बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान पर चुनाव आयोग के तेवर नरम क्यों पड़ते दिख रहे हैं। जानिए, दस्तावेज़ों की अनिवार्यता पर आयोग ने अब क्या नयी घोषणा की।
चुनाव आयोग ने बिहार में भारी विरोध और परेशानियों के बाद चुपचाप यह फ़ैसला सुनाया है कि जिन 11 दस्तावेजों की सूची दी गई थी उनमें से अगर एक भी डॉक्यूमेंट किसी के पास नहीं है तब भी उसका एन्यूमरेशन फॉर्म जमा हो सकता है। इससे साफ़ पता चलता है कि चुनाव आयोग ने जो शुरुआती तेवर दिखाए थे वह अब ढीले पड़ चुके हैं लेकिन इसमें कुछ पेच अब भी बाकी है।
बिहार में चुनाव आयोग को एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण करना था लेकिन फ़िलहाल वह अपने ही आदेश की लगातार समीक्षा कर रहा है। दस्तावेज़ों के मामले में चुनाव आयोग तो पीछे हट गया है लेकिन वह अभी कह रहा है कि अगर वोटर कार्ड बना हुआ है तो भी गणना प्रपत्र (एन्यूमरेशन फॉर्म) भरना ज़रूरी है।
एसआईआर का दाँव उल्टा पड़ा?
याद रखने की बात यह है कि शुरू में भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड के बड़े नेताओं ने इस प्रक्रिया का समर्थन किया था, लेकिन लगता है कि उनका यह दांव उल्टा पड़ गया और अब चुनाव आयोग को बैकफुट पर जाना पड़ा है। खास तौर पर जनता दल यूनाइटेड के कई नेताओं का मानना था कि इस तरह की दस्तावेज की शर्तों से उनके अति पिछड़े और महिला वोटरों पर काफी बुरा असर पड़ेगा। इसके बावजूद जनता दल यूनाइटेड के किसी नेता ने यह हिम्मत नहीं की कि एसआईआर इसका विरोध करें। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि अगर नीतीश कुमार की सेहत सही रहती तो जनता दल यूनाइटेड की ओर से जरूर इसका विरोध किया जाता।
मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण को लेकर चुनाव आयोग के तेवर कई बार ढीले पड़े हैं लेकिन याद रखने की बात यह है कि अब भी इसने इसमें एक पेच लगा रखा है। चुनाव आयोग के विज्ञापन में यह बात बताई गई है कि अगर आप जरूरी दस्तावेज उपलब्ध कराते हैं तो निर्वाचन निबंधन पदाधिकारी यानी ईआरओ को आवेदन को प्रोसेस करने में आसानी रहेगी। इसके ठीक बाद चुनाव आयोग का विज्ञापन कहता है कि अगर आप जरूरी दस्तावेज उपलब्ध नहीं करा पाते हैं तो निर्वाचक निबंधन पदाधिकारी यानी ईआरओ द्वारा स्थानीय जांच या अन्य दस्तावेज के साक्ष्य के आधार पर निर्णय लिया जा सकेगा। यानी अब दस्तावेज देना ज़रूरी तो नहीं रहा लेकिन अगर चुनाव आयोग का अधिकारी यह मान ले कि आपको दस्तावेज की जरूरत है तो उसे देना पड़ेगा।
एसआईआर के लिए 11 दस्तावेजों में आधार नहीं
जैसे ही एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण के बारे में खबर आई थी तो चुनाव आयोग ने यह बताया था कि वह 11 तरह के दस्तावेजों की सांकेतिक सूची दे रहा है, इनमें से किसी एक को अपने एन्यूमरेशन फॉर्म के साथ देना जरूरी होगा। याद रखने की बात है कि चुनाव आयोग ने इसके लिए आधार कार्ड, पैन कार्ड और राशन कार्ड को मान्यता नहीं दी थी। चुनाव आयोग ने फरवरी में अंतिम तौर पर मतदाता पुनरीक्षण किया था लेकिन अचानक उसने एसआईआर का फरमान सुनाया जिसे बिहार के लोग और विपक्षी दल हैरत में पड़ गए।
विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि एसआईआर दरअसल भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड को फायदा पहुंचाने और विपक्षी दलों को नुकसान पहुंचाने की प्रक्रिया है। चुनाव आयोग का एसआईआर का यह फैसला 24 जून को सामने आया लेकिन उससे पहले 7 जून को राहुल गांधी ने बिहार में महाराष्ट्र मैच फिक्सिंग दोहराए जाने की आशंका जताई थी। चुनाव आयोग के ताजातरीन विज्ञापन से इस मैच फिक्सिंग की आशंका कुछ हद तक जरूर कम हुई होगी।
एसआईआर चुनाव आयोग के नोटिफिकेशन में घुसपैठियों की बात का भी जिक्र था जो भारतीय जनता पार्टी का एजेंडा माना जाता है। यह भी कहा गया था कि चुनाव आयोग के अधिकारी एसआईआर के आधार पर घुसपैठियों को चिन्हित कर सरकार को सूचित करेंगे।
इसकी वजह से विपक्षी दलों और सामाजिक संगठनों ने यह आरोप लगाया था कि चुनाव आयोग दरअसल मोदी सरकार के एनआरसी को बैक डोर से लागू कर रहा है।
मोदी-शाह घुसपैठिए के आरोप लगाते रहे हैं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह सीमांचल के बारे में यह आरोप लगाते रहे हैं कि वहां घुसपैठिए हैं। इन इलाकों में मुसलमानों की संख्या दूसरे जिलों से अधिक मानी जाती है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पर यह आरोप लगता है कि वह दरअसल घुसपैठियों की बात मुसलमान को टारगेट करने के लिए करते हैं। कई लोगों ने कहा कि नागरिकता तय करने का अधिकार भारत के गृह मंत्रालय के पास है तो भारत का निर्वाचन आयोग इस काम में क्यों टांग अड़ा रहा है।
एसआईआर की घोषणा के कुछ दिनों बाद चुनाव आयोग ने यह साफ़ किया था कि जिन लोगों का नाम 2003 की मतदाता सूची में होगी उन्हें किसी तरह का दस्तावेज देने की जरूरत नहीं होगी। इसके बाद चुनाव आयोग ने यह सुविधा दी कि 2003 की वोटर लिस्ट में जिन लोगों के नाम हैं उनके बच्चों को भी अपने एन्यूमरेशन फॉर्म के साथ कोई दस्तावेज नहीं देना होगा। वैसे तो 2003 की लिस्ट के आधार पर छूट देने की बात में भी कुछ परेशानियां थीं जैसे लोगों की जगह बदल गई या लोगों ने नाम सुधार करवाया था।
मताधिकार खोने की आशंका
इसके बावजूद विपक्षी दलों और सामाजिक संगठनों का कहना था कि लगभग तीन करोड़ लोगों को कोई न कोई दस्तावेज देना पड़ेगा जो उनके लिए बहुत मुश्किल काम है। बिहार के बारे में आम मान्यता यह है कि यहां के गरीब, पिछड़े और दलित समुदाय के लोगों के पास कई तरह के दस्तावेज नहीं रहते। उदाहरण के लिए चुनाव आयोग की सूची में जो 11 दस्तावेज शामिल थे उनमें जन्म प्रमाण पत्र तो बहुत ही कम लोगों के होते हैं और बिहार में मैट्रिक पास करने वालों की संख्या अब भी 50 फीसद से कम है।
विपक्षी दलों और कई सामाजिक संगठनों ने यह सवाल उठाया था कि बिहार में बड़ी आबादी दस्तावेज रखने में सक्षम नहीं है और उन्हें दस्तावेज नहीं देने के आधार पर वोटर लिस्ट से हटाया जाना अलोकतांत्रिक कदम होगा। इसके बावजूद चुनाव आयोग अड़ा हुआ था। लेकिन ऐसा लगता है कि बिहार में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड को यह एहसास हो गया कि इस प्रक्रिया से उसे भारी नुकसान उठाना पड़ेगा और अब चुनाव आयोग ने इस पूरी प्रक्रिया को आसान बनाने की तरफ कदम बढ़ाया है।