पाकिस्तान सऊदी अरब सैन्य समझौते के दौरान शहबाज शरीफ और सऊदी किंग सलमान
17 सितंबर 2025 को, जब भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 75वां जन्मदिन धूमधाम से मनाया जा रहा था, रियाद के यमामा पैलेस में एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर हो रहे थे। सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने "स्ट्रेटेजिक म्यूचुअल डिफेंस एग्रीमेंट" पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते में रक्षा सहयोग, तकनीकी हस्तांतरण, संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण और सैन्य उत्पादन शामिल हैं। भारत के लिहाज़ से इसका सबसे अहम पहलू इसमें यह लिखा जाना है: "एक देश पर हमला, दोनों पर हमला माना जाएगा।"
इसका अर्थ है कि यदि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध होता है, तो सऊदी अरब पाकिस्तान के साथ खड़ा होगा। यह समझौता भारत के लिए एक गंभीर चुनौती है, खासकर तब जब पाकिस्तान पहले से ही चीन के साथ सैन्य गठजोड़ में है।
समझौता क्यों?
इस समझौते की टाइमिंग अहम है। 9 सितंबर 2025 को इसराइल ने कतर की राजधानी दोहा के लीक्तैफिया इलाके में हवाई हमला किया, जहां हमास के नेता एक अमेरिकी सीजफायर प्रस्ताव पर चर्चा कर रहे थे। इस हमले में पांच हमास सदस्य और एक कतरी सुरक्षा अधिकारी मारे गए। कतर ने इसे "राज्य प्रायोजित आतंकवाद" करार दिया। हैरानी की बात यह थी कि अमेरिका के 8,000-10,000 सैनिक कतर के अल उदेद एयर बेस पर मौजूद थे, लेकिन इसराइली हमला रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया। अमेरिका ने इस हमले की वैसी निंदा भी नहीं की जैसी अपेक्षित थी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का बयान काफ़ी लापरवाही भरा था: "हमने चेतावनी दी थी, लेकिन इसराइल ने अपना फैसला लिया।"
यह हमला अरब देशों के लिए एक झटका है। अमेरिका 1945 से ही सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों को सुरक्षा की गारंटी देता रहा है लेकिन अब ऐसा लगता है कि इज़रायल को रोकने में उसकी रुचि नहीं है। 1990-91 के खाड़ी युद्ध में अमेरिका ने सऊदी अरब में पांच लाख सैनिक तैनात किये थे, और आज भी प्रिंस सुल्तान एयर बेस पर हजारों अमेरिकी सैनिक मौजूद हैं। लेकिन कतर पर हमले ने सऊदी अरब को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या अमेरिका पर भरोसा किया जा सकता है। इसराइल परमाणु हथियारों से लैस है। उसके खिलाफ एक वैकल्पिक सुरक्षा व्यवस्था की जरूरत थी। यहीं से पाकिस्तान की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी जिसके पास परमाणु हथियार हैं और जो इसराइल के खिलाफ अरब देशों के समर्थन में सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर सकता है।
अब्राहम अकॉर्ड
अमेरिका ने 2020 में अब्राहम अकॉर्ड्स के तहत इसराइल और कई अरब देशों—UAE, बहरीन, मोरक्को और सूडान—के बीच संबंध सामान्य कराये थे। सऊदी अरब इसमें शामिल नहीं हुआ, मुख्य रूप से फिलिस्तीन मुद्दे के कारण। ट्रंप ने कहा था कि यदि सऊदी अकॉर्ड में शामिल होता है, तो यह मध्य पूर्व के लिए "विशेष दिन" होगा।
गजा युद्ध और कतर पर हमले ने सऊदी को अब्राहम अकॉर्ड्स से और दूर कर दिया। इसके बजाय, सऊदी ने पाकिस्तान के साथ रक्षा समझौता चुना, जो अरब देशों के बीच अमेरिका की साख के कम होने का संकेत है।
सऊदी-पाकिस्तान संबंध
सऊदी अरब और पाकिस्तान का रिश्ता दशकों पुराना है। 1977 में पाकिस्तान ने लायलपुर का नाम बदलकर सऊदी किंग फैसल के सम्मान में फैसलाबाद रखा था। सऊदी ने 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद पाकिस्तान को 3.4 बिलियन डॉलर की मदद दी थी। 2018-19 में इमरान खान की सरकार को 6 बिलियन डॉलर का पैकेज और 2022-23 में IMF डील के लिए 2-3 बिलियन डॉलर की सहायता दी। सऊदी अरब में 25 लाख पाकिस्तानी काम करते हैं, जो वहां की अर्थव्यवस्था में योगदान देते हैं। यह समझौता इस पुराने रिश्ते को और मजबूत करता है, और पाकिस्तान को सऊदी के संसाधनों से अपनी सेना को उन्नत करने का मौका देता है।
सऊदी की आर्थिक ताकत
सऊदी अरब दुनिया का सबसे बड़ा तेल निर्यातक है। 2025 में इसकी GDP वृद्धि 3% और गैर-तेल क्षेत्र में 3.4% रही। IMF के अनुसार, सऊदी अर्थव्यवस्था मजबूत और लचीली है। 1932 में अब्दुल अज़ीज़ ने सऊदी अरब को एकीकृत किया था और 1938 में तेल की खोज ने इसे समृद्ध बनाया। 1970 के दशक में तेल बूम के बाद, किंग फैसल ने आधुनिकीकरण शुरू किया। 2015 से क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का विजन 2030 डाइवर्सिफिकेशन पर केंद्रित है, जिसमें तेल के इतर पर्यटन और अन्य क्षेत्रों में भी क़दम बढ़ाये जा रहे हैं।। मक्का और मदीना के कारण हर साल लाखों हज और उमरा यात्री सऊदी अर्थव्यवस्था में योगदान देते हैं।
भारत के लिए ख़तरा?
यह समझौता भारत के लिए कई कारणों से चिंताजनक है। 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए आतंकी हमले में 26 बेगुनाहों की जान गयी जिसके बाद 7 मई 2025 को भारत ने आपरेशन सिंदूर शुरू किया। आतंकी हमले को पाकिस्तान प्रायोजित बताते हुए भारत ने पाकिस्तान के अंदर हमला किया और कई आतंकी ठिकानों को नेस्तनाबूद कर दिया। हालांकि ऑपरेशन चार दिन बाद रुक गया, लेकिन पीएम मोदी ने कहा कि यह "स्थगित" है, समाप्त नहीं। इसका मतलब है कि भारत और पाकिस्तान युद्ध की स्थिति में हैं। यदि भारत फिर से कार्रवाई करता है, तो सऊदी अरब इस समझौते के तहत पाकिस्तान के साथ खड़ा हो सकता है।
हालाँकि भारत और सऊदी अरब के बीच संबंध भी मजबूत रहे हैं। दोनों के बीच 1947 से ही राजनयिक संबंध हैं, और सऊदी भारत का तीसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता है। पीएम मोदी 2016, 2019 और अप्रैल 2025 में सऊदी गये। 2024 में 225 मिलियन डॉलर का रक्षा समझौता भी हुआ। फिर भी, सऊदी ने पाकिस्तान को चुना, जो भारत के लिए एक झटका है।
चीन-पाक-सऊदी गठजोड़?
क्या सऊदी अब पाकिस्तान-चीन गठजोड़ में शामिल हो गया है? ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन ने पाकिस्तान का खुलकर समर्थन किया था। भारतीय सेना के उप-प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल राहुल आर. सिंह ने स्वीकार किया कि भारत एक साथ पाकिस्तान और चीन से लड़ रहा था। यह बात भी मानी गयी है कि चीन के तकनीकी सहयोग के कारण ही भारत के कुछ लड़ाकू जहाज़ गिरे, हालाँकि संख्या अब तक नहीं बतायी गयी। यदि सऊदी भी इस गठजोड़ में शामिल होता है, तो भारत को तीन मोर्चों—पाकिस्तान, चीन और सऊदी—से निपटना पड़ सकता है, जिसमें दो परमाणु हथियार संपन्न देश हैं।
विदेश नीति की असफलता?
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने फरवरी 2022 में लोकसभा में चेतावनी दी थी: "भारत का रणनीतिक लक्ष्य चीन और पाकिस्तान को अलग रखना होना चाहिए था, लेकिन आपने उन्हें एक साथ ला दिया। यह भारत के लिए गंभीर खतरा है।" तीन साल बाद, सऊदी अरब का इस गठजोड़ में शामिल होना भारत की विदेश नीति की असफलता को दर्शाता है। मोदी सरकार ने शंघाई सहयोग संगठन की बैठकों में चीन के साथ संबंधों को सामान्य करने की कोशिश की, लेकिन यह "पेंडुलम डिप्लोमेसी"—अमेरिका और चीन के बीच झूलते रहना—भारत को कमजोर कर रही है। भारतीय मीडिया भले ही "विश्व गुरु" का ढोल पीटे, लेकिन हकीकत यह है कि सऊदी-पाकिस्तान समझौता भारत के लिए एक रणनीतिक झटका है।
सऊदी-पाकिस्तान रक्षा समझौता मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया की भू-राजनीति को बदल सकता है। यह अमेरिका की कमजोर होती पकड़ और अरब देशों की स्वतंत्र सुरक्षा व्यवस्था की तलाश का संकेत है। भारत के लिए यह एक जटिल चुनौती है, क्योंकि वह सऊदी के साथ मजबूत आर्थिक और रणनीतिक संबंधों को बनाए रखते हुए पाकिस्तान और चीन के गठजोड़ का सामना कर रहा है। यह समय है कि भारत अपनी विदेश नीति की समीक्षा करे और क्षेत्रीय शक्ति संतुलन में अपनी स्थिति को मजबूत करे। अन्यथा, यह समझौता न केवल भारत की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकता है, बल्कि उसकी वैश्विक छवि को भी कमजोर कर सकता है।