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क्या श्रम क़ानूनों की वजह से ही कंपनियाँ नहीं आ पा रही हैं भारत?

कोरोना महामारी के बीच आर्थिक संकट का सामना कर रही कई राज्यों की सरकारों ने धड़ाधड़ श्रम क़ानूनों में बदलाव कर दिया है। आख़िर ऐसे समय में जब मज़दूर घरों की ओर भाग रहे हैं और कंपनियों में काम नहीं करना चाहते हैं तो फिर उन श्रमिकों के अनुकूल माने जाने वाले इन क़ानूनों को क्यों हटाया जा रहा है? श्रमिकों की कमी से जूझने की आ रही रिपोर्टों के बीच राज्य सरकारों ने ऐसा फ़ैसला क्यों लिया? वे क्यों श्रम क़ानूनों में इतने बड़े बदलाव कर रहे हैं?

इन सवालों का जवाब यह है कि ये सरकारें ख़राब आर्थिक हालात से निपटने के लिए कंपनियों और निवेश को आमंत्रित करना चाहती हैं। इन सरकारों को लगता है कि चीन से बाहर जाने वाली कंपनियाँ भारत में आ जाएँगी और फिर ऐसी कंपनियों के आने से राज्य सरकारों को बड़ा फ़ायदा होगा। तो सवाल है कि वैसी कंपनियाँ अभी क्यों नहीं आ रही हैं और श्रम क़ानूनों में बदलाव के बाद क्या स्थिति बदल जाएगी?

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दरअसल, काफ़ी पहले से पूँजीवादी मानसिकता के लोग मानते रहे हैं कि कंपनियाँ कई कारणों से देश में नहीं आती हैं। इसमें ज़मीन अधिग्रहण की दिक्कतें, श्रम क़ानून की पेचीदगियाँ, उच्च कर दर, बिजली की समस्या, अफ़सरशाही और अपराध। केंद्र सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स घटा दिया है, बिजली में सुधार के लिए प्रयास जारी है। अब श्रम क़ानून है जिसको बदलने में कई राज्य सरकारें लगी हुई हैं। क्योंकि श्रम क़ानून संविधान की समवर्ती सूची में है इसलिए केंद्र और राज्य सरकारें, दोनों इसमें बदलाव कर सकती हैं। और यही वे कर रही हैं। 

श्रम क़ानूनों में दिक्कत क्या है?

लंबे समय से एक दलील दी जाती रही है कि काफ़ी पेचीदा श्रम क़ानून होने की वजह से व्यवसाय करने में दिक्कत होती है। इन क़ानूनों की वजह से भ्रष्ट अधिकारियों की लालफीताशाही चलती है और इस कारण फ़ैक्ट्री और कंपनियों के मालिकों को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। 

व्यापारी वर्ग कई श्रम क़ानूनों को व्यापार करने में बाधक मानता है। ऐसा ही बाधक वह औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडीए) को मानता है। इस अधिनियम के तहत कंपनियाँ 100 से अधिक लोगों को बिना सरकार की अनुमति के नहीं निकाल सकती हैं।

इसी बाधा के कारण कई कंपनियाँ ख़ुद को छोटे स्तर पर ही रखना चाहती हैं और ग़ैर-संगठित क्षेत्र के मज़दूरों पर निर्भर करती हैं। इसी कारण वैश्विक कंपनियाँ भारत में बड़ा कॉरपोरेशन खोलने में हिचकिचाती हैं। छोटे स्तर पर होने के कारण कई कंपनियाँ प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाती हैं।

ऐसा नहीं है कि ऐसे क़ानून को बदलने का प्रयास नहीं किया गया है। इसका तगड़ा विरोध भी होता रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ, वाम समर्थित सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियन यानी सीटू आईडीए में बदलाव का विरोध करते रहे हैं।

ऐसे ही राजनीतिक दबावों के कारण इसको केंद्र और राज्य सरकारें बदल नहीं पाई हैं। 

लेकिन कोरोना संकट के बीच ही उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात, महाराष्ट्र सहित 6 राज्य सरकारों ने कुछ को छोड़कर बाक़ी सभी श्रम क़ानूनों को अस्थायी तौर पर निलंबित कर दिया है। उत्तर प्रदेश में जो श्रम क़ानून लागू होंगे उसमें शामिल हैं- भवन और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, मज़दूरी अधिनियम के भुगतान की धारा 5, श्रमिक मुआवजा अधिनियम और बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम। 13 क़ानूनों को तीन साल के लिए निलंबित कर दिया गया है। गुजरात ने न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, औद्योगिक सुरक्षा नियमों और श्रमिकों के मुआवजा अधिनियम को छोड़कर बाक़ी सभी संबंधित क़ानूनों से 1,200 दिनों के लिए नई औद्योगिक इकाइयों को छूट दी है।

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हालाँकि यह विवाद का विषय रहा है कि श्रम क़ानूनों में क्या बदलाव किए जाएँ और क्या नहीं, लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था कम से कम श्रम क़ानूनों के पक्ष में रहा है। इसके पक्ष में तर्क दिया जाता है कि ऐसे क़ानूनों की आड़ में अफ़सरशाही कॉरपोरेट घरानों को प्रताड़ित करती है। लेकिन श्रमिकों के पक्ष में आवाज़ उठाने वाले तो तर्क यह भी देते हैं कि श्रमिकों के पक्ष में ढेर सारे क़ानून होने के बाद भी श्रमिकों को अंतहीन प्रताड़ना दी जाती है। इन विवादों को दरकिनार कर दें तो भी सवाल उठता है कि क्या सिर्फ़ श्रम क़ानूनों में बदलाव कर देने से दुनिया भर के उद्योग-धंधे भारत में आ जाएँगे? क्योंकि बिजली की समस्या अभी भी है, बिजली दरें भी काफ़ी ज़्यादा हैं, अपराध है, अफ़सरशाही अभी भी ख़त्म नहीं हुई है।
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क़मर वहीद नक़वी
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