अफगानिस्तान पाकिस्तान संघर्ष
पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच तुर्की के ऐतिहासिक शहर इस्तांबुल में हो रही है बातचीत तीसरे दिन 27 अक्टूबर को भी बेनतीजा रही। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया था कि जल्द ही दोनों देशों के बीच शांति वार्ता होगी और जल्द ही कोई नतीजा निकलेगा, जिसके बाद इस्तांबुल में बातचीत शुरू हुई थी। इसके पहले क़तर की राजधानी दोहा में 19 अक्टूबर को हुई बातचीत में दोनों देश सीज़ फ़ायर के लिए सहमत हुए थे। लेकिन दोनों देशों के बीच फ़ायरिंग लगातार जारी है। दरअसल, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TPP) ऐसा भस्मासुर बन गया है जिसे उसी ने पाल-पोस कर बड़ा किया था।
इस्तांबुल में जारी वार्ता के बीच रविवार यानी 26 अक्टूबर को पाकिस्तानी सेना ने दावा किया कि पाकिस्तान ने 25 उग्रवादियों को मार गिराया और घुसपैठ की दो बड़ी कोशिशों को नाकाम कर दिया। 2021 से अब तक तहरीक-ए-तालिपान पाकिस्तान (TTP) ने पाकिस्तान पर 600 से ज़्यादा हमले किये हैं। इन हमलों में पाकिस्तान के 1,000 से ज़्यादा सैनिक और नागरिक मारे गए। उधर, संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट बताती है कि अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तानी हवाई हमलों में 37 नागरिक मारे गये हैं और 425 घायल हुए हैं।
पाकिस्तान का आरोप
पाकिस्तान का आरोप है कि अफ़ग़ानिस्तान की सरकार में बैठे तालिबान की शह पर उसकी सीमा के अंदर आतंकी हमले होते हैं। तहरीक-ए-तालिबान, पाकिस्तान लगातार आतंकी हमले कर रहा है। वैसे यह चौंकने वाली बात है कि जिस संगठन के नाम में ‘पाकिस्तान’ हो, वह पाकिस्तान का ही दुश्मन बना हुआ है।
दरअसल, यह कहानी शुरू होती है 1979 से जब सोवियत यूनियन की सेनाएँ अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश कर गयीं। शीतयुद्ध का ज़माना था। जवाब में अमेरिका ने सऊदी अरब, और पाकिस्तान के ज़रिए स्थानीय विद्रोहियों को हथियार और संसाधन दिये। उन्हें मुजाहिदीन कहा गया जो धर्म की रक्षा के लिए जेहाद करने निकले थे। पाकिस्तान की ISI (इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस) ने इन लड़ाकों को पेशावर, क्वेटा, कराची के मदरसों में ट्रेनिंग दी। इनमें अफ़ग़ान शरणार्थी बच्चे भी थे – जिन्हें "तालिब" (छात्र) कहा जाता था। मुल्ला उमर ने 1994 में आधिकारिक रूप से कंधार में तालिबान की स्थापना की थी। पाकिस्तान इसे फंडिंग और हथियार सप्लाई करता है। इसका हर कदम आईएसआई के हिसाब से उठता है। कहते हैं कि पाकिस्तान को "स्ट्रैटेजिक डेप्थ" चाहिए था – यानी भारत से युद्ध हुआ तो अफ़ग़ानिस्तान में पीछे हटने की जगह।
1996-2001 का वह दौर था जब तालिबान पहली बार काबुल पर क़ाबिज़ रहा। उस समय पाकिस्तानी लोग और लड़ाके अफ़ग़ानिस्तान में खुले आम घूमते थे।
पाकिस्तान, सऊदी अरब, और UAE – दुनिया के इकलौते 3 देश जिन्होंने तालिबान को आधिकारिक मान्यता दी थी। इस बीच तमाम दूसरे विद्रोही समूहों के साथ तालिबान का झगड़ा भी चलता रहता है लेकिन तालिबान ही पाकिस्तान का असल मोहरा था।
9/11 ने सबकुछ बदल दिया
लेकिन 9/11 ने सबकुछ बदल दिया। 11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टावर्स पर दो विमानों ने हमला किया, दूसरा हमला पहले हमले के 17 मिनट बाद हुआ। इमारतों में आग लग गई, जिससे ऊपरी मंजिलों पर लोग फँस गए और शहर धुएँ में डूब गया। दो घंटे से भी कम समय में, दोनों 110 मंजिला टावर धूल के विशाल गुबार में ढह गए। तीसरे विमान ने पेंटागन के पश्चिमी हिस्से को नष्ट कर दिया - जो देश की राजधानी वाशिंगटन डीसी के ठीक बाहर स्थित अमेरिकी सेना का विशाल मुख्यालय है। इन हमलों में 90 देशों के 2,977 लोग मारे गये: 2,753 लोग न्यूयॉर्क में मारे गये; 184 लोग पेंटागन में मारे गये; तथा 40 लोग जहाज़ में मारे गये।
अमरिका ने इस हमले का ज़िम्मेदार तालिबान को माना। उसने तालिबान के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ दिया। पाकिस्तान ने दिखावे के लिए ही सही, लेकिन अमेरिका साथ दिया। तालिबान को लगा: "पाकिस्तान ने धोखा दिया”। इस बीच अफ़ग़ानिस्तान में सरकारें बनती-बिगड़ती रहीं। लोकतंत्र को लेकर भी प्रयोग हुए लेकिन अफ़ग़ान झुकने को तैयार नहीं हुए। आख़िरकार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की घोषणा कर दी जो वहाँ कई दशक से थे।
अमेरिका की क्या नीति?
पहले कार्यकाल में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ऐलान के मुताबिक़ दोहा (कतर) में तालिबान के साथ अमेरिका ने एक समझौते पर साइन किया। इसमें वादा था कि अमेरिका 1 मई 2021 तक सभी सैनिक हटा लेगा, बदले में तालिबान ने शांति वार्ता और आतंकवाद रोकने का वादा किया। ट्रंप चुनाव हार गये पर उनके उत्तराधिकार जो बाइडन ने इस वादे को पूरा किया। 15 अगस्त 2021 को तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया था, और अफगान सरकार गिर गयी। अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सभी सैन्य ताकतों की पूर्ण वापसी 30 अगस्त 2021 को पूरी कर ली।
इस घटना का पाकिस्तान ने जश्न मनाया। अंदाज़ यह था कि हमारा प्लान कामयाब हुआ। लेकिन फिर टीपीपी पाकिस्तान पर ही हमला करने लगा। तो सवाल है कि टीपीपी क्यों और कैसे वजूद में आया।
TTP की जड़ें 2001 के 9/11 हमलों के बाद की घटनाओं में हैं। जब अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया, तो तालिबान और अल-कायदा के लड़ाके अफगानिस्तान से भागकर पाकिस्तान के आदिवासी इलाकों (FATA – Federally Administered Tribal Areas) में शरण लेने लगे। ये इलाके पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर हैं, जहां पख़्तून जनजातियाँ रहती हैं।
2002-2007 के बीच पाकिस्तानी सेना ने अमेरिकी दबाव में विदेशी लड़ाकों (अफगान, अरब, उज्बेक आदि) के खिलाफ ऑपरेशन शुरू किए। इससे स्थानीय पाकिस्तानी जिहादी ग्रुप्स नाराज हो गए।
ये ग्रुप पहले सोवियत-अफगान युद्ध (1979-89) में पाकिस्तान की ISI (इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस) की मदद से मुजाहिदीन के रूप में लड़ चुके थे। लेकिन अब पाकिस्तान अमेरिका का साथ दे रहा था, जो इन्हें "धोखा" लगा।
TTP से पाकिस्तान को परेशानी
दिसंबर 2007 में, बैतुल्लाह मसूद के नेतृत्व में TTP का गठन हुआ। ये 40 से ज्यादा छोटे-छोटे पाकिस्तानी जिहादी ग्रुप्स (जैसे लश्कर-ए-इस्लाम, सिपाह-ए-सहाबा आदि) का छाता संगठन था। इसका मुख्यालय साउथ वजीरिस्तान (FATA) में था। गठन का कारण था पाकिस्तानी सेना के खिलाफ एकजुट होना, अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के खिलाफ लड़ाई जारी रखना, और पाकिस्तान में शरिया कानून लागू करना। TTP ने गठन के तुरंत बाद हमले तेज कर दिए।
2007-2014 के बीच TTP पाकिस्तान का सबसे घातक संगठन बन गया। पेशावर स्कूल हमला (2014, 132 बच्चे मारे गए), मलाला यूसुफजई पर हमला (2012), बेनजीर भुट्टो की हत्या (2007) आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं। UN के मुताबिक, TTP ने सैकड़ों हमलों में हजारों पाकिस्तानी सैनिक, पुलिस और नागरिकों को मार डाला।
TTP पाकिस्तानी सरकार को भ्रष्ट, पश्चिमी प्रभाव वाला और इस्लाम-विरोधी मानता है। यानी पाकिस्तान ने जिसे पाला पोसा वह पाकिस्तान के लिए ही भस्मासुर बन गया। जिस जेहाद के नाम पर तालिबान को संगठित किया गया अगर वे पूरा पाकिस्तान में शरिया शासन चाहते हैं तो आश्चर्य कैसा। टीटीपी को तालिबान के समर्थन के पीछे एक वजह सीमा विवाद भी है।
पाकिस्तान अफगानिस्तान सीमा विवाद
ये कहानी 1893 से शुरू होती है। 13 नवंबर 1893 को काबुल में ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव सर मोर्टिमर ड्यूरंड और अफगानिस्तान के अमीर अब्दुर रहमान खान के बीच सीमा समझौते पर साइन हुआ था। नक़्शे पर एक लाइन खींची गयी थी- डूरंड लाइन। विभाजन के बाद ये अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान का विभाजन करने वाली लाइन बन गयी। ये 2,600 किलोमीटर लंबी सीमा है जो पख़्तूनों को मनमाने तरीक़े से बाँट देती है। अफगानिस्तान के राष्ट्रवादी कहते हैं कि यह समझौता दबाव में हुआ था। आने वाली सरकारों ने कभी इसे माना ही नहीं। 1947 में पाकिस्तान बना, तो अफगानिस्तान ने UN में इसका विरोध किया। ऐसा करने वाला वह दुनिया का इकलौता देश था।
अफ़ग़ानिस्तान चाहता था कि पख़्तून इलाके अफगानिस्तान में मिल जायें। यह एक खुली सीमा है और दोनों तरफ़ के लोगों का एक-दूसरे के यहां आना जाना लगा रहता है. उनके बीच धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर काफ़ी समानता है. अफ़ग़ानिस्तान के लिए ये एक संवेदनशील मामला है।
इसलिए पाकिस्तान को लगता है कि सैन्य झड़कों के ज़रिए आज़ाद पख़्तूनिस्तान बनाने की तैयारी चल रही है जिसे अफ़ग़ानिस्तान का सर्थन प्राप्त है। इस साज़िश में वह भारत को भी शामिल मानता है। हाल ही में एक यात्रा ने उसके कान और खड़े कर दिये हैं।
तालिबान विदेश मंत्री जयशंकर के साथ
भारत में तालिबान को हमेशा आतंकी के रूप में माना गया लेकिन वे अफ़ग़ानिस्तान के शासक हैं, यह एक हक़ीक़त है। बीते दिनों 9-14 अक्टूबर 2025 के बीच तालिबान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तकी भारत आए। वे विदेश मंत्री जयशंकर से मिले। देवबंद भी गये। हालाँकि आधिकारिक रूप से तालिबान को भारत ने मान्यता नहीं दी है। लेकिन पाकिस्तान के भारत विरोधी पैंतरों को देखते हुए तालिबान के साथ संबंध बेहतर करना कूटनीतिक कदम माना जा रहा है।
उधर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की अफ़ग़ानिस्तान में दिलचस्पी फिर से जग गयी है। अब वे बगराम एयरबेस वापस चाहते हैं जिसके लिए तालिबान ने मना कर दिया है। ट्रंप का कहना है कि यह एयरबेस चीन के न्यूक्लियर साइट के पास है, जिसकी निगरानी ज़रूरी है। उधर चीन भी अमेरिका की एस चाल को गौर से देख रहा है।
यानी अफ़ग़ानिस्तान फिर से रणक्षेत्र बनने की ओर है। लेकिन समस्या ये है कि अफ़ग़ानिस्तान में कोई भी शक्ति कभी पूरी तरह क़ाबिज़ नहीं हो पायी।इसे साम्राज्यों की कब्र कहा जाता है। रूस से लेकर अमेरिका तक की यही कहानी है। पाकिस्तान तो उनके सामने कोई हैसियत ही नहीं रखता। दोहा से लेकर इस्तांबुल तक की वार्ताओं का सफल न हो पाना बताता है कि यह जंग जल्दी थमने वाली नहीं है। पाकिस्तान ने जो घाव भारत को दिये हैं, उसका वही घाव अब उसके शरीर पर भी नज़र आ रहे हैं।