केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में वक़्फ़ संशोधन अधिनियम 2025 को संवैधानिक रूप से वैध बताया है। इसने इसे विधायी शक्ति के सही इस्तेमाल का नतीजा बताया है। सरकार ने कहा है कि 'वक़्फ़-बाय-यूजर' के नाम पर बिना दस्तावेजों के लाखों हेक्टेयर जमीन पर अनधिकृत दावे किए गए, जिससे आम नागरिकों के अधिकार छीने गए। सरकार ने इस क़ानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करने की मांग की है। केंद्र ने कहा है कि संसद ने खूब विचार-विमर्श और प्रमुख राजनीतिक दलों के सदस्यों वाली संसदीय समिति की पूरी समीक्षा के बाद यह क़ानून पारित किया है।

सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की पीठ के समक्ष यह मामला विचाराधीन है। केंद्र ने अपने 1332 पेज के शुरुआती हलफनामे में तर्क दिया कि संसद द्वारा पारित क़ानून को संवैधानिक वैधता प्राप्त है और इसे पूरी तरह या आंशिक रूप से रोकना 'शक्तियों के नाजुक संतुलन' को बाधित करेगा। सरकार ने कहा कि यह क़ानून धार्मिक स्वायत्तता पर अतिक्रमण किए बिना वक़्फ़ जैसी धार्मिक संपत्तियों के प्रबंधन को समाज के हित में सुनिश्चित करता है।

केंद्र ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के माध्यम से कोर्ट को बताया कि सरकार को लाखों लोगों की शिकायतें मिली थीं, जिसमें पूरे गांवों और निजी संपत्तियों को वक़्फ़ संपत्ति घोषित करने की बात सामने आई थी। सरकार ने दावा किया कि 2013 के बाद वक़्फ़ संपत्तियों में 20 लाख हेक्टेयर से अधिक की वृद्धि हुई जो 'चौंकाने वाला' है। केंद्र ने कहा कि संशोधन क़ानून का उद्देश्य वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना है, न कि वक़्फ़ बोर्ड को ख़त्म करना।

केंद्र ने तर्क दिया कि भले ही 1923 के मूल अधिनियम के तहत 'वक़्फ़-बाय-यूजर' सहित सभी वक़्फ़ को अनिवार्य रूप से पंजीकृत करना पड़ता हो, फिर भी कई निजी और सरकारी ज़मीनों को 'वक़्फ़-बाय-यूज़र' के तहत दावा किया गया। इस वजह से नागरिकों के संपत्ति अधिकारों का हनन हुआ और सार्वजनिक संपत्तियों पर अनधिकृत दावे किए गए।

केंद्र ने अपने जवाबी हलफनामे में कहा, 'जानबूझकर और ग़लत इरादे से एक भ्रामक नैरेटिव बहुत ही चालाकी से बनाया गया है जिससे यह धारणा दी जा रही है कि 'वक़्फ़-बाय-यूज़र' वाले जिन वक़्फ़ों के पास अपने दावों का समर्थन करने वाले दस्तावेज नहीं हैं, वे प्रभावित होंगे। यह न केवल झूठ है, बल्कि जानबूझकर कोर्ट को गुमराह करने वाला है।'

वक़्फ़ संशोधन अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिकाओं के जवाब में केंद्र ने कहा कि पिछले 100 वर्षों से 'वक़्फ़-बाय-यूज़र' को केवल पंजीकरण के आधार पर ही मान्यता दी गई है, न कि मौखिक रूप से। केंद्र ने पीठ को बताया है कि इसलिए यह संशोधन सही है।

'वक़्फ़-बाय-यूज़र' से मतलब ऐसी ज़मीन या संपत्ति से है जो लंबे समय तक धार्मिक उद्देश्यों के लिए उपयोग के कारण वक़्फ़ मानी जाती है। बिना औपचारिक दस्तावेज या लिखित वसीयत के भी ऐसी संपत्ति को समय के साथ उसके उपयोग के आधार पर 'वक़्फ़-बाय-यूज़र' घोषित किया जा सकता था।

वक्फ अधिनियम में कई प्रावधान विवादों में हैं, जिनमें 'वक़्फ़-बाय-यूजर' की अवधारणा को हटाना, ग़ैर-मुस्लिमों को वक़्फ़ बोर्ड और केंद्रीय वक़्फ़ परिषद में शामिल करने की अनुमति और जिला कलेक्टर को विवादित वक़्फ़ संपत्तियों का दर्जा बदलने का अधिकार देना शामिल है। याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है कि ये प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 यानी क़ानून के समक्ष समानता, अनुच्छेद 15 यानी धर्म के आधार पर भेदभाव पर रोक और अनुच्छेद 25 यानी धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछली सुनवाई में इन प्रावधानों पर चिंता जताई थी। मुख्य न्यायाधीश खन्ना ने पूछा था कि क्या सरकार हिंदू धार्मिक संस्थानों के बोर्ड में मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति की अनुमति देगी, जैसा कि वक़्फ़ बोर्ड में ग़ैर-मुस्लिमों के लिए किया गया है। कोर्ट ने यह भी कहा था कि 'वक़्फ़-बाय-यूज़र' को हटाने से कई ऐतिहासिक मस्जिदों, कब्रिस्तानों और अन्य धार्मिक स्थलों का दर्जा ख़तरे में पड़ सकता है।

17 अप्रैल को केंद्र ने कोर्ट को आश्वासन दिया था कि 5 मई तक 'वक़्फ़-बाय-यूज़र' सहित कोई भी वक़्फ़ संपत्ति डिनोटिफ़ाई नहीं की जाएगी और न ही केंद्रीय वक़्फ़ परिषद या राज्य वक़्फ़ बोर्ड में नियुक्तियाँ की जाएँगी। कोर्ट ने इस आश्वासन को दर्ज किया और केंद्र को सात दिनों के भीतर जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया। अगली सुनवाई 5 मई को होगी।

कांग्रेस, डीएमके, आप, सीपीआई, और जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसे संगठनों सहित क़रीब 100 याचिकाकर्ताओं ने इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह कानून मुस्लिम समुदाय की धार्मिक स्वायत्तता को कमजोर करता है और अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकारों का हनन करता है।

बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट के रुख पर सवाल उठाते हुए कहा था कि अगर कोर्ट क़ानून बनाएगा तो संसद की क्या ज़रूरत है। हालाँकि, बीजेपी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने इसे दुबे का व्यक्तिगत बयान बताकर पार्टी को इससे अलग कर लिया। दूसरी ओर, विपक्ष ने इस कानून को 'संविधान विरोधी' और 'मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़' बताया है।


सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ किया है कि वह सामान्य परिस्थितियों में किसी क़ानून पर रोक नहीं लगाता, जब तक कि असाधारण परिस्थितियाँ न हों। कोर्ट ने केंद्र से पूछा है कि क्या यह क़ानून संघीय ढांचे का उल्लंघन करता है, क्योंकि 'दान, धर्मार्थ संस्थाएँ और धार्मिक संपत्तियाँ' संविधान की समवर्ती सूची में आती हैं जहाँ केंद्र और राज्य दोनों को क़ानून बनाने का अधिकार है।

यह मामला न केवल धार्मिक स्वायत्तता और मौलिक अधिकारों के सवालों को उठाता है, बल्कि भारत के धर्मनिरपेक्ष और संघीय चरित्र पर भी बहस को जन्म देता है। सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फ़ैसला इस संवेदनशील मुद्दे पर दूरगामी प्रभाव डालेगा।

केंद्र सरकार का हलफनामा यह दिखाता है कि वह वक़्फ़ संशोधन अधिनियम को एक सुधारवादी क़दम के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही है, जिसका मक़सद वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता और जवाबदेही लाना है। हालाँकि, धार्मिक स्वतंत्रता, संघीय ढांचे, और वक्फ-बाय-यूजर संपत्तियों के स्टेटस पर याचिकाकर्ताओं के तर्क यह सवाल उठाते हैं कि क्या यह क़ानून अल्पसंख्यक समुदाय की स्वायत्तता और संवैधानिक अधिकारों को कमजोर करता है। 

कोर्ट का यह सवाल कि क्या हिंदू धार्मिक ट्रस्टों में मुस्लिम सदस्यों को शामिल किया जाएगा, एक व्यापक बहस को जन्म देता है कि क्या धार्मिक संस्थानों का प्रबंधन पूरी तरह धर्म-निरपेक्ष होना चाहिए।

केंद्र का यह तर्क कि कोर्ट को क़ानून पर अंतरिम रोक नहीं लगानी चाहिए, क्योंकि यह शक्तियों के संतुलन के खिलाफ है, एक ओर संसद की सर्वोच्चता को रेखांकित करता है, लेकिन दूसरी ओर यह भी सवाल उठाता है कि क्या यह क़ानून अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों को प्रभावित करता है।