प्रतीकात्मक तस्वीर
क्या आतंकी हमलों के बाद फैलाई जा रही नफ़रत की राजनीति का उद्देश्य पाकिस्तान सेना को संतुष्ट करना है? इस लेख में जानिए कैसे आंतरिक विभाजन को बढ़ावा देकर बाहरी शक्तियों को लाभ पहुंचाया जा रहा है।
भारत के टीवी चैनलों को देखकर पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर के चेहरे पर शातिर हँसी तैर रही होगी। इसलिए नहीं कि उनकी सेना के पिट्ठू आतंकवादियों ने पहलगाम में 28 निर्दोष सैलानियों को मार दिया, बल्कि इसलिए कि प्रतिक्रिया बिल्कुल वैसी हैं, जैसी वे चाहते हैं। न्यूज़ चैनलों पर ‘धर्म पूछकर हिंदुओं की जान लेने’ की बड़ी-बड़ी ब्रेकिंग चलाई जा रही है और भारत के सत्ता-सूत्र सँभाल रही बीजेपी का आईटी सेल इसे आपदा में अवसर मानते हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की लहर पैदा करने में जुट गया। आसिम मुनीर बिल्कुल यही चाहते थे। 15 अप्रैल को जनरल मुनीर ने इस्लामाबाद में पहले ओवरसीज़ पाकिस्तानीज़ कन्वेंशन को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘टू-नेशन थ्योरी पाकिस्तान के अस्तित्व की नींव है’। उन्होंने प्रवासी पाकिस्तानियों से अपील की थी कि ‘वे अपने बच्चों को पाकिस्तान की स्थापना की कहानी सुनाएँ ताकि राष्ट्रीय पहचान और टू नेशन की थ्योरी की समझ कमज़ोर न हो।’
पाकिस्तानी जनरल का यह बयान ‘टू-नेशन थ्योरी’ के दिनों-दिन कमज़ोर पड़ने की हताशा से उपजा है। मोहम्मद अली जिन्ना ने ‘हिंदू और मुसलमान को दो राष्ट्र’ बताते हुए पाकिस्तान का मुक़दमा तो जीत लिया था लेकिन उनके तमाम सपने उनके सामने ही ध्वस्त होना शुरू हो गये थे। 1971 में बांग्लादेश का निर्माण इस थ्योरी की कब्र पर ही हुआ था और आज पाकिस्तान एक ‘फ़ेल्ड स्टेट’ है। इस्लाम की बुनियाद पर इस देश को बनाया गया था लेकिन भाषा, क्षेत्र और फ़िरक़े को लेकर आये दिन होने वाली हिंसा ने साबित किया है कि सिर्फ़ मुसलमान होना ‘एक’ होने की बुनियाद नहीं हो सकती। मौलाना आज़ाद ने जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर खड़े होकर पाकिस्तान के ख़िलाफ़ तक़रीर देते हुए जो आशंकाएँ ज़ाहिर की थीं वे भविष्यवाणी साबित हुईं। भारतीय मुसलमानों ने जिन्ना के इस्लामी स्वर्ग को ठुकराकर ‘हिंदू बहुल’ भारत में रहना चुना था। गाँधी, नेहरू और मौलाना आज़ाद के सपने उन्हें ज़्यादा ‘पाक’ लगे। बतौर भारतीय अपने पुरखों की ज़मीन को सजाने-सँवारने के लिए उन्होंने वह सब-कुछ किया जो किसी नागरिक से उम्मीद की जाती है। जब पाकिस्तान से जंग हुई तो शहादत देने में भी पीछे नहीं रहे।
कश्मीर बचाने की जंग में शहीद हुए ब्रिगेडियर उस्मान से लेकर वीर अब्दुल हमीद तक न जाने कितनी कहानियाँ बिखरी हुई हैं। यहाँ तक कि कश्मीर में आतंकियों से लड़ने में भी मुसलमानों ने जान गँवाई।
इन शहीदों में एक नाम ‘औरंगज़ेब’ का भी है। भारतीय सेना के 44 राष्ट्रीय रायफ़ल्स के राइफ़लमैन औरंगज़ेब को अगवा करके आतंकियों ने 14 जून 2018 को हत्या कर दी थी। आतंकियों ने उनकी हत्या से पहले का एक वीडियो जारी किया, जिसमें औरंगज़ेब ने बिना डरे यह स्वीकार किया कि वह उस टीम का हिस्सा थे जिसने आतंकी समीर टाइगर को मारा था। औरंगज़ेब को मरणोपरांत शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया। औरंगज़ेब के पिता मो. हनीफ़ भी भारतीय सेना में थे और उनके दो भाइयों मोहम्मद ताहिर और मोहम्मद शब्बीर ने 2019 में भारतीय सेना में शामिल होकर भाई की शहादत का बदला लेने की क़सम खाई। ये सिर्फ़ एक परिवार की कहानी नहीं है। जम्मू-कश्मीर पुलिस के सैकड़ों जवान आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हो चुके हैं जिनमें ज़्यादातर मुस्लिम हैं। पहलगाम हमले में शहादत देने वाले सैयद हुसैन शाह की कहानी भी अब सामने है जो पर्यटकों को अपने घोड़े पर घुमाता था। उसने आतंकवादियों से राइफ़ल छीनने की कोशिश में अपनी जान गँवाई। ये सारी शहादतें जिन्ना के सपने पर बरसी हुई लानत की तरह हैं जो पाकिस्तान के सेना प्रमुख की आँख में मिर्च की तरह गड़ती हैं। इसलिए वे गिड़गिड़ा रहे हैं कि बच्चों को टू-नेशन थ्योरी समझाई जाए। वे जानते हैं कि बच्चे अगर आज़ाद ख़्याल हुए तो आगे चलकर इस पर सिर्फ़ हँसेंगे।
लेकिन भारत का कथित मुख्यधारा मीडिया और बीजेपी से जुड़े नेता-कार्यकर्ता अपने व्यवहार से ‘टू-नेशन थ्योरी’ को सही साबित करने में जुटे हैं जो कहती है कि हिंदू और मुसलमान साथ नहीं रह सकते। बीजेपी आईटी सेल की ओर से पहलगाम में शहीद हुए सैलानियों को श्रद्धांजलि देने से पहले ये पोस्टर प्रचारित किये गये कि वहाँ ‘जाति नहीं धर्म पूछकर मारा गया।’ मीडिया ने ज़हर घोलने वाली ऐसी सुर्ख़ियाँ लगाईं जिनकी एक दशक पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। साफ़ है कि सांप्रदायिक विभाजन को गहरा करने के लिए ऐसा किया गया। हैरानी की बात तो यह है कि इस नैरेटिव को अच्छे-भले समझे जाने वाले लोग भी सोशल मीडिया पर प्रचारित करते नज़र आए। उन्हें समझ में नहीं आता कि ऐसा करके वे आतंकवादियों की मंशा ही पूरी कर रहे हैं! आतंकवादियों को सैलानियों को सिर्फ़ मार कर दहशत फैलानी होती तो नाम पूछने की कोई ज़रूरत नहीं थी। उनका मक़सद यही था कि पहलगाम की प्रतिक्रिया पटना में हो। इस बात की पूरे हिंदुस्तान में चर्चा हो कि आतंकवादियों ने धर्म पूछकर जान ली और प्रतिक्रिया में मुसलमानों के प्रति नफ़रत का तूफ़ान खड़ा हो। यानी दम तोड़ती हुई टू-नेशन थ्योरी को नई जान देने के लिए ऐसा किया गया। जो लोग ऐसा कर रहे हैं वे आतंकियों और पाकिस्तान के सैन्य प्रतिष्ठान की मंशा पूरी कर रहे हैं। वे उसी ‘टू नेशन थ्योरी’ पर आगे बढ़ रहे हैं जिसकी नाकामी से पाकिस्तान परेशान है।
पहलगाम में सैलानियों पर हुआ हमला सुरक्षा और ख़ुफ़िया एजेंसियों की नाकामी के साथ-साथ मोदी सरकार की भी बड़ी विफलता है जो स्थिति के सामान्य होने को लेकर बड़े-बड़े दावे कर रही थी। यह बताता है कि कश्मीर में सैलानियों की संख्या स्थिति सामान्य होने की गवाही नहीं हो सकती।
मोदी सरकार ने नोटबंदी से लेकर अनुच्छेद 370 हटाने तक को आतंकवाद की कमर तोड़ने का उपाय बताया था लेकिन हक़ीक़त सामने है। अभी भी इस बात का खुलासा नहीं हुआ कि पुलवामा में चालीस जवानों को शहीद करने वाला आरडीएक्स कहाँ से आया था जबकि इस हमले के छह साल बीत चुके हैं। बीजेपी सरकारों के रहते आतंकवादी हमलों की लंबी फ़ेहरिस्त है लेकिन बजाए अपनी ज़िम्मेदारी क़बूल करने के पार्टी ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया। इसे हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का ज़रिया बनाया जबकि सरकारों को शर्मिंदा होना चाहिए।
पहलगाम के हमले को लेकर पूरे देश में सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वालों को कश्मीर की ओर भी एक नज़र डालनी चाहिए। कश्मीर के अख़बारों ने घटना के दूसरे दिन अपना पहला पन्ना काले रंग में छापा है। कश्मीर घाटी में घटना के विरोध में बंद का कॉल दिया गया और धार्मिक संगठनों से लेकर राजनीतिक दलों ने इस बंद का समर्थन किया। सैलानियों पर हमला कश्मीर के व्यापार पर, उसकी रीढ़ पर हमला है। इसका नुक़सान कश्मीर के लोग अच्छी तरह समझते हैं। कहीं छोटी सी ख़बर ये भी दिखी है कि कपड़ा व्यवसायी नज़ाकत अली ने 11 सैलानियों की जान बचाई।
इस घटना में राजनीतिक लाभ तलाशने वाले सिर्फ़ और सिर्फ़ आतंकवादियों के इरादों को कामयाब कर रहे हैं। पाकिस्तानी जनरल को ख़ुश होने की वजह दे रहे हैं। धर्म के नाम पर गाली देने वालों और धर्म के नाम पर गोली चलाने वालों के इरादे में कोई बुनियादी फ़र्क़ नहीं है।