के समक्ष भी विकल्प चुनने का संकट है कि लोगों की ‘ज़िंदगी’ और ‘रोज़ी-रोटी’ में से पहले किसे बचाए? मौजूदा संकट को भी एक युद्ध ही बताया गया है।
इंदौर के टाटपट्टी-बाखल इलाक़े की ही तरह मुरादाबाद में भी स्वास्थ्य और पुलिसकर्मियों पर हमला हुआ। इसके बाद कई सवाल खड़े हो रहे हैं, जिनके जवाब मिलने बेहद ज़रूरी हैं।
केरल से दोगुना से ज़्यादा आबादी के राज्य मध्य प्रदेश में 3 मार्च के बाद से कथित तौर पर राजनीतिक-प्रशासनिक लॉकडाउन तो था ही 26 मार्च से बाक़ी देश के साथ कोरोना के लॉकडाउन में भी आ गया।
मुंबई या देश के दूसरे स्थानों पर जो कुछ भी हुआ वह क्या नोटबंदी को लेकर अचानक की गई घोषणा और उसके बाद चली अफ़वाहों के कारण मची अफ़रा-तफ़री से अलग है?
समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है कि राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री के चौथे सम्बोधन के बाद भी उम्मीदों की रोशनी किस तरह से ढूँढी जानी चाहिए? तीन सप्ताह के ‘लॉकडाउन’ को लगभग तीन सप्ताह (19 दिन) और बढ़ा दिया गया है।
देश को आहिस्ता-आहिस्ता ‘लॉकडाउन’ से बाहर निकालने की तैयारियाँ चल रही हैं। महामारी से जूझने के दौरान चारों ओर हृदय-परिवर्तन की जो लहर दिखाई दे रही है वह क्या स्थाई होने जा रही है।
कोरोना वायरस पर काबू पाने की तैयारियों पर प्रधानमंत्री की राज्यों के मुख्यमंत्री के साथ वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग में केरल मॉडल पर सहमति बन रही है। अगर ऐसा होता है तो क्या मार्क्सवादी मुख्यमंत्री के केरल मॉडल को प्रधानमंत्री मोदी अपनाएँगे?
इंदौर में डॉक्टर्स पर हुए हमले के बाद मुसलिम समाज के लोगों ने अख़बार में विज्ञापन देकर माफ़ी मांगी है। ऐसे लोगों की सराहना की जानी चाहिए।
लम्बे समय तक चल सकने वाले लॉकडाउन के दौरान हमें इस एक सम्भावित ख़तरे के प्रति भी सावधान हो जाना चाहिए कि अपने शरीरों को ज़िंदा रखने की चिंता में ही इतने नहीं खप जाएँ कि हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक आत्माएँ और आस्थाएँ ही मर जाएँ।
लॉकडाउन ख़त्म होगा या नहीं, इसे लेकर चर्चा का दौर जारी है। ऐसे में केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ सोच-समझकर ही कोई फ़ैसला लेना होगा।
कोरोना पर जीत अभी दीयों, मोमबत्तियों और टॉर्च की रोशनी जितनी ही हासिल हुई है। दीपावली जैसी रोशनी का जश्न मनाने के लिए काफ़ी संघर्ष करना बाक़ी है।
जिन सवालों के जवाब माँगे जाने चाहिए उन्हें कोई पूछने की हिम्मत भी नहीं कर रहा है, विपक्ष भी नहीं। और जो कुछ कभी पूछा ही नहीं गया उसके जवाब हर तरफ़ से प्राप्त हो रहे हैं।
उम्मीद यह की जा रही थी कि प्रधानमंत्री अपने संबोधन में लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद बनने वाली स्थितियों को लेकर बात करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
कोरोना के ख़िलाफ़ चल रही इस जंग में मरकज़ निज़ामुद्दीन का प्रकरण सामने आने के बाद इस जंग को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का हथियार बनाने की कोशिश हो रही है।
कोरोना के संकट से निपटने के लिये डॉक्टर्स की बड़ी संख्या में तो ज़रूरत है ही, हमें भविष्य के लिये भी अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाना होगा।
कोरोना संकट ने दुनिया को बेहद मुश्किल दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। बहस इस बात को लेकर हो रही है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था को बचाएं या लोगों को?
प्रधानमंत्री ने समूचे देश को आश्चर्यचकित करते हुए भाव-विभोर कर दिया। जनता इस तरह से भावुक होने के लिए तैयार ही नहीं थी। पिछले छह-सात सालों में ‘शायद’ पहली बार ऐसा हुआ होगा कि 130 करोड़ लोगों से उन्होंने अपने ‘मन की बात’ इस तरह से बाँटी होगी।