पाकिस्तान ने शिमला समझौता स्थगित करने की घोषणा की है। हालांकि पाकिस्तान ने शिमला समझौता न जाने कितनी बार तोड़ा है। सही भावना के साथ यह समझौता कभी लागू नहीं हुआ। वरिष्ठ पत्रकार पंकज श्रीवास्तव का विश्लेषणः
शिमला समझौते का ऐतिहासिक फोटो
1971 का साल भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। यह वह दौर था जब भारत ने अपनी सैन्य और कूटनीतिक ताकत से न केवल बांग्लादेश को आजादी दिलाई, बल्कि पाकिस्तान को घुटनों पर लाकर विश्व मंच पर अपनी धाक जमाई। इस जीत का परिणाम था शिमला समझौता, जो भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की दूरदर्शिता और लौह इच्छाशक्ति का प्रतीक बना। लेकिन 2025 में, पहलगाम आतंकी हमले के बाद सिंधु जल संधि को स्थगित करने के भारत के फ़ैसले के जवाब में पाकिस्तान ने शिमला समझौते को निलंबित करने की धमकी दी। सवाल उठता है कि क्या यह घोषणा कोई मायने रखती है, या यह एक ऐसे समझौते को दोबारा दफनाने की कोशिश है, जिसे पाकिस्तान ने पहले ही बार-बार तोड़ा?
1971 में पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में पाकिस्तानी सेना का अत्याचार चरम पर था। शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने 1970 के चुनाव में भारी जीत हासिल की, लेकिन पाकिस्तान ने उन्हें सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया। इससे बंगाली मुसलमानों में गुस्सा भड़क उठा। मुक्ति वाहिनी ने आजादी की जंग छेड़ दी, लेकिन पाकिस्तानी सेना ने नरसंहार शुरू कर दिया। लाखों बंगाली शरणार्थी भारत में दाखिल होने लगे, जिससे भारत पर मानवीय और आर्थिक बोझ बढ़ा।
भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, जिन्हें कभी "गूंगी गुड़िया" कहा गया था, ने इस संकट को अवसर में बदला। उन्होंने 3 दिसंबर 1971 को औपचारिक रूप से युद्ध में प्रवेश किया, जब पाकिस्तान ने भारत के पश्चिमी मोर्चे पर हवाई हमले किए। जनरल सैम मानेकशॉ के नेतृत्व में भारतीय सेना और मुक्ति वाहिनी ने मात्र 13 दिन में इतिहास रच दिया। 16 दिसंबर 1971 को ढाका में पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी ने लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने 93,000 सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण किया। बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र बना, और मुहम्मद अली जिन्ना का "दो राष्ट्र सिद्धांत" हमेशा के लिए दफन हो गया।
इस युद्ध में भारत की जीत सिर्फ सैन्य नहीं थी; यह आइडिया ऑफ इंडिया की आइडिया ऑफ पाकिस्तान पर जीत थी। लेकिन इस जीत के साथ एक और चुनौती थी—अमेरिका ने भारत को डराने के लिए अपनी सातवीं फ्लीट (टास्क फोर्स 74, यूएसएस एंटरप्राइज के नेतृत्व में) बंगाल की खाड़ी में भेजी थी। इंदिरा गांधी ने इस धमकी को नजरअंदाज कर दिया, और सोवियत संघ के समर्थन से भारत ने अपनी स्थिति मजबूत की।
युद्ध के बाद पाकिस्तान की हालत दयनीय थी। 93,000 युद्धबंदी और 5,000 वर्ग मील जमीन भारत के कब्जे में थी। पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो, जो उस समय राष्ट्रपति थे, पर भारी दबाव था। जनता और सेना के गुस्से से उनकी सत्ता खतरे में थी। मजबूरन, भुट्टो को समझौते की मेज पर आना पड़ा।
28 जून से 2 जुलाई 1972 तक शिमला के बर्नेस कोर्ट (अब राजभवन) में कठिन बातचीत हुई। इंदिरा गांधी ने अपनी कूटनीतिक चतुराई से भुट्टो को हर मोर्चे पर मात दी। एक मौके पर, जब समझौता टूटने की कगार पर था, इंदिरा गांधी ने कथित तौर पर भुट्टो से कहा, "बिना समझौते के यहां से तो चले जाओगे, लेकिन पाकिस्तान में कहां जाओगे?" यह इशारा युद्धबंदियों की रिहाई और भुट्टो की घरेलू राजनीतिक फजीहत की ओर था।
आखिरकार, 2 जुलाई 1972 को देर रात 12:40 बजे शिमला समझौता पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते की मुख्य शर्तें थीं:
भारत ने उदारता दिखाते हुए 93,000 युद्धबंदियों को रिहा किया और कब्जाई जमीन वापस कर दी। बदले में, भुट्टो ने वचन दिया कि कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठाया जाएगा। कुछ इतिहासकारों का दावा है कि भुट्टो ने लौटकर कहा था कि वे LoC को वास्तविक सीमा मानेंगे, लेकिन यह वादा खोखला साबित हुआ।
अपने पिता के साथ शिमला आई बेनजीर भुट्टो ने अपनी किताब डॉटर ऑफ द ईस्ट में लिखा कि समझौता होने पर पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल ने कोडवर्ड में कहा, "लड़का हुआ है," यानी समझौता हो गया। अगर बात नहीं बनती, तो वे कहते, "लड़की हुई है।" यह कोडवर्ड उस समय की तनावपूर्ण स्थिति और लैंगिक रूढ़ियों को भी दर्शाता है।
शिमला समझौता शांति की नींव रखने के लिए था, लेकिन पाकिस्तान ने इसकी भावना को बार-बार कुचला:
पाकिस्तान ने शिमला समझौते को कभी गंभीरता से नहीं लिया। जब भारत ने पहलगाम हमले के बाद सख्त कदम उठाए—जैसे सिंधु जल संधि को स्थगित करना, अटारी चेकपोस्ट बंद करना, और वाघा सीमा सील करना—तो पाकिस्तान ने जवाब में शिमला समझौते को निलंबित करने की घोषणा की। लेकिन जिस समझौते को उसने पहले ही तोड़ा, उसे निलंबित करने का क्या मतलब?
पाकिस्तान की यह घोषणा हताशा का प्रतीक है। इसके कुछ संभावित प्रभाव हो सकते हैं:
हालांकि, भारत आर्थिक रूप से पाकिस्तान से कहीं आगे है, इसलिए आर्थिक नुकसान सीमित होगा। पाकिस्तान पहले से ही कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहा है, इसलिए इस घोषणा से कोई बड़ा बदलाव नहीं आएगा। यह एक ऐसे समझौते को "दोबारा दफनाने" की कोशिश है, जिसे पाकिस्तान ने पहले ही मृत मान लिया था।
पाकिस्तान का यह कदम उसकी पुरानी रणनीति का हिस्सा है—जब भी घरेलू मोर्चे पर दबाव बढ़ता है, वह सीमा पर तनाव भड़काकर जनता का ध्यान भटकाता है। राष्ट्रवाद का उन्माद जगाना और भारत विरोधी बयानबाजी करना पाकिस्तानी शासकों की आदत रही है। शिमला समझौता भारत की उदारता और शांति की इच्छा का प्रतीक था, लेकिन पाकिस्तान ने इसकी कीमत नहीं समझी। आज जब पाकिस्तान इस समझौते को निलंबित करने की बात करता है, तो यह उसकी हताशा और सभ्यता की कसौटी पर विफलता को दर्शाता है। भारत को अब सख्ती के साथ जवाब देना होगा—न केवल सीमा पर, बल्कि कूटनीतिक और आर्थिक मोर्चों पर भी।