भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में जाति एक ऐसा मुद्दा है, जो न केवल सामाजिक संरचना को प्रभावित करता है, बल्कि राजनीतिक रणनीतियों को भी गढ़ता है। हाल ही में
उत्तर प्रदेश में जातिगत रैलियों पर रोक और केंद्र सरकार द्वारा जाति जनगणना की मंजूरी जैसे फैसलों ने इस बहस को और तीव्र कर दिया है। सवाल ये है कि क्या ये कदम सामाजिक सुधार की दिशा में हैं, या बीजेपी के लिए एक राजनीतिक सुरक्षा कवच, जो राहुल गाँधी की जाति जनगणना और अखिलेश यादव की पीडीए राजनीति में घिरी हुई है। सवाल ये भी है कि जाति प्रथा को बनाये रखते हुए सिर्फ़ उसके शक्ति प्रदर्शन पर रोक का हासिल क्या होगा? क्या यह कथित रूप से पिछड़ी कही जाने वाली जातियों की दावेदारी रोकने का एक प्रयास है?
हाईकोर्ट का आदेश
21 सितंबर 2025 को उत्तर प्रदेश के कार्यवाहक मुख्य सचिव दीपक कुमार ने एक आदेश जारी किया, जिसमें सभी जिला मजिस्ट्रेटों, सिविल सेवकों और पुलिस प्रमुखों को जातिगत आधार पर रैलियों को तत्काल प्रभाव से रोकने का निर्देश दिया गया था। इसके साथ ही, पुलिस रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख बंद करने और सार्वजनिक स्थानों पर जाति-आधारित चिह्नों, वाहनों पर स्टिकर या स्लोगन हटाने का आदेश भी शामिल था। यह फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस विनोद दिवाकर के 16 सितंबर 2025 के आदेश का परिणाम था।
जस्टिस दिवाकर ने अपने फ़ैसले में जाति-आधारित प्रदर्शन को "राष्ट्र-विरोधी" करार दिया, जो संवैधानिक मूल्यों जैसे समानता और बंधुत्व को कमजोर करता है। उन्होंने पुलिस रिकॉर्ड में जाति उल्लेख को "कानूनी भ्रम" बताया और इसे केवल SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम के मामलों तक सीमित करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने सोशल मीडिया पर जातिगत गौरव को बढ़ावा देने वाले कंटेंट को "इको चैंबर" करार देते हुए निगरानी और कार्रवाई की मांग की। साथ ही, मोटर वाहन नियमों में संशोधन की सिफारिश की गई ताकि जाति-आधारित स्टिकर या स्लोगन पर जुर्माना लगाया जा सके।
डॉ. बी.आर. आंबेडकर का हवाला देते हुए जस्टिस दिवाकर ने कहा, "जातियां राष्ट्र-विरोधी हैं क्योंकि वे जाति और जाति के बीच ईर्ष्या और वैमनस्य पैदा करती हैं। गर्व चरित्र में होना चाहिए, न कि वंश में।"
बीजेपी और जाति की राजनीति: दोहरा चरित्र?
जातिगत रैलियों पर रोक का फैसला सतह पर सामाजिक सुधार की दिशा में एक कदम लगता है, लेकिन बीजेपी की अपनी राजनीतिक रणनीति और नेताओं के बयान इसे संदिग्ध बनाते हैं। योगी आदित्यनाथ ने 17 फरवरी 2022 को झांसी में एक इंटरव्यू में कहा था, "मैं अजय सिंह बिष्ट पैदा हुआ था, लेकिन अब योगी आदित्यनाथ हूं। मुझे उत्तम कुल में जन्म होने पर गर्व है।" यह बयान, जिसमें उन्होंने क्षत्रिय कुल को "उत्तम" बताया, मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था को मान्यता देता है।
इसी तरह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान, विशेष रूप से कोलकाता (फरवरी 2014) और बिहार की रैलियों में, अपनी OBC पहचान को बार-बार उजागर किया। 2024 के चुनावों में भी, जैसे नांदेड़ (9 नवंबर 2024) और बोकारो (10 नवंबर 2024) की रैलियों में, उन्होंने OBC हितों के रक्षक के रूप में खुद को प्रस्तुत किया। यह रणनीति OBC वोटरों को आकर्षित करने के लिए थी। सवाल उठता है कि जब बीजेपी के शीर्ष नेता अपनी जातिगत पहचान पर गर्व जताते हैं, तो दूसरों की जाति पहचान से घबराते क्यों हैं?
जाति जनगणना और पीडीए
30 अप्रैल 2025 को मोदी कैबिनेट ने जाति जनगणना को मंजूरी दे दी। राहुल गाँधी की इस माँग को पीएम मोदी कभी अर्बन नक्सल की माँग ठहरा चुके थे। यह फैसला राहुल गांधी की जीत माना जा रहा है। राहुल गांधी ने 2024 के चुनाव प्रचार में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को शासन-प्रशासन में उचित प्रतिनिधित्व न मिलने का मुद्दा उठाया था। बीजेपी ने शुरू में इस माँग का विरोध करते हुए इसे "हिंदू समाज को तोड़ने" वाला कदम करार दिया था। योगी आदित्यनाथ ने "बँटोगे तो कटोगे" का नारा दिया, लेकिन 2024 के चुनावों में यूपी में बीजेपी की 33 सीटों (NDA की कुल 36) तक सिमटने के बाद यह फैसला लिया गया।
विपक्ष, खासकर अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) नारे के साथ 2024 में 37 सीटें जीतकर बीजेपी को बड़ा झटका दिया था।
अखिलेश ने गैर-यादव OBCs को टिकट देकर सामाजिक न्याय के पक्ष में गोलबंदी करने में कामयाबी पायी। हाल ही में SP द्वारा गुर्जर सम्मेलन जैसे आयोजन बीजेपी को और असहज कर रहे थे। ऐसे में हाईकोर्ट का फ़ैसला उसके लिए एक मौक़े की तरह आया है।
बीजेपी की जाति राजनीति
यूपी के मंत्रिमंडल में कई ऐसे नेता हैं, जो स्पष्ट रूप से जाति-आधारित पार्टियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उदाहरण के लिए:
- संजय निषाद: निषाद पार्टी के नेता, जो निषाद समुदाय (मछुआरों) का मंच है। 2018 में गोरखपुर उपचुनाव में उनकी पार्टी ने SP के साथ गठबंधन कर बीजेपी को हराया था, लेकिन 2019 में वे NDA में शामिल हो गए।
- ओमप्रकाश राजभर: सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता, जो राजभर समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। पहले SP के साथ थे, लेकिन बाद में NDA में शामिल होकर योगी सरकार में मंत्री बने।
- जितिन प्रसाद: कांग्रेस छोड़कर 2021 में BJP में शामिल हुए। उन्होंने 2020 में ब्राह्मण चेतना परिषद बनाकर योगी सरकार पर ब्राह्मण-विरोधी होने का आरोप लगाया था। 2024 में BJP के टिकट पर पीलीभीत से जीतकर वे केंद्रीय राज्यमंत्री बने।
यह पैटर्न स्पष्ट है, जाति को संगठित कर वोटबैंक बनाना और फिर बीजेपी से पुरस्कार हासिल करना। ऐसे में, जब बीजेपी जातिगत रैलियों पर रोक की बात करती है, तो उसकी नीयत पर सवाल उठते हैं। क्या यह सामाजिक सुधार की इच्छा है, या विपक्ष द्वारा सामाजिक न्याय के नाम पर जाति को संगठित करने की रणनीति को कमजोर करने की कोशिश?
मनुस्मृति और हिंदुत्व
बीजेपी और उसके वैचारिक स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) पर अक्सर मनुस्मृति को समर्थन देने का आरोप लगता है। RSS ने 1950 में संविधान का विरोध किया था, क्योंकि इसमें मनुस्मृति का जिक्र नहीं था। सावरकर इसे "हिंदू लॉ" मानते थे। मनुस्मृति वह ग्रंथ है, जो स्त्रियों और शूद्रों को गुलाम बनाए रखने की व्यवस्था को धर्मसम्मत ठहराता है। डॉ. आंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को महाड (महाराष्ट्र) में मनुस्मृति को सार्वजनिक रूप से जलाया था, क्योंकि यह ग्रंथ जातिगत भेदभाव और वर्ण व्यवस्था को वैधता देता था।
जब योगी आदित्यनाथ "उत्तम कुल" की बात करते हैं, तो यह मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था को ही मान्यता देता है। आलोचकों का कहना है कि बीजेपी हिंदू एकता के नाम पर सवर्ण प्रभुत्व को बनाए रखना चाहती है।
उत्पीड़ित जातियों की रैलियां ऐतिहासिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाती हैं, लेकिन "उच्च" जातियों की रैलियां अक्सर उस अन्याय पर गर्व जताती हैं। दोनों को एक समान मानना सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को कमजोर करता है।
जाति प्रथा का अंत
डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक जाति का विनाश (Annihilation of Caste) में कहा था कि जाति व्यवस्था को खत्म करने का सबसे प्रभावी तरीका अतरजातीय विवाह है। उन्होंने इसे सामाजिक और जैविक एकता का आधार माना। 1940 में बंबई में उन्होंने कहा, "जाति प्रथा को तोड़ने के लिए हमें अपने बच्चों को दूसरी जातियों में विवाह करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। यह एक क्रांति होगी।”
महात्मा गांधी इस मुद्दे पर आंबेडकर से सहमत थे। 16 नवंबर 1935 को अपने पत्र हरिजन में उन्होंने लिखा, "अंतरजातीय विवाह हिंदू समाज की कट्टरता को तोड़ने का एक शक्तिशाली साधन है।" साबरमती और सेवाग्राम आश्रमों में कई अंतर्जातीय विवाह हुए, जिनमें गांधी व्यक्तिगत रूप से शामिल होते थे।
समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया भी जाति को भारतीय समाज की सबसे बड़ी बुराई मानते थे। उन्होंने "जाति तोड़ो" सम्मेलनों का आयोजन किया और कहा कि नीची जातियां अक्सर निम्न आर्थिक वर्ग में होती हैं, क्योंकि शिक्षा, जमीन और संसाधनों पर उच्च जातियों का कब्जा रहा है।
जातिगत रैलियों पर रोक और जाति जनगणना की मंजूरी सतह पर प्रगतिशील कदम लगते हैं, लेकिन बीजेपी की रणनीति और नेताओं के बयान इनके पीछे दोहरे मापदंडों की ओर इशारा करते हैं। जब बीजेपी के नेता अपनी जातिगत पहचान पर गर्व जताते हैं और जाति-आधारित पार्टियों को मंत्रिमंडल में जगह देते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या यह वास्तव में सामाजिक सुधार की दिशा में कदम है, या हिंदुत्व के नाम पर सवर्ण प्रभुत्व को बनाए रखने की रणनीति?
जाति प्रथा का अंत तभी संभव है, जब समाज अंतरजातीय विवाह और सामाजिक एकता को अपनाये। जस्टिस दिवाकर ने आंबेडकर का हवाला देकर सही दिशा दिखाई, लेकिन बीजेपी और RSS से "जाति का विनाश" जैसा कोई नारा सुनाई नहीं देता। अगर जाति का उल्लेख बंद भी हो जाए, तो क्या प्रथा खत्म हो जाएगी? यह वैसा ही है जैसे आग लगे, लेकिन ताप न हो। असली सवाल यह है कि भारत कब उस क्रांति की ओर बढ़ेगा, जिसका सपना आंबेडकर, गांधी और लोहिया ने देखा था—एक ऐसा भारत, जहां गर्व चरित्र पर हो, न कि वंश पर।