युद्ध या महामारी के समय घरों में बंद लोग अपनी चाक-चौबंद सुरक्षा के अलावा किसी अन्य विषय, व्यक्ति अथवा संस्थान को लेकर भी कुछ सोचते हैं क्या? मसलन, ऐसे वक़्त तो व्यक्ति का सर्वाधिक ध्यान सरकारों द्वारा आगे के लिए लिये जाने वाले निर्णयों पर ही केंद्रित रहता है। ताज़ा संदर्भों में जैसे कि लॉकडाउन कब खुलेगा? या कि ज़िंदगी पहले की तरह पटरी पर आएगी भी नहीं, आदि, आदि? क्या ऐसा तो नहीं कि लॉकडाउन आगे ही बढ़ता जाएगा, अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताज़ा चेतावनी को गम्भीरता से ले लें तो? क्योंकि जब तक कोरोना संक्रमित एक भी व्यक्ति के खुले में छुट्टा घूमते रहने की आशंका बनी रहती है, तब तक कहा नहीं जा सकता कि संकट पूरी तरह से टल गया है। इस व्यक्ति का चेहरा निश्चित ही समाज के उस अंतिम व्यक्ति से अलग है जिसकी कल्पना गाँधीजी ने की थी।
आपदाएँ प्रजातंत्र को भी संक्रमित कर सकती हैं; फिर आज़ादी का क्या होगा?
- विचार
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- 22 Apr, 2020

कार्रवाई करती पुलिस।
आपात स्थितियाँ नागरिकों की तरह ही प्रजातंत्र और उससे सम्बद्ध संस्थानों की इम्युनिटी को भी किस हद तक प्रभावित या कमज़ोर कर देती हैं उसका पता वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं लगाया जा सकता। ऐसी आपदाओं के बाद देश-समाज में बने हालात के विश्लेषण से लगाया जा सकता है। 2001 में हुए आतंकी हमलों के बाद अमेरिका में घटे घटनाक्रमों से भी लगाया जा सकता है।