डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ़ का सामना करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने स्वदेशी अपनाने का आग्रह करते हुए स्वदेशी की ही परिभाषा ख़तरनाक ढंग से बदल डाली है। उनका कहना है कि किसी काम में पैसा चाहे जो भी लगाए- चाहे डॉलर लगाए या पौंड लगाए, लेकिन अगर उसमें भारतीयों का पसीना लगा है तो वह उद्यम स्वदेशी है। इस तर्क से उन्होंने जापानी उद्यम वाली सुजुकी को भी भारतीय घोषित कर दिया है। 

वाकई कभी मारुति भारतीय होती थी, अब भी वह भारतीयों की पसंदीदा गाड़ी है- भारत में कारों के जनतंत्रीकरण का श्रेय उसी को जाता है, लेकिन सुजुकी की मिल्कियत के बाद उसे स्वदेशी मान लेंगे तो बहुत सारे अन्य उद्यमों को भी आपको स्वदेशी मानना होगा। इस तर्क से फिर हिंदुस्तान लीवर के उत्पाद भी स्वदेशी हैं, बाटा भी स्वदेशी है, ऐप्पल के फोन स्वदेशी हैं।
जाहिर है, यह नई अवधारणा स्वदेशी के मूल लक्ष्य को ही नष्ट कर देती है। लेकिन स्वदेशी का मूल लक्ष्य है क्या। भारतीय राजनीति और समाज को यह शब्द गांधी ने दिया था। वे जब विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की बात करते थे तब उनका वास्ता उनकी मिल्कियत से ही नहीं, उनकी उत्पादन प्रणाली से भी होता था। यही वजह थी कि चरखे को उन्होंने स्वदेशी के आंदोलन का ही नहीं, स्वतंत्रता की लड़ाई का सबसे बड़ा प्रतीक बनाया था। उनका सपना ऐसे आत्मनिर्भर गांव बनाना था जो अपनी ज़रूरत का ज़्यादातर सामान ख़ुद उत्पादित कर लेते हों। इसे वे ग्राम स्वराज्य की अपनी अवधारणा से जोड़ते थे।
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लेकिन यह सच है कि स्वदेशी की वह अवधारणा हमारे समय में नहीं चल सकती। जब दुनिया भर के बाज़ार भारत के लिए खोले गए थे तब स्वदेशी जागरण मंच जैसे दक्षिणपंथी संगठनों के लेकर सीटू और ऐटक जैसे वामपंथी संगठनों ने भी उसका विरोध किया था। लेकिन सारे विरोध मरते चले गए, बाज़ार अपनी गति से बढ़ता रहा, उसने हमारे समाज, हमारी राजनीति सबकुछ को बदल डाला। स्वदेशी एक पीछे छूटी हुई अवधारणा हो गई। भूमंडलीकरण ने पूरे भारत को उपभोक्ता देश में बदल डाला। यह काम मनमोहन सिंह ने शुरू किया, लेकिन बीजेपी ने इसे उसी तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ाया। 
सरकारी कंपनियों को बेचने की प्रक्रिया हो, बीमा और बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों को न्योता देने का मामला हो- यह सब अबाध गति से चलता रहा। जो बीजेपी कभी कहा करती थी कि विदेशों से कंप्यूटर चिप्स चलेंगे, आलू चिप्स नहीं (हालांकि यह भी एक त्रुटिपूर्ण खयाल ही था) उसने पाया कि भारत की गली-गली में खुले मैकडोनाल्ड और केएफ़सी के 'आउटलेट' (यह भी भारत की कारोबारी दुनिया में एक नया शब्द था) आलू के चिप्स बेच रहे हैं।
अब अगर प्रधानमंत्री स्वदेशी की ओर लौटना चाह रहे हैं तो इसमें सैद्धांतिक तौर पर कोई बुराई नहीं है। लेकिन यह 'स्वदेशी' कैसे संभव होगा? क्या भारत ने चीन या जापान की तरह ऐसा कोई उद्यम किया है जिससे वह इलेक्ट्रॉनिक्स, अभियंत्रण या ऐसे ही वैज्ञानिक क्षेत्रों में अपने स्वदेशी आधार का दावा कर सके? चीन के पास गूगल की तरह का अपना सर्च इंजन है, उसके अपने सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म हैं, लेकिन भारत के पास क्या है? हम स्वदेशी को अपनाने की बात करें तो हमें सबसे पहले फेसबुक, एक्स या ऐसे दूसरे प्लैटफॉर्म छोड़ देने चाहिए। हमें गूगल का इस्तेमाल बंद देना चाहिए, माइक्रोसॉफ़्ट से दूरी बरत लेनी चाहिए। ऐप्पल और सैमसंग के फोन भी हमें छोड़ने होंगे। चीनी फोन से भी नाता तोड़ना होगा। क्या यह संभव है?

सच तो यह है कि आज की दुनिया में संपूर्ण स्वदेशी जैसा कुछ नहीं हो सकता। भारत का जो विराट लघु और मझोला उद्योग-संसार है, वह भी अपने उत्पादन के लिए विदेशी कलपुर्जों और संयंत्रों या कच्चे माल पर निर्भर करता है।

कुछ अरसा पहले जब चीन से आने वाले एक-एक सामान की जांच की मांग शुरू हुई तो इन कारोबारियों ने बहुत नुक़सान उठाया। हम जिन्हें स्वदेशी हथियार और विमान बताते हैं, उनमें भी विदेशी इंजन और कलपुर्जे लगे होते हैं। 

फिर प्रधानमंत्री किस स्वदेशी की बात कर रहे हैं? इसका जो भी अर्थ हो, उनके भक्तों के लिए इसके इशारे ख़तरनाक हैं। वे स्वदेशी के नाम पर फिर उन छोटी-मोटी दुकानों को बंद कराने का काम शुरू कर देंगे जो आसानी से उनके निशाने पर चले आएंगे। अभी ही पर्व-त्योहारों के समय पवित्र खानपान के नाम पर ग़ाज़ियाबाद से हरिद्वार तक दुकानों में सामिष व्यंजनों पर रोक लगाने का सिलसिला चल पड़ा था और इसकी ज़द में ग़ाज़ियाबाद का केएफ़सी भी आया था। तमाम मॉल और बाज़ारों में कपड़ों के, इलेक्ट्रॉनिक सामानों के, गाड़ियों के ऐसे शोरूम हैं जहां विदेशी सामान भरे पड़े हैं। कई ब्रांड ऐसे हैं जो दरअसल विदेशी हैं, लेकिन बिल्कुल भारतीय लगते हैं। इन सबका क्या होगा? क्या फिर स्वदेशी के उत्साही समर्थक इन सबको तोड़फोड़ कर बाहर करने के जोशोख़रोश के साथ सड़क पर उतरेंगे?
यह सच है कि ट्रंप की धमकियों और उनके दबावों के आगे झुकना नहीं चाहिए। एक देश के रूप में भारतीय अभिमान का यह तकाजा है कि वह कुछ नुक़सान उठा कर भी, कुछ संकट झेलते हुए भी अपनी शर्तों पर दुनिया भर से संबंध बनाए और कारोबार करे। रूस और भारत के बीच फिर से मज़बूत हो रहे संबंध इस दिशा में एक उचित क़दम हैं। चीन के साथ भी हमारा लेनदेन अनिवार्य है और इसे बढ़ना चाहिए। अच्छी बात यह है कि चीन ने भी इस दिशा में हाथ बढ़ाया है।
लेकिन प्रधानमंत्री जिस स्वदेशी की बात कर रहे हैं, उस पर अमल के लिए पहले हमें 'स्वदेश' को समझना होगा। अभी तो हालत यह है कि हम अपने ही देश के एक तबके के आर्थिक बहिष्कार की बात करते हैं, बहुत उत्साह में आते हैं तो दिवाली के मौक़े पर चीनी लड़ियां और फुलझड़ियां ख़रीदना बंद कर देते हैं, लेकिन हमारे घरों में, सुबह से शाम तक, जितनी तथाकथित विदेशी सामग्री का इस्तेमाल होता है, उस पर ध्यान नहीं देते। सच तो यह है कि अब ये इस्तेमाल बंद करना संभव ही नहीं है।
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प्रधानमंत्री के आग्रह के बाद कई राज्यों में दुकानदारों ने एलान कर दिया है कि वह अपने यहां स्वदेशी का बोर्ड लगाएंगे। लेकिन इन दुकानों पर वे क्या बेचेंगे? क्या हमारी दवा दुकानें स्वदेशी के आग्रह से चल पाएंगी? दरअसल स्वदेशी का यह आग्रह अधूरा भी है और अव्यावहारिक भी- इस लिहाज से चौंकाने वाला भी कि प्रधानमंत्री ने स्वदेशी की एक नई परिभाषा बना दी है। डॉलर और पौंड चाहें तो भारतीय पसीना खरीद कर अपना माल स्वदेशी कर लें।