कमाल की बात यही थी। आशा की आवाज़ झुक सकती थी, टूट सकती थी, हँस सकती थी, सिसक सकती थी, फुसफुसा सकती थी, या गरज सकती थी—कभी-कभी तो एक ही गाने में। वो सुनने वालों को ऐसा एहसास देती थीं, मानो वो सिर्फ़ उनके लिए, चुपके से, नटखट अंदाज़ से लुभा रही हों। अपनी बात कह रही हों। यही जादू था, जो उनके कैबरे गीतों को लाजवाब बनाता था।
आर.डी. के साथ, उन्होंने ऐसी धुनें बनाईं, जो सात समंदर पार से आईं—जैज़ की चटक, लैटिन की ठुमक, और हिंदुस्तानी रागों का मेल, जो बिल्कुल नया था। उन्होंने दुख देखे—बेटी वर्षा को खोया, आर.डी. का जाना—मगर वो डटी रहीं। फिर भी, वो गाती रहीं, नए गाने रिकॉर्ड किए, रेस्तरां खोले, और कभी पुरानी यादों की तस्वीर नहीं बनीं।
1958 में “ये है रेशमी ज़ुल्फ़ों का अंधेरा” ने मधुबाला की ख़ूबसूरती को नई सज़क़सियत दी, और चालीस बरस बाद “रंगीला” में उर्मिला की थिरकन को नया रंग दिया।
वो उन औरतों की आवाज़ हैं, जो खांचों में बंधने से इनकार करती हैं। वो नाज़ुक प्रेमिका हो सकती थीं, आग उगलने वाली आशिक़, बेवफ़ाई की आग में तपती हुई तवायफ़, या गलियों की चुलबुली छोरी—हर रंग को उन्होंने बिंदास जिया। एक ऐसे मुल्क में, जहां औरतों से उम्र के साथ चुप रहने की उम्मीद की जाती है, आशा ने अपने अंदाज़ में खुद को व्यक्त करना कभी नहीं बंद किया।