10 मई 1857, दिन रविवार को छिड़े भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में देश के हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों ने मिलकर विश्व की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताक़त को चुनौती दी थी। इस अभूतपूर्व एकता ने अंग्रेज़ शासकों को इस बात का अच्छी तरह अहसास करा दिया था कि अगर भारत पर राज करना है तो हर हालत में देश के सबसे बड़े दो धार्मिक समुदायों, हिंदू-मुसलमान के बीच सांप्रदायिक बँटवारे को अमल में लाना होगा। यही कारण था कि संग्राम की समाप्ति के बाद इंग्लैंड में बैठे भारतीय मामलों के मंत्री (लॉर्ड वुड) ने भारत में अंग्रेज़ी राज के मुखिया (लॉर्ड एल्गिन) को यह निर्देश दिया कि अगर भारत पर राज करना है तो हिंदुओं और मुसलमानों को लड़वाना होगा और ‘हम लोगों को वैसा सब कुछ करना चाहिए, ताकि उन सब में एक साझी भावना का विकास ना हो।’
1857: साझी विरासत जिसको हिन्दुत्ववादी मटियामेट करने में लगे हैं
- विचार
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- 10 May, 2020

आज 1857 स्वतंत्रता संग्राम की 163वीं सालगिरह है। 10 मई 1857, दिन रविवार को छिड़े भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में देश के हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों ने मिलकर विश्व की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताक़त को चुनौती दी थी। हमें आज इस सच्चाई को क़तई नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि आज की साम्प्रदायिक राजनीति दरअसल 1857 के दौरान हिंदू-मुसलमान-सिख एकता से परेशान अंग्रेज़ हाकिमों का पैंतरा था जिसे हिंदुस्तानी चाकरों ने कार्यान्वित किया।
इस दर्शन को अमल में लाने के लिए गोरे शासकों और उनके भारतीय चाटुकारों ने यह सिद्धांत पेश किया कि हिंदू और मुसलमान हमेशा से ही दो अलग क़ौमें रही हैं। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जिसको अंग्रेज़ शासकों ने ‘फ़ौजी बग़ावत’ का नाम दिया था, हिंदुओं-मुसलमानों-सिखों के व्यापक हिस्से एकजुट होकर ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के ख़िलाफ़ इतनी बहादुरी से लड़े और क़ुर्बानियाँ दीं कि फ़िरंगी शासन विनाश के कगार पर पहुँच गया। हालाँकि अंग्रेज़ जीत गए लेकिन यह ग़द्दारों और जासूसों द्वारा रचे गए षड्यंत्रों की वजह से ही संभव हो सका।