बानवे बरस की उम्र में भी, आशा भोसले की हँसी में वही शोखी और है, जैसे कोई सोलह साल की नवयौवना गुनगुना रही हो। और उनकी आवाज़? वो तो अब भी वैसी ही है- जो आधी सदी से ज़्यादा वक़्त तक अपनी गायकी से आपकी ज़िंदगी को रूमानी बनाती रही। कहती हैं, “अभी तो मुझे बहुत कुछ देना है!” कौन इस बात पर शक करेगा? वो जोश, वो जुनून, उसे कैसे बांधा जाए, जो हर खाँचे से फिसलकर बाहर निकल आता है?

आशा भोसले बस एक गायिका नहीं; वो बग़ावत की मखमली आवाज़ हैं, सांसों पर सवार दुस्साहस, और आधुनिक हिंदुस्तानी औरत की वो धुन, जो अपनी सारी रंग-बिरंगी उलझनों के साथ ज़िंदगी को गाती है, जीती है। 1958 में “आइए मेहरबान” के साथ मधुबाला की मोहक अदा को उनकी आवाज़ ने नया जामा पहनाया, और 1995 में “रंगीला” में उर्मिला की थिरकन को नाइटक्लब का माहौल तैयार किया।

उनकी ज़िंदगी ही उन रूढ़ियों को ठेंगा दिखाती है, जो उनकी पीढ़ी की औरतों पर थोपी गई थीं। सोलह की उम्र में गणपतराव भोसले से ब्याह, फिर जल्द ही तलाक, और फिर ज़रूरतों ने उन्हें वो रास्ता दिखाया, जिसे उन्होंने अपनी मेहनत से चमकाया। आशा का रास्ता आसान न था—भूख थी, जद्दोजहद थी, और जीने की ज़िद थी।
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उन्होंने वो गाने चुने, जिन्हें और लोग छूना भी न चाहते: नशीले कैबरे गीत, इशारों से भरे नटखट नंबर, और धुंधले नाइटक्लबों के लिए बने गाने, जो मंदिरों के आंगनों के लिए नहीं थे। इस तरह, उन्होंने एक ऐसी जगह बना ली, जहां कोई और कब्ज़ा न कर सका। डंके की चोट पर। उनके गीतों ने लाखों दीवानों को झूमने पर मजबूर किया, उनकी आवाज़ का जादू लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था, आपत्ति करता भी तो कौन!

ओ.पी. नैयर के साथ जुगलबंदी

ज़िंदगी की ऊँचाइयों को नापने का सिलसिला शुरू हुआ ओ.पी. नैयर के साथ। वो चुलबुले संगीतकार, जिसे यकीन था कि उनके संगीत को आशा की आवाज़ से एक नया सुरूर मिलता था। उनकी जोड़ी ने आग लगा दी: “आइए मेहरबान” से मोहकता टपकी, “ये है रेशमी ज़ुल्फ़ों का अंधेरा” ने हिजाब को ही तेज़ाब बना दिया और “उड़े जब-जब ज़ुल्फ़ें तेरी” ने सारे हिंदुस्तान के दिल के तारों को छेड़ दिया। नैयर के साथ, आशा खुद में एक अलग ही मिज़ाज बन गईं। एक अनोखी पहचान!

फिर आया वो बड़ा वाला मोड़: “तीसरी मंज़िल” (1966)। आर.डी. बर्मन, एक नौजवान संगीतकार, अपने बाबूजी एस.डी. बर्मन की विरासत का बोझ उठाए। आशा के साथ मिलकर उन्होंने ऐसा धमाल मचाया कि सब हक्के-बक्के। “आजा आजा मैं हूँ प्यार तेरा” बस एक गाना नहीं था—वो एक नया ज़माना था। गाने में सांस का खेल, मानो अदायगी ही बोल हो। ऐसी जादूगरी जो फ़िल्मी संगीत के लिए बिल्कुल नई थी।

यहां से आशा बनीं स्क्रीन की नई औरत की आवाज़। जब ज़ीनत अमान “दम मारो दम” पर हिप्पी के अंदाज़ में झूमी तो आशा की आवाज़ ने उनकी बग़ावत को सच्चाई दी।

जब परवीन बाबी “नमक हलाल” के “जवां जानेमन” में मचली, तो आशा की आवाज़ ने नाइटक्लब वाली हिंदुस्तानी औरत को ऐसा रंग दिया कि लोग उसे देखकर झूम उठे—ऐसी औरतें जो सिर्फ़ सज-धज नहीं, बल्कि अपनी मर्ज़ी की मालकिन थीं। अपनी सत्ता की खुदमुख़्तार। आशा स्टाइल।

उनकी गायकी की शख़्सियत ने इस सिनेमाई औरत को गढ़ने में सबसे बड़ा काम किया। “उमराव जान” भले एक पुरानी कहानी थी, मगर उसका अंदाज़ नया था—पितृ सत्ता पर आवाज़ उठाती एक तवायफ़। रेखा की सूरत और आशा जी की आवाज़ ने “उमराव जान” की ग़ज़लों को जिया, जो अपने दिल की बात, प्यार की तड़प, और छोड़ जाने का दर्द बयां करती थीं।

आज़ाद हिंदुस्तान की नई औरत

आशा ने आज़ाद हिंदुस्तान की नई औरत की तस्वीर अपनी आवाज़ से उकेरी। डिस्को के धमाकों और दुनिया भर की धुनों के बीच, आशा कुछ जादुई कर दिखाती थीं। गुलज़ार का “मेरा कुछ सामान” (इजाज़त, 1987) इसका सबसे बड़ा सबूत है। जब आर.डी. ने इसके बोल पढ़े—“मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है...”—तो उन्हें लगा ये तो बस टूटा-फूटा गद्य है, गाना कैसे बनेगा? आशा ने बस उसे गुनगुनाना शुरू किया, और बोलों को अपनी धुन दे दी। नतीजा? एक ऐसा गीत, जिसमें न ताल थी, न आम ढांचा, बस जिए हुए लम्हों का दर्द था। समाज में “दूसरी” औरत की आवाज़, उसका दर्द। इसने उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया, मगर उससे कहीं ज़्यादा, इसने दिखाया कि वो टूटे-फूटे लफ़्ज़ों को गीत का नया ज़बान दे सकती हैं।
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आशा की आवाज़ का जादू

कमाल की बात यही थी। आशा की आवाज़ झुक सकती थी, टूट सकती थी, हँस सकती थी, सिसक सकती थी, फुसफुसा सकती थी, या गरज सकती थी—कभी-कभी तो एक ही गाने में। वो सुनने वालों को ऐसा एहसास देती थीं, मानो वो सिर्फ़ उनके लिए, चुपके से, नटखट अंदाज़ से लुभा रही हों। अपनी बात कह रही हों। यही जादू था, जो उनके कैबरे गीतों को लाजवाब बनाता था।

आर.डी. के साथ, उन्होंने ऐसी धुनें बनाईं, जो सात समंदर पार से आईं—जैज़ की चटक, लैटिन की ठुमक, और हिंदुस्तानी रागों का मेल, जो बिल्कुल नया था। उन्होंने दुख देखे—बेटी वर्षा को खोया, आर.डी. का जाना—मगर वो डटी रहीं। फिर भी, वो गाती रहीं, नए गाने रिकॉर्ड किए, रेस्तरां खोले, और कभी पुरानी यादों की तस्वीर नहीं बनीं।

1958 में “ये है रेशमी ज़ुल्फ़ों का अंधेरा” ने मधुबाला की ख़ूबसूरती को नई सज़क़सियत दी, और चालीस बरस बाद “रंगीला” में उर्मिला की थिरकन को नया रंग दिया।

वो उन औरतों की आवाज़ हैं, जो खांचों में बंधने से इनकार करती हैं। वो नाज़ुक प्रेमिका हो सकती थीं, आग उगलने वाली आशिक़, बेवफ़ाई की आग में तपती हुई तवायफ़, या गलियों की चुलबुली छोरी—हर रंग को उन्होंने बिंदास जिया। एक ऐसे मुल्क में, जहां औरतों से उम्र के साथ चुप रहने की उम्मीद की जाती है, आशा ने अपने अंदाज़ में खुद को व्यक्त करना कभी नहीं बंद किया।
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अब, बानवे सालों की दहलीज़ पर, वो कहती हैं कि उनके पास अभी और देना बाक़ी है। भले ही वो एक और सुर रिकॉर्ड करें, उनकी आवाज़ कभी ख़ामोश न होगी। वो हिंदुस्तान की यादों में, उसकी तरक्की की कहानी में, और बग़ावत के जज़्बे में गुँथ गई हैं। आने वाली नस्लें “चुरा लिया है तुमने” पर झूमेंगी, “पिया तू” पर मचल उठेंगी, “मेरा कुछ सामान” और “जुस्तजू जिसकी थी” पर दिल दुखाएंगी, और इस बात पर हैरान होंगी कि ये सारी आवाज़ें एक ही गले से निकलीं।

जहां आशा है, वहां ज़िंदगी है। वैसी ज़िंदगी, जो ख़्वाबों का ताना-बाना नहीं है, बल्कि जैसी वो सचमुच है: उलझी, रसीली, उदास, चुलबुली, बिंदास। और शायद यही वजह है कि आशा भोसले नाम का सितारा कभी नहीं डूबेगा।

आशा भोसले कोई बीती हुई गूंज नहीं हैं। वो एक जीवंत धड़कन हैं, जो हर पीढ़ी के कानों में कुछ नया फुसफुसाती है। उनकी आवाज़ में वो जादू है, जो न उम्र देखता है, न वक़्त की दीवारें। वो हर बार नए सुरों में लौटती हैं- कभी एक पुराने ग़ज़ल की तरह, कभी एक नए बीट की तरह, मगर हमेशा एक पहचान के साथ: आशा।

और यही तो है असली आशा- जो कभी थमती नहीं, कभी झुकती नहीं, और कभी चुप नहीं रहती।

जहां आशा है, वहां ज़िंदगी है।
जहां ज़िंदगी है, वहां आवाज़ है।
और जहां आवाज़ है, वहां हम सब हैं।