‘वंदे मातरम्’ के 150वें वर्ष पर, जिसे भारत की संविधान सभा ने 24 जनवरी 1950 को राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार किया था, बीजेपी ने एक खुला झूठ बोला। उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी ने “जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में अपने सांप्रदायिक एजेंडे को बढ़ावा देते हुए 1937 में केवल ‘वंदे मातरम्’ का छोटा रूप अपनाया।” प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस झूठ को दोहराते हुए कहा कि 1937 में राष्ट्रीय गीत की महत्वपूर्ण पंक्तियाँ हटा दी गईं और यह तक कहा कि इससे देश में विभाजन के बीज बोए गए।

गांधी और टैगोर की नज़र में ‘वंदे मातरम्’

इस संदर्भ में यह याद करना ज़रूरी है कि 23 अगस्त 1947 को कोलकाता में एक प्रार्थना सभा में जब किसी ने "अल्लाह-ओ-अकबर" कहा और अन्य लोग "वंदे मातरम्" बोलने लगे तो गांधीजी ने साफ़ किया कि “वंदे मातरम्” कोई धार्मिक नारा नहीं, बल्कि एक राजनीतिक उद्घोष है।

उन्होंने बताया कि कांग्रेस ने इस विषय पर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से राय ली थी। टैगोर के सुझाव के अनुसार कांग्रेस कार्यसमिति के हिंदू और मुस्लिम दोनों सदस्यों ने यह निर्णय लिया कि गीत के शुरुआती दो छंद किसी को आपत्तिजनक नहीं लगते और इन्हें सबको मिलकर गाना चाहिए। गांधीजी ने कहा- “इसे कभी भी मुसलमानों का अपमान करने या उन्हें ठेस पहुँचाने के लिए नहीं गाना चाहिए।”
उन्होंने यह भी कहा कि ‘वंदे मातरम्’ मातृभूमि को समर्पित एक ओजस्वी गीत है जिसने “राजनीतिक बंगाल को प्रेरित किया” और जिसके लिए कई स्वतंत्रता सेनानियों ने यातनाएँ सही और बलिदान दिए।

कांग्रेस द्वारा 1937 में पारित प्रस्ताव में भी कहा गया था- “जहाँ भी ‘वंदे मातरम्’ गाया जाए, वहाँ केवल पहले दो छंद गाए जाएँ और आयोजकों को यह स्वतंत्रता हो कि वे इसके साथ कोई और आपत्तिहीन गीत भी गा सकें।”

बीजेपी और मोदी को यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘वंदे मातरम्’ को पहली बार 1896 में कांग्रेस के अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ही गाया था, जिसकी अध्यक्षता रहमतुल्लाह सयानी ने की थी।

संविधान सभा का निर्णय

यह दुखद है कि मोदी न सिर्फ टैगोर के 1937 के निर्णय का अनादर कर रहे हैं, बल्कि संविधान सभा की उस बुद्धिमत्ता पर भी प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं, जिसने उसी रूप में ‘वंदे मातरम्’ को अपनाया।

संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को कहा था-

“‘जन गण मन’ को भारत का राष्ट्रीय गान घोषित किया जाता है और ‘वंदे मातरम्’, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई, उसे भी समान सम्मान और दर्जा प्राप्त होगा।”

उन्होंने यह भी बताया कि इस विषय पर प्रस्ताव लाने के बजाय यह बेहतर समझा गया कि अध्यक्ष स्वयं इस संबंध में घोषणा करें।

इतिहास साफ़ बताता है कि टैगोर ने 1896 में इसे गाया और बाद में तय किया कि केवल शुरुआती दो छंद ही उपयुक्त हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा 150वीं वर्षगांठ का उपयोग विभाजनकारी राजनीति के लिए करना इतिहास का तोड़-मरोड़ प्रस्तुत करना है।

गांधी और ‘वंदे मातरम्’ का थोपना

दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए गांधीजी ने 2 दिसंबर 1905 को इंडियन ओपिनियन में “द हीरोइक सॉन्ग ऑफ बंगाल” नामक लेख में लिखा कि “‘वंदे मातरम्’ हमारा राष्ट्रीय गीत है।” उन्होंने लिखा-

“यह भावनाओं में श्रेष्ठ और अन्य देशों के गीतों से कहीं अधिक मधुर है। इसमें किसी के प्रति द्वेष नहीं, केवल देशभक्ति की भावना है। यह भारत माता की स्तुति है, जैसे हम अपनी माँ की पूजा करते हैं।”

27 अप्रैल 1915 को मद्रास (चेन्नई) में YMCA में भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि “‘वंदे मातरम्’ सुनकर लोग खड़े हो जाते हैं, क्योंकि यह गीत साहस और देशभक्ति जगाता है।” उन्होंने कहा- “अगर हमारे शासक गलत कर रहे हैं और हमे बोलना देशहित में जरूरी लगता है, तो कहो- भले ही उसे राजद्रोह समझा जाए। परंतु परिणाम भुगतने को तैयार रहो।”
आज जब लोग सरकार की गलतियों की ओर इशारा करते हैं और उन पर दंडात्मक कार्रवाई होती है, तब गांधीजी के ये शब्द प्रासंगिक हो उठते हैं। ऐसे में सवाल उठता है- जब सत्ताधारी असहमति को दबा रहे हैं, तो ‘वंदे मातरम्’ की 150वीं वर्षगांठ मनाने का अर्थ ही क्या रह जाता है?

1 जुलाई 1939 को हरिजन  में गांधीजी ने लिखा कि अगर किसी को किसी कारण से ‘वंदे मातरम्’ से आपत्ति हो, तो उसे जबरदस्ती नहीं गाना चाहिए।

अपनी पुस्तक Constructive Programme में भी उन्होंने विद्यार्थियों से आग्रह किया कि किसी पर यह गीत थोपा न जाए।

राष्ट्रपिता गांधीजी के ये विचार आज और भी महत्वपूर्ण हैं, जब ‘वंदे मातरम्’ की वर्षगांठ के अवसर पर समाज को धार्मिक आधार पर बाँटने की कोशिश की जा रही है, इतिहास को विकृत किया जा रहा है और नफ़रत का माहौल बनाया जा रहा है।

(लेखक: एसएन साहू भारत के पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन के विशेष कार्य अधिकारी रहे)
साभार: द वायर