ऑपरेशन सिंदूर के समय पाकिस्तान के साथ खुलकर खड़ा हुआ चीन भारत की घेरेबंदी के लिए एक और प्रयास कर रहा है। ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा बाँध बना रहा चीन यूँ तो इसका मक़सद बिजली उत्पादन बता रहा है लेकिन अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यह भारत के लिए एक बड़ी रणनीतिक चुनौती बन सकता है।

ब्रह्मपुत्र भारत की सबसे चौड़ी और गहरी नदी है जिसका उद्गम तिब्बत यानी चीन में है। वहाँ इसे यारलुंग ज़ांगबो कहते हैं। यह नदी 2,900 किलोमीटर का सफर तय करती है और तिब्बत, भारत (अरुणाचल प्रदेश और असम) और बांग्लादेश से होकर बहती है। बांग्लादेश में इसे इसे जमुना कहा जाता है जो गंगा में मिलकर बंगाल की खाड़ी में समाहित होती है।

ब्रह्मपुत्र अरुणाचल और असम के लिए जीवनरेखा है। यह नदी सिंचाई, पेयजल और क्षेत्र की जैव-विविधता, जैसे काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, को समृद्ध करती है। इसके पानी से असम और बांग्लादेश के बाढ़ के मैदानों की उर्वरता बनी रहती है, जिससे लाखों किसानों की आजीविका चलती है। लेकिन चीन का यह मोटुओ हाइड्रोपावर स्टेशन इस नदी के प्रवाह को खतरे में डाल सकता है।

मोटुओ हाइड्रोपावर स्टेशन

चीन ने तिब्बत के न्यिंगची इलाके में यारलुंग ज़ांगबो यानी ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया के सबसे बड़े हाइड्रोपावर बांध, जिसे मोटुओ हाइड्रोपावर स्टेशन कहा जा रहा है, का निर्माण शुरू कर दिया है। इस परियोजना की औपचारिक शुरुआत 19 जुलाई, 2025 को चीनी प्रधानमंत्री ली कियांग ने की। इसकी अनुमानित लागत है 167.8 अरब अमेरिकी डॉलर, यानी लगभग 1.2 ट्रिलियन युआन। यह बांध वर्तमान में दुनिया के सबसे बड़े थ्री गॉर्जेस डैम से तीन गुना अधिक बिजली पैदा करेगा जो चीन के ही हुबेई प्रांत में यांग्त्सी नदी पर है। ब्रह्मपुत्र पर बनने वाला बाँध 60,000 मेगावाट का है जो हर साल 300 अरब किलोवाट-घंटे बिजली उत्पादन करेगा। यानी तस करोड़ लोगों की साल भर की बिजली ज़रूरत पूरी करेगा।

चीन का दावा है कि मोटुओ हाइड्रोपावर बाँध 2060 तक कार्बन न्यूट्रलिटी के उसके लक्ष्य को हासिल करने में मदद करेगा और तिब्बत में आर्थिक विकास व स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देगा। यह बांध यारलुंग ज़ांगबो ग्रैंड कैनियन में बन रहा है, जो 5,000 मीटर तक गहरी घाटी है। इस घाटी में नदी 2,000 मीटर की गिरावट (वॉटर फॉल) के साथ बहती है, जो बिजली उत्पादन के लिए आदर्श है। लेकिन इसकी भौगोलिक स्थिति इसे इंजीनियरिंग के लिहाज से चुनौतीपूर्ण और पर्यावरणीय रूप से जोखिम भरा बनाती है।  

अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने इस बाँध को "वॉटर बम" कहा है। यह बांध भारत की जल सुरक्षा और पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकता है।

भारत को ख़तरे

इस बांध से भारत और बांग्लादेश को कई खतरे हैं: 

जल प्रवाह में कमी: बांध ब्रह्मपुत्र के पानी को नियंत्रित कर सकता है, जिससे गैर-मानसून महीनों में अरुणाचल, असम और बांग्लादेश में पानी की कमी हो सकती है। इससे सिंचाई और पेयजल पर असर पड़ेगा।

बाढ़ का खतरा: यदि चीन अचानक बाँध से पानी छोड़ता है, तो अरुणाचल और असम में विनाशकारी बाढ़ आ सकती है। पेमा खांडू ने चेतावनी दी है कि यह सियांग क्षेत्र को पूरी तरह तबाह कर सकता है। 
 
जैव-विविधता पर प्रभाव: बांध से पानी और गाद का प्रवाह रुकने से काजीरंगा जैसे संरक्षित क्षेत्रों की उर्वरता और पारिस्थितिकी प्रभावित होगी। यह एक सींग वाले गैंडे जैसी प्रजातियों के लिए खतरा है।

रणनीतिक खतरा: विशेषज्ञों का मानना है कि चीन इस बांध को भारत के खिलाफ "जल हथियार" के रूप में इस्तेमाल कर सकता है, खासकर सीमा विवादों के दौरान।

पर्यावरणीय जोखिम

यह बाँध हिमालय के भूकंप प्रभावित क्षेत्र में बन रहा है, जहां इंडियन और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेट्स की टक्कर होती है। इस टक्कर से हिमालय का निर्माण हुआ, और यह क्षेत्र भूकंप के लिए संवेदनशील है। 1950 का असम-तिब्बत भूकंप, जिसमें करीब 5,000 लोग मारे गये थे। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि एक छोटी सी दरार भी बांध को तबाह कर सकती है, जिससे भारत और बांग्लादेश में भारी तबाही हो सकती है।  

बांध से तिब्बत की समृद्ध जैव-विविधता और अरुणाचल की सियांग घाटी में रहने वाली आदि जनजातियों का अस्तित्व खतरे में है। गाद के रुकने से बांग्लादेश की खेती और अर्थव्यवस्था को भी नुकसान होगा।

भारत की प्रतिक्रिया

भारत ने इस बांध को लेकर अपनी चिंता जाहिर की है। जनवरी 2025 में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा कि भारत ने राजनयिक और विशेषज्ञ स्तर पर चीन के साथ अपनी चिंताएँ साझा की हैं। भारत ने पारदर्शिता और निचले तटवर्ती देशों के साथ परामर्श की माँग की है।

समस्या ये है कि भारत और चीन के बीच ब्रह्मपुत्र के लिए कोई संधि नहीं है। 2006 में हुए समझौते के तहत चीन मानसून में डेटा साझा करता था, लेकिन 2020 के विवाद के बाद यह बंद हो गया। संयुक्त राष्ट्र का ‘UN Watercourses Convention’ (1997) नदियों के उपयोग को नियंत्रित करता है, लेकिन चीन ने इसे साइन नहीं किया है।  
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह बाँध भारत के लिए चीन की रणनीतिक चाल हो सकती है, खासकर तब जब भारत ने 22 अप्रैल, 2025 को जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि को निलंबित किया था। जवाब में भारत ने अरुणाचल के सियांग जिले में 11,000 मेगावाट की जलविद्युत परियोजना प्रस्तावित की है, लेकिन यह चीन के बांध की तुलना में छोटी है।

चीन का मोटुओ हाइड्रोपावर स्टेशन न केवल एक इंजीनियरिंग चमत्कार है, बल्कि एक भू-राजनीतिक और पर्यावरणीय चुनौती भी है। यह बाँध ब्रह्मपुत्र के प्रवाह, भारत और बांग्लादेश की जल सुरक्षा, और हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी को प्रभावित कर सकता है। भारत को अपनी जल सुरक्षा, रणनीतिक तैयारियों और पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देना होगा। क्या भारत और चीन इस मुद्दे पर सहयोग कर सकते हैं, या यह एक नए "जल युद्ध" की शुरुआत है? यह सवाल भविष्य के गर्भ में है।