आरएसएस सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना से 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द हटाए जाने पर विचार करने की सनसनीखेज मांग उठाकर देश में नई बहस छेड़ दी है। उन्होंने आपातकाल के दौरान जोड़े गए इन शब्दों को ग़ैर-ज़रूरी बताया और भारत की सांस्कृतिक पहचान पर जोर देते हुए कहा कि ये भारत की सभ्यतागत भावना के अनुरूप नहीं हैं। इस बयान ने देश में एक नई राजनीतिक बहस को छेड़ दिया है।

नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में होसबाले ने 1975 के आपातकाल का ज़िक्र किया, जब 42वें संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द जोड़े गए थे। उन्होंने सवाल उठाया, 'क्या समाजवाद कभी भारत की सभ्यतागत भावना के अनुरूप था? क्या धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा हमारे देश की संस्कृति और परंपराओं के साथ मेल खाती है?' उन्होंने तर्क दिया कि ये शब्द उस समय की राजनीतिक हालात का परिणाम थे और इन्हें संविधान में शामिल करना ग़ैर-ज़रूरी था।
होसबाले ने आगे कहा कि भारत की सनातन संस्कृति में पहले से ही सामाजिक समानता और सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता निहित है, इसलिए इन शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं थी। उन्होंने कांग्रेस पार्टी पर भी निशाना साधते हुए कहा कि आपातकाल के दौरान संविधान के साथ छेड़छाड़ की गई, जिसे अब ठीक करने की ज़रूरत है।

आपातकाल के लिए माफी मांगे कांग्रेस: होसबाले

कांग्रेस से आपातकाल लगाने के लिए माफी मांगने की मांग करते हुए होसबाले ने कहा, 'जिन लोगों ने ऐसी हरकतें कीं, वे आज संविधान की प्रति लेकर घूम रहे हैं। उन्होंने अभी तक माफी नहीं मांगी। आपके पूर्वजों ने यह किया। आपको इसके लिए देश से माफी मांगनी चाहिए।'
 
आपातकाल के दिनों को याद करते हुए आरएसएस नेता ने कहा कि उस दौरान हजारों लोगों को जेल में डाला गया और प्रताड़ित किया गया, साथ ही न्यायपालिका और मीडिया की स्वतंत्रता को भी छीन लिया गया। उन्होंने कहा कि आपातकाल के दिनों में बड़े पैमाने पर जबरन नसबंदी भी देखी गई।

होसबाले की यह टिप्पणी तब आई जब मोदी सरकार ने बुधवार को 25 जून को 'संविधान हत्या दिवस' के रूप में मनाया। यह आपातकाल लागू होने की 50वीं वर्षगांठ को चिह्नित करता है।

आपातकाल की घोषणा 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने की थी। इस दौरान नागरिक स्वतंत्रताओं को निलंबित कर दिया गया और विपक्षी नेताओं और प्रेस की स्वतंत्रता पर कड़ा दमन किया गया।

होसबाले के इस बयान पर राजनीतिक गलियारों में तीखी प्रतिक्रियाएँ आई हैं। दत्तात्रेय होसबाले की यह मांग बाबा साहेब के संविधान को खत्म करने की वो साजिश है, जो आरएसएस-बीजेपी हमेशा से रचती आई है।
पहले भी संविधान में इस तरह के बदलाव पर कांग्रेस ने भारत की धर्मनिरपेक्ष भावना पर हमला करार दिया था। संविधान की प्रस्तावना में ऐसे बदलाव की बात किए जाने पर कांग्रेस पहले कहती रही है कि ये हमारे संविधान की आत्मा हैं, इन्हें हटाने की मांग देश की एकता और अखंडता को कमजोर करने की साजिश है।

सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला

यह मांग तब आई है जब कुछ महीने पहले ही नवंबर 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को प्रस्तावना से हटाने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि ये शब्द संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं और इन्हें हटाना संविधान की भावना के खिलाफ होगा। होसबाले के बयान को कुछ विश्लेषकों ने इस फ़ैसले के खिलाफ एक नई बहस शुरू करने की कोशिश के रूप में देखा है।

प्रस्तावना में कब जुड़े 'समाजवादी' 'धर्मनिरपेक्ष'?

'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द 1976 में 42वें संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए थे, जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने आपातकाल लागू किया था। उस समय सरकार का तर्क था कि ये शब्द भारत के सामाजिक और राजनीतिक नज़रिए को और साफ़ करते हैं। हालांकि, तब से ही कुछ संगठन और व्यक्ति इन शब्दों को हटाने की मांग करते रहे हैं। 

आरएसएस की विचारधारा का असर?

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि होसबाले का यह बयान आरएसएस की लंबे समय से चली आ रही विचारधारा को दिखाता है, जो भारत को एक सांस्कृतिक और सभ्यतागत इकाई के रूप में देखती है। कुछ जानकारों का कहना है कि यह बयान 2024 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस मुद्दे को फिर से जीवित करने की कोशिश है। कुछ का मानना है कि यह आगामी चुनावों से पहले राजनीतिक ध्रुवीकरण की रणनीति का हिस्सा हो सकता है। 

एक्स पर इस मुद्दे को लेकर व्यापक चर्चा हो रही है। कुछ यूजरों ने होसबाले की मांग का समर्थन करते हुए कहा कि हिंदू धर्म ही समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक है जबकि अन्य ने इसे संविधान के मूल्यों पर हमला बताया। यह बहस देश में धार्मिक और वैचारिक ध्रुवीकरण को और गहरा सकती है।