बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग (ईसीआई) के मतदाता सूची विशेष गहन संशोधन (SIR) फैसले ने नया सियासी विवाद खड़ा कर दिया है। इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है, जिसमें ईसीआई के 24 जून 2025 के आदेश को चुनौती दी गई है। याचिका में दावा किया गया है कि यह प्रक्रिया असंवैधानिक है और लाखों मतदाताओं को मतदान के अधिकार से वंचित कर सकती है। इस बीच, मतदाता सूची संशोधन में शामिल नए खंड 5 (बी) ने आम लोगों और विपक्षी दलों के बीच राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) जैसे कदम की आशंकाओं को और बढ़ा दिया है।
लाखों मतदाता वोट नहीं डाल पाएंगेः याचिका
याचिकाकर्ता का तर्क है कि जब तक 24 जून 2025 के इस आदेश को रद्द नहीं किया जाता, तब तक यह मनमाने ढंग से और बिना किसी उचित प्रक्रिया के लाखों मतदाताओं को मताधिकार से वंचित कर सकता है। इससे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कमजोर होगा। यह संविधान के मूल ढांचे पर भी प्रहार है।
आयोग ने राज्य की बजाय आम लोगों पर डाल दी जिम्मेदारी
याचिका में यह भी कहा गया है कि इस आदेश को जारी करके, चुनाव आयोग ने मतदाता सूची में शामिल होने की पात्रता साबित करने की जिम्मेदारी राज्य से हटाकर व्यक्तिगत नागरिकों पर डाल दी है। आधार और राशन कार्ड जैसे आम पहचान दस्तावेजों को बाहर करके, यह प्रक्रिया हाशिए पर पड़े समुदायों और गरीबों को सीधे प्रभावित करेगी। इसके अलावा, एसआईआर प्रक्रिया के तहत मतदाताओं के लिए न केवल अपनी नागरिकता साबित करने के लिए बल्कि अपने माता-पिता की नागरिकता साबित करने के लिए भी दस्तावेज प्रस्तुत करने की आवश्यकता अनुच्छेद 326 का उल्लंघन करती है। इन आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल रहने पर उनके नाम ड्राफ्ट मतदाता सूची से बाहर किए जा सकते हैं या यहां तक कि उन्हें पूरी तरह से हटाया जा सकता है।
याचिका में तर्क दिया गया है कि ईसीआई ने बिहार में एसआईआर को लागू करने के लिए एक अनुचित और अव्यवहारिक समयसीमा तय की है, खासकर नवंबर 2025 में होने वाले राज्य चुनावों के निकट होने के कारण। ऐसे लाखों नागरिक हैं जिनके नाम 2003 की मतदाता सूची में नहीं थे और जिनके पास एसआईआर आदेश के तहत मांगे गए दस्तावेज़ नहीं हैं। जबकि कुछ लोग इन दस्तावेज़ों को पा सकते हैं लेकिन कम समयसीमा की वजह से उन्हें भी वो दस्तावेज समय पर नहीं मिल पाएंगे।
कितनी खतरनाक है धारा 5बी
विशेषज्ञ कह रहे हैं कि चुनाव आयोग की धारा 5बी असम में हुए एनआरसी की तरह है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की निगरानी के बिना और बिना किसी वैधानिक आधार के लागू की जा रही है।
गरीबों और दलित समुदाय पर सीधा असर
इंडिया गठबंधन के दलों राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), कांग्रेस और सीपीआई(एमएल) लिबरेशन ने इस कदम को मतदाताओं को दबाने की साजिश करार दिया है। आरजेडी सांसद मनोज के. झा ने कहा, “यह उन लोगों के वोटिंग अधिकारों को खतरे में डाल रहा है जो रोजगार के लिए राज्य से बाहर जाते हैं, खासकर गरीब और दलित समुदाय।” सीपीआई(एमएल) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने इसे एनआरसी जैसा कदम बताया और कहा कि यह चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
सांसद ओवैसी के तर्क
चुनाव आयोग की अजीबोगरीब दलील
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने इस प्रक्रिया का बचाव करते हुए कहा कि इसका उद्देश्य यह तय करना है कि कोई भी पात्र मतदाता छूटे नहीं और कोई अपात्र व्यक्ति सूची में शामिल न हो। आयोग ने दावा किया कि 78,000 बूथ-स्तरीय अधिकारी और एक लाख से अधिक स्वयंसेवक इस प्रक्रिया में सहायता कर रहे हैं। प्रवासी श्रमिकों के लिए ऑनलाइन आवेदन और परिवार के सदस्यों द्वारा फॉर्म जमा करने की सुविधा भी दी गई है। हालांकि चुनाव आयोग के स्वयंसेवक घट बढ़ रहे हैं। वो अपनी संख्या पर ही कायम नहीं है। इससे उसकी नीयत पर और भी शक पैदा हो रहा है।
यह विवाद और मुद्दा अब सिर्फ बिहार का ही नहीं रह गया है। असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे अन्य राज्यों में निकट भविष्य में होने वाले चुनाव पर भी इसका असर होगा। क्योंकि 2026 से यही 5बी का संशोधन अन्य राज्यों के लिए भी प्रस्तावित है।