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मोदी जी, पर गांधी तो फिल्म देखते ही नहीं थे

देश और दुनिया को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का `आभारी’ होना चाहिए कि उन्होंने उस गुजरात की धरती से ऐसी प्रतिभाओं को जन्म दिया जिनमें से एक कहता है कि सन् 1982 में बन कर आई रिचर्ड एटनबरो की फिल्म `गांधी’ से पहले उनको दुनिया जानती ही नहीं थी। दूसरी प्रतिभा ने कुछ वर्षों पहले कहा था कि गांधी एक चतुर बनिया था। ध्यान देने की बात है कि यह वही गुजरात की धरती है जिसने उन्नीसवीं सदी में मोहनदास कर्मचंद गांधी और वल्लभभाई पटेल जैसे रत्नों को जन्म दिया था। 
गृह मंत्री अमित शाह ने महात्मा गांधी पर जो टिप्पणी की थी उसमें उनकी दुर्भावना थी और उसका स्तर बीस और तीस के दशक में की जाने वाली कम्युनिस्टों की आलोचना के समकक्ष ही था, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो टिप्पणी है वह उनकी अज्ञानता है। अज्ञानता कोई बुरी बात नहीं है। क्योंकि कोई व्यक्ति हर क्षेत्र और हर विषय के बारे में नहीं जान सकता, लेकिन जब अपने ही विषय में अज्ञानता होने के साथ अहंकार आ जाता है तो वह खतरनाक हालात पैदा करता है।
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कई चीजों के बारे में महात्मा गांधी में भी अज्ञानता थी लेकिन वे अपने क्षेत्र के बारे में अज्ञानी नहीं थे। यह बात गांधी द्वारा पढ़ी गई किताबों और मिलने वाले लोगों की सूची देखकर समझी जा सकती है। गांधी फिल्में नहीं देखते थे। फिल्मों के बारे में उनकी राय भी बहुत अच्छी नहीं थी। एक तरह से गांधी जी इस मामले में मार्क्सवादियों के उस सिद्धांत के करीब थे कि कला कला के लिए नहीं कला समाज के लिए होनी चाहिए। 
वे फिल्मों से नैतिकता के संदेश की आशा नहीं करते थे। हालांकि गांधी के जीवन पर आठ अच्छी फिल्में तो बनी ही हैं लेकिन उन्होंने जीवन में महज दो फिल्में देखी थीं। एक फिल्म थी रामराज्य (1943) जो विजय भट्ट ने बनाई थी और दूसरी फिल्म थी मिशन टू मास्को (1943)। फिल्म जगत के बारे में गांधी की अज्ञानता का आलम यह था कि वे जब 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन गए तो मशहूर फिल्मकार और कलाकार चार्ली चैप्लिन उनसे मिलने को आतुर थे। जब उनकी मेजबान मुरियल लिस्टर ने कहा कि आप से चार्ली चैप्लिन मिलना चाहते हैं तो गांधी ने पूछा कि यह कौन हैं। गांधी की इस अज्ञानता की चर्चा बहुत सारे संदर्भों में की जाती है लेकिन यह कहना कि दुनिया गांधी को नहीं जानती थी और उसने 1982 की गांधी की फिल्म से उनको जाना भारत जैसे महान देश के सबसे बड़े नेता(प्रधानमंत्री) की महान अज्ञानता को दर्शाता है।
किसी भी राजनेता से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह फिल्म और क्रिकेट के बारे में जाने लेकिन इतनी तो उम्मीद की ही जाती है कि वह अपने देश के इतिहास को जाने और फिलहाल जो विश्वगुरु बनने का दावा करे वह कुछ हद तक दुनिया के इतिहास को भी जाने। उन गुरुओं को भी जाने जिन्होंने दुनिया को राह दिखाई। इसी के साथ एबीपी न्यूज के रोमाना ईसार खान, रोहित सावल और सांगे सुमन जैसे महान एंकरों से भी इतनी उम्मीद तो की ही जाती है कि वे जिसका इंटरव्यू लें उससे प्रकट होने वाले असत्य पर विनम्रतापूर्वक प्रतिवाद करें। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस इंटरव्यू में विश्वगुरु का अज्ञान तो है ही संचार के समर्थ साधनों की अज्ञानता भी फूट फूट कर बोल रही है।
वैसे तो गांधी दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह से लोकप्रिय होने लगे थे लेकिन उनकी लोकप्रियता का लोहा 1930 से विधिवत दुनिया मानने लगी थी। इसी साल गांधी ने जो नमक सत्याग्रह किया तो मशहूर अमेरिकी पत्रकार वेब मिलर उसे कवर करने आए। वे बड़े युद्ध संवाददाता थे जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर दुनिया के तमाम युद्धों को कवर किया था और तमाम राष्ट्राध्यक्षों को इंटरव्यू किया था।

वेब मिलर ने धरसाना नमक सत्याग्रह की रिपोर्टिंग की थी। गांधी फिल्म में उन्हें विंस वाकर के नाम से दिखाया गया है और उन्हें दांडी मार्च में शामिल दिखाया गया है। पर वे दांडी मार्च के समय भारत नहीं पहुंच पाए थे और इस बात से बहुत दुखी थे। लेकिन गांधी के साथियों ने उन्हें आश्वासन दिया कि उनका आंदोलन जारी है और उन्हें एक रिपोर्टर के तौर पर निराश नहीं होना पड़ेगा। 

वास्तव में वेब मिलर समाचार एजेंसी के लिए काम करते थे और उनकी रिपोर्ट को आरंभ में दबाने की कोशिश गई लेकिन जब उनकी रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो अमेरिका और युरोप के लगभग दौ सौ अखबारों में छपी। उसके बाद दुनिया में हंगामा मच गया कि गांधी ने एक ऐसा आंदोलन छेड़ दिया है जिससे भारत की सभ्यता की श्रेष्ठता और ब्रिटिश साम्राज्य की बर्बरता प्रकट हो रही है। तमाम अखबार ब्रिटिश संसद की मेज पर रखे जाने लगे और वहां की जनता भी अपने को लोकतांत्रिक कहने वाली सरकार के चरित्र पर संदेह करने लगी।
गांधी की लोकप्रियता के दर्शन उस समय करने चाहिए जब वे दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए युरोप गए। मोदी जी और उनके विद्वान सलाहकारों और इंटरव्यू करने वालों को मुरियल लिस्टर की वह किताब पढ़नी चाहिए जो उन्होंने गांधी की मेजबानी करते हुए लिखी। किताब का नाम ही है `गांधी की मेजबानी’। गांधी लंदन में शाही मेहमान नहीं बने और लंदन की सामान्य बस्ती में मुरियल लिस्टर के घर पर ठहरे। लेकिन गांधी की लोकप्रियता ने मुरियल को परेशान कर दिया। उनके पास पत्रकारों की सिफारिशें आती थीं कि इंटरव्यू दिला दीजिए। वे मना करती थीं तो कई पत्रकार फर्जी इंटरव्यू चला देते थे। सुबह जब गांधी घूमने निकलते थे तो उनके साथ घूमने वालों में बूढ़े, बच्चे और स्त्रियां और युवा नागरिक उमड़ पड़ते थे।
1931 का गांधी का यह दौरा उनकी वैश्विक लोकप्रियता देखने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। वे रोम भी गए और मुसोलिनी से भी मिले। जब वे मुसोलिनी से मिलकर लौट रहे थे तो रोम के रेलवे स्टेशन पर खड़े थे। उनको नोबल पुरस्कार विजेता रोमां रोलां की बहन ने देखा। उनके हवाले से रोमां रोलां ने अपने वर्णन में लिखा है कि वहां के लोगों को ऐसा लग रहा था जैसे ईसा मसीह दुनिया को शांति और प्रेम का संदेश देने आए थे वैसे ही यह व्यक्ति युरोप को आगामी युद्ध से बचाने आया है।
गांधी रोमां रोलां से मिलने स्विटजरलैंड गए और उनके घर पर ठहरे। रोमां रोलां विकलांग थे लेकिन गांधी के स्वागत के लिए भाव विह्वल थे। उन्होंने गांधी को सिम्फोनी का संगीत सुनाया और गांधी के जाने के बाद लिखा कि वह मेरी नींदे चुरा कर ले गया है। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद की जीवनी लिखने वाले रोमां रोला ने गांधी की भी जीवनी लिखी है।
उनके बीच में होने वाले पत्र व्यवहार को देखकर कोई भी जान सकता है कि युरोप के बौद्धिक जगत में गांधी का कितना प्रभाव था। लेकिन स्विटजरलैंड के लोगों को जब पता चला कि गांधी यहां रहे हैं तो तमाम नाटककारों, फिल्मकारों, कहानीकारों, कवियों ने आसपास किराए पर कमरे ले लिए। वे गांधी के चरित्र को देखना चाहते थे और उन्हें अपनी कृतियों में बसाना चाहते थे। वहां भी गांधी के घूमने के समय लोग उनके साथ हो लेते थे और उनसे सवाल पूछना चाहते थे और अपनी जिज्ञासा शांत करना चाहते थे। स्विटजरलैंड का राजकुमार भी उनका मित्र हो गया और वह चाहता था कि गांधी युद्ध विरोधी अभियान में उसकी मदद करें।
बल्कि यूरोप के लोगों ने गांधी से आग्रह किया कि युरोप पर युद्ध(दूसरे विश्व युद्ध) के बादल मंडरा रहे हैं आप उसे रोकने के लिए यहां रुक जाइए। गांधी का जवाब था कि मैं धरती के एक हिस्से पर अपना प्रयोग कर रहा हूं अगर वह सफल हो गया तो मैं यहां भी उसे दोहराने आऊंगा।
गांधी के महत्त्व पर चर्चा करते हुए एक बार दक्षिण अफ्रीका के शासक जनरल स्मट्स और विन्सटन चर्चिल उलझ गए। चर्चिल गांधी के प्रति अवमानना जनक रवैया रखते थे। वे उन्हें अधनंगा फकीर कहते थे। स्मट्स ने कहा कि आप उस व्यक्ति को समझ नहीं पा रहे हैं वह ईसा मसीह के संदेश को ही आगे बढ़ा रहा है। इस पर चर्चिल ने कहा कि शायद आप को नहीं मालूम कि मैंने ईसाई धर्म के लिए कितना किया है। गांधी को चाहने वाले लोग सात समुंदर पार तो थे ही एशिया और अफ्रीका में भी खूब थे। मिस्र और ईरान  में उनकी प्रशंसा में कविता लिखने वाले कवि थे जापान में उनके चाहने वाले बौद्ध गुरु फूजी गुरुजी थे जो उनके लिए तीन प्रतीकात्मक बंदर लेकर आए थे।
बिना मिले ही दुनिया के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन गांधी के मुरीद थे। उनका मसीहाई कथन आज भी लोगों की जुबान पर है कि आने वाली पीढ़ियां यकीन नहीं कर पाएंगी कि हांड़ मांस का ऐसा व्यक्ति धरती पर चला था। गांधी की लोकप्रियता का ही आलम था जब उन्होंने 1932 में कम्युनल अवार्ड के विरुद्ध यरवदा जेल से अनशन किया तो भारत ही नहीं पूरी दुनिया में हाहाकार मच गया। जेल की ऊंची चाहर दीवारी के भीतर से ऐसा प्रभाव दुनिया में कौन पैदा कर सकता था?
एक ओर सवर्ण हिंदुओं ने उनकी जान बचाने के मंदिरों के द्वार अछूतों के लिए खोल दिए तो दूसरी ओर रैमसे मैकडोनाल्ड की सरकार पर दबाव बना कि वे गांधी से कोई न कोई समझौता करें। इसकी झलक आप प्यारेलाल की पुस्तक `इपिक फास्ट’ में देख सकते हैं। कई इतिहासकारों का कहना है कि छुआछूत और जाति व्यवस्था पर उतना कठोर हमला भारतीय इतिहास में शायद किसी ने नहीं किया था।
गांधी की लोकप्रियता का आलम यह था कि दुनिया का हर बड़ा पत्रकार उनसे मिलना और उनका इंटरव्यू करना चाहता था। उस समय दुनिया के ज्यादातर बड़े पत्रकार अमेरिका और यूरोप के थे और वे ईसाई धर्म से प्रभावित थे। वे गांधी से मिलकर या तो उनमें ईसा मसीह की छवि देखने लगते थे या गीता और बाइबल के संदेशों की तुलना करने लगते थे।
लुई फिशर ने तो वर्धा में गांधी के साथ ही रहकर `द लाइफ आफ महात्मा गांधी’ नामक पुस्तक लिखी थी। शायद ही इंटरव्यू लेने वालों और देने वालों को यह बात मालूम हो कि रिचर्ड एटनबरो की फिल्म `गांधी’ उसी पर बनी थी। अगर वे इतना नहीं जानते तो दीनानाथ गोपाल तेंदुलकर द्वारा लिखी गई आठ खंडों में महात्मा की जीवनी के बारे में क्या जानते होंगे। हालांकि उन्हें जानना चाहिए क्योंकि वे भी एक डाक्यूमेंटरी फिल्म मेकर थे। 
लेकिन गांधी को चाहने वालेऔर उन पर लिखने वाले सिर्फ वे ही नहीं थे। मार्गरेट बर्कह्वाइट , विलियम शरर औरविन्सेंट सीन जैसे बड़े पत्रकारों की लंबी सूची है जो गांधी को कवर करने आए थे। आएतो एडगर स्नो भी थे जिन्होंने `रेड स्टार ओवर चाइना’ जैसी किताब लिखी औरमाओत्से तुंग के चीन को दुनिया के सामने रखा।
विलियम शरर ने गांधी पर एक किताब लिखी है जिसका नाम है `गांधी-ए मेम्वायर’। इसमें उन्होंने आंदोलनों के दौरान गांधी को काम करते हुए देखा और दिखाया है। वे बताते हैं कि किस तरह गांधी से मिलने के लिए रात के समय भी रेलवे स्टेशनों पर तांता लगा रहता था और लोग उन्हें जगाकर उनसे मिलते थे। विलियम शरर मान चुके थे कि गांधी की स्टोरी खत्म हो चुकी है। इसलिए जब विन्सेंट सीन ने कहा कि आप गांधी से अच्छी तरह मिल लो तो उन्होंने इंकार कर दिया। लेकिन जब 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप स्वतंत्रता के विहान के साथ अशांत हो गया तो विलियम शरर ने विन्सेंट सीन से फिर कहा कि मैं उस व्यक्ति से मिलना चाहता हूं आप कोई इंतजाम करवाइए। विन्सेंट सीन ने पूछा क्यों। तब उनका कहना था कि यह व्यक्ति कभी भी मारा जा सकता है। वह जिस तरह दंगों को शांत करता घूम रहा है अब उसका जीवन ज्यादा नहीं है। पंडित जवाहर लाल नेहरू से संपर्क किया गया और गांधी से मिलने का समय विलियम शरर को मिला। वे लगभग दुर्घटनाग्रस्त हो चुके विमान से पहले पाकिस्तान फिर भारत पहुंचे।
गांधी से मिलने के बाद विलियम शरर ने `लीड काइंडली लाइट’ नामक किताब लिखी और बताया कि गांधी की गीता की व्याख्या बाइबल की व्याख्या से कितनी मिलती है। वे मानते थे कि गांधी ने अहिंसा को गीता से ज्यादा बाइबल के `सरमन आन द माउंट’ से लिया है।
गांधी का आखिरी इंटरव्यू मार्गरेट बर्कव्हाइट ने लिया है जिसमें गांधी ने कहा है कि अगर परमाणु बम गिरने लगे तो मैं सीना तानकर खड़ा हो जाऊंगा और बमवर्षक विमान के पायलट को दिखाऊंगा कि देख लो तुम्हारे प्रति मेरे मन में कोई द्वेष नहीं है। मार्गरेट बर्कह्वाइट भी युद्ध संवाददाता थीं और लाइफ मैगजीन की फोटोग्राफर थीं। उनके फोटो और रिपोर्टों के आधार पर गांधी दो बार `लाइफ’ मैगजीन के कवर पर आए।
तालस्ताय ने गांधी को जो पत्र लिखा था वह `लेटर टू ए हिंदू’ के नाम से मशहूर है। नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग तो गांधी को अपना आदर्श मानते ही थे। और उनसे प्रेरणा लेकर उन्होंने रंगभेद को मिटाया।
गांधी की लोकप्रियता का आलम यह था कि जब उनकी हत्या हुई तो सिर्फ सोवियत रूस को छोड़कर पूरी दुनिया से भाव विह्वल संदेश आए और कई देशों के शासनाध्यक्ष और प्रतिनिधियों ने उनकी शवयात्रा में शिरकत की। यहां तक कि पाकिस्तान के अखबारों और नेताओं ने उनके पक्ष में शोक संदेश दिए। दुनिया भर के अखबारों ने उनके बारे में क्या लिखा इसे देखना हो तो प्यारे लाल की पुस्तक `पूर्णाहुति’ के अंतिम खंड को देखना चाहिए।
गांधी की लोकप्रियता किसी फिल्म की मोहताज नहीं थी और न ही कम पढ़े लिखे आज के राजनेताओं की पैरोकारी की। इस मामले में वे बेताज बादशाह थे। गांधी जी के सचिव महादेव भाई देसाई और फिर प्यारेलाल जी उन चिट्ठियों को देखकर हैरान और परेशान रहते थे जो गांधी के नाम से आती थीं। गांधी जब 1936 में सेवाग्राम गए तो उन्हें चाहने वाले उन्हें और प्यार करने वाले उन्हें पत्र लिखने लगे। लेकिन वह जगह वर्धा शहर से थोड़ी दूर थी और वहां डाकघर नहीं था। महादेव भाई देसाई उनके पत्रों के बोरों को इक्के पर लाद कर सेवाग्राम तक लाते थे। बाद में अंग्रेजों ने गांधी के लिए सेवाग्राम में डाकघर खुलवाया और फिर आश्रम में टेलीफोन लाइन लगवाई।
लेकिन उनकी लोकप्रियता आमजन के उन पत्रों से प्रमाणित होती है जिन पर पते नहीं लिखे होते थे। किसी पत्र पर पते की जगह गांधी का चित्र बना होता था तो किसी पत्र पर पते के स्थान पर लिखा होता था—महात्मा गांधी जहां कहीं भी हों। यह पत्र पूरी दुनिया से आते थे। और कोशिश करके गांधी और उनके सहयोगी उनका जवाब देते थे।
इन सारी स्थितियों को बावजूद गांधी कभी `मैं मैं’ नहीं करते थे। न ही वे यह कहते थे कि गांधी ने यह किया और गांधी ने यह किया। बल्कि वे दावा कर सकते थे कि राजनीति में सत्य और अहिंसा का समावेश उन्होंने ही किया वरना उससे पहले राजनीति छल और कपट से भरी थी। पर उन्होंने कहा कि यह तो उतनी ही पुरानी चीज है जितने पर्वत और पहाड़।
गांधी के बारे में विलियम शरर का एक बयान बहुत मौजूं है। उन्होंने लिखा है कि `बुद्ध, ईसा मसीह, सुकरात और गांधी की विशेषता यह है कि वे बड़े से बड़ा काम सहज रूप से कर लेते थे। और अपने को उस काम को संपन्न करने के निमित्त महान नहीं मानते थे। लेकिन उनकी कमी यह है कि वे सोचते थे कि जो काम वे कर सकते हैं वे कोई साधारण मानव भी कर सकता है। यानी वे अपने को साधारण मानव ही मानते थे।’ आज के राजनेताओं में मानव सभ्यता को प्रभावित करने की चाह तो है लेकिन वह विनम्रता नहीं है जो उन्नीसवीं सदी में पैदा हुए और बीसवीं सदी को संवारने वाले तमाम नेताओं, चिंतकों और विचारकों में थी। इसीलिए प्रोफेसर सुधीर चंद्र ने `गांधी को एक असंभव संभावना’ बताया है।
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आप गौर से देखिए तो स्वाधीनता संग्राम का कोई भी राजनेता संघर्ष, नैतिकता और ज्ञान में आज के किसी भी राजनेता से कई गुना बड़ा दिखता है। लेकिन बड़बोलेपन में बहुत पीछे दिखता है। बल्कि कई बार इस देश के भविष्य पर चिंता होती है कि आज हमारे नेतृत्व का कैसा स्तर है जिसमें एक यह कहता है कि गांधी एक चतुर बनिया था तो दूसरा कहता है कि गांधी फिल्म बनने से पहले गांधी को दुनिया में कोई जानता ही नहीं था। यह भारत देश का दुर्भाग्य है कि वे लोग देश को महान और विश्व गुरु बनाने निकले हैं जो न तो विश्व के बारे में जानते हैं और न ही अपने गुरुओं के बारे में।   
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अरुण कुमार त्रिपाठी
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