उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया आदेश की कड़ी आलोचना करते हुए भारतीय न्यायपालिका पर निशाना साधा। राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा भेजे गए विधेयकों पर समयबद्ध तरीक़े से कार्रवाई करने का निर्देश का सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को धनखड़ ने संवैधानिक ढाँचे पर हमला बताया। धनखड़ ने इसे ज्यूडिशियल ओवररीच क़रार देते हुए चेतावनी दी कि इससे देश की संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता ख़तरे में पड़ सकती है। ज्यूडिशियल ओवररीच तब कहा जाता है जब न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका के मामलों में हस्तक्षेप करती है। धनखड़ के बयान ने कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की बहस को फिर से हवा दे दी है। 

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए राष्ट्रपति को निर्देश दिया कि वे राज्यपालों द्वारा भेजे गए विधेयकों पर समयबद्ध तरीक़े से फ़ैसला लें। यह आदेश उन मामलों से जुड़ा था, जहाँ कुछ राज्यों ने दावा किया कि उनके विधेयकों को राष्ट्रपति भवन में अनावश्यक देरी का सामना करना पड़ रहा है। कोर्ट ने इसे विधायी प्रक्रिया में बाधा माना और कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने की कोशिश की।

लेकिन उपराष्ट्रपति धनखड़ ने इस फ़ैसले को संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन बताया। दिल्ली में एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा, 'न्यायपालिका यह तय नहीं कर सकती कि भारत के राष्ट्रपति को क्या करना चाहिए। यह संविधान के मूल ढाँचे पर हमला है।' उन्होंने अनुच्छेद 142 का ज़िक्र करते हुए कहा कि इसका इस्तेमाल परमाणु मिसाइल की तरह हो रहा है, जो संवैधानिक संतुलन को बिगाड़ सकता है। उन्होंने यह भी चिंता जताई कि न्यायपालिका पर जनता का भरोसा कम हो रहा है, खासकर जब जज राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पद को निर्देश देने लगते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश उन याचिकाओं के जवाब में आया, जो तमिलनाडु और केरल जैसे ग़ैर-बीजेपी शासित राज्यों ने दायर की थीं। इन राज्यों का आरोप था कि उनकी विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपालों ने राष्ट्रपति के पास भेजा, लेकिन वहाँ कार्रवाई में देरी हो रही है। कोर्ट ने इसे विधायी प्रक्रिया में हस्तक्षेप माना और अनुच्छेद 142 के तहत यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि संवैधानिक प्रक्रियाएँ सुचारू रहें। कोर्ट का तर्क था कि राष्ट्रपति का पद भले ही सर्वोच्च हो, लेकिन वह संविधान के दायरे में काम करने के लिए बाध्य हैं।

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संवैधानिक बहस

धनखड़ के बयान ने कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के बँटवारे पर एक पुरानी बहस को फिर से छेड़ दिया है। धनखड़ ने कहा कि राष्ट्रपति भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर हैं, और उनकी कार्रवाइयों पर समय सीमा तय करना उनकी स्वायत्तता का उल्लंघन है।

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को 'न्याय के लिए आवश्यक' आदेश देने की शक्ति देने वाले अनुच्छेद 142 के 'दुरुपयोग' की चिंता जताई। उन्होंने इसे संवैधानिक ढाँचे को कमजोर करने वाला बताया।

धनखड़ ने दावा किया कि हाल के कुछ फ़ैसलों ने न्यायपालिका पर जनता का भरोसा कम किया है। उन्होंने यह भी कहा कि 'हम कहाँ जा रहे हैं? देश में क्या हो रहा है?' यह बयान कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच बढ़ते तनाव को दिखाता है।

यह मामला शक्तियों के बँटवारे की जटिलता को दिखाता है। वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा, 'राष्ट्रपति संवैधानिक पद है, लेकिन वे मनमानी नहीं कर सकते। कोर्ट का निर्देश जवाबदेही के लिए था, न कि हस्तक्षेप था।' कुछ ने धनखड़ के पक्ष का समर्थन करते हुए कहा कि कोर्ट को राष्ट्रपति जैसे पदों की स्वायत्तता का सम्मान करना चाहिए।

यह विवाद कई मामलों में अहम है। यह पहली बार नहीं है जब कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव हुआ है। 1970 के दशक में इंदिरा गांधी सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच संविधान के बुनियादी ढाँचे पर बहस हो चुकी है। धनखड़ का बयान इस टकराव को फिर से हवा देता है।


कोर्ट का आदेश जहाँ जवाबदेही पर जोर देता है, वहीं धनखड़ का तर्क संवैधानिक पदों की गरिमा और स्वायत्तता की रक्षा की बात करता है। यह बहस यह तय करेगी कि संवैधानिक संस्थाएँ एक-दूसरे के साथ कैसे संतुलन बनाएँगी।

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गैर-बीजेपी शासित राज्यों के विधेयकों पर देरी का मुद्दा पहले से ही केंद्र और राज्यों के बीच तनाव का कारण रहा है। धनखड़ का बयान बीजेपी के समर्थन में देखा जा रहा है, क्योंकि यह केंद्र की कार्यपालिका की स्थिति को मजबूत करता है। विपक्ष इसे न्यायपालिका को "दबाने" की कोशिश के तौर पर देख सकता है, खासकर जब सुप्रीम कोर्ट ने हाल के वर्षों में वक्फ संशोधन अधिनियम और निर्वाचन आयुक्त नियुक्ति जैसे केंद्र सरकार के कई फैसलों पर सवाल उठाए हैं।

धनखड़ का यह दावा कि जनता का न्यायपालिका पर भरोसा कम हो रहा है, एक गंभीर आरोप है। लेकिन यह भी सच है कि सुप्रीम कोर्ट ने सीएए, अनुच्छेद 370, और अन्य मामलों में अपने फ़ैसलों से संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की है, जिससे उसकी साख बनी हुई है।

अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को असाधारण शक्तियाँ देता है, लेकिन इसका बार-बार इस्तेमाल विवादों को जन्म देता है। धनखड़ ने इसे परमाणु मिसाइल कहकर इसके दुरुपयोग की आशंका जताई। यह सवाल उठता है कि क्या कोर्ट को ऐसी शक्तियों का इस्तेमाल संयम से करना चाहिए।

यह मामला कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के बँटवारे पर एक बड़ी बहस को जन्म दे सकता है। यदि सुप्रीम कोर्ट इस आलोचना का जवाब देता है तो यह संवैधानिक संकट का रूप ले सकता है।


धनखड़ का बयान बीजेपी को ग़ैर-बीजेपी शासित राज्यों के ख़िलाफ़ अपनी स्थिति मज़बूत करने का मौक़ा देता है। लेकिन विपक्ष इसे न्यायपालिका के ख़िलाफ़ हमले के रूप में प्रचारित कर सकता है, खासकर 2025 के स्थानीय और राज्य चुनावों के मद्देनजर।

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सुप्रीम कोर्ट इस मामले में अपनी स्थिति स्पष्ट कर सकता है, खासकर यदि कोई याचिका इस बयान के खिलाफ दायर होती है। यह कोर्ट की स्वतंत्रता और उसकी जवाबदेही की परीक्षा होगी।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर तीखा प्रहार संवैधानिक संस्थाओं के बीच नाजुक संतुलन को उजागर करता है। जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को समयबद्ध कार्रवाई का निर्देश देकर विधायी प्रक्रिया को सुचारू करने की कोशिश की, वहीं धनखड़ ने इसे संवैधानिक स्वायत्तता पर हमला बताया। यह विवाद न केवल कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव का मामला है, बल्कि भारत के संवैधानिक ढाँचे में शक्तियों के बँटवारे की जटिलता को भी दिखाता है।