पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस मदन लोकुर ने तमिलनाडु के राज्यपाल की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाते हुए उन्हें बर्खास्त करने की मांग की है। जानें इस बयान के पीछे की संवैधानिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि।
तमिलनाडु के राज्यपाल की असंवैधानिक हरकत के लिए तो राष्ट्रपति को उन्हें सीधे बर्खास्त करना चाहिए था। क्योंकि राज्यपाल को निर्वाचित विधायी सदन द्वारा जनहित में दो-दो बार पारित विधेयकों पर दो साल तक कुंडली मारकर बैठने का कोई हक़ नहीं है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने विधानसभा द्वारा बहुमत से पारित विधेयकों को राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा मंजूरी देने की समय सीमा तय करके संवैधानिक नैतिकता का निर्वाह किया है। इस घटना ने बाबसाहेब भीमराव आंबेडकर की सुप्रसिद्ध उक्ति को सही सिद्ध कर दिया कि यदि संविधान को लागू करने वालों की नीयत ग़लत हो तो सर्वश्रेष्ठ संविधान भी बेकार हो जाएगा और अगर उनकी नीयत अच्छी है तो ख़राब संविधान भी सबसे बेहतर साबित हो जाएगा। डॉ. आंबेडकर ने ये उद्गार संविधान सभा में व्यक्त किए थे। ये बातें जस्टिस मदन बी लोकुर ने शनिवार को “संवैधानिक नैतिकता” पर व्याख्यान में कहीं। सर्वोच्च न्यायालय से रिटायर हो चुके जस्टिस लोकुर सिटीजंस फॉर डेमोक्रेसी के स्वर्ण जयंती सत्र को संबोधित कर रहे थे। सिटीजंस फॉर डेमोक्रेसी की स्थापना दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में सर्वोदयी नेता और प्रखर स्वतंत्रता सेनानी जेपी यानी जयप्रकाश नारायण ने 1974 में की थी। तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर लोकतंत्र से खिलवाड़ के आरोप लग रहे थे। इस संगठन ने अपने गठन के अगले ही साल लगे आंतरिक आपातकाल यानी इमरजेंसी लगने के बाद भी जस्टिस वी एम तारकुंडे एवं जस्टिस एमसी छागला की सदारत में लोकतंत्र के लिए संघर्ष जारी रखा।
हमारा संविधान बहुत अच्छा है। इसलिए उसके सदुपयोग से देश की अनेक समस्याओं का समाधान हो पाया है। असल बात संविधान का इस्तेमाल करने वालों की नीयत की है। संविधान सभा में संविधान के सभी पहलुओं पर दो वर्ष लंबी चर्चा हुई। देश के विभिन्न अंचलों से उसमें शामिल प्रतिनिधियों के मत को उसमें शामिल किया गया है। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, ‘हमने आपको अच्छा संविधान प्रदान करने का प्रयास किया है मगर यदि इसके सिद्धांतों के संचालकों ने संवैधानिक नैतिकता को भुला दिया तो गड़बड़ हो जाएगी।’ इंगलैंड में तो लिखित संविधान है ही नहीं फिर भी वहां लोकतंत्र जिंदा है। भारत का संविधान तो विश्व का सबसे लंबा संविधान है। सब कुछ लिखा हुआ है। फिर भी कुछ प्रावधानों में कुछ फासले छोड़े गए हैं। इन्हें अमेरिकी संविधान का मौन’ कहते हैं। इनका मकसद शायद भविष्य की आवश्यकता के अनुसार उन प्रावधानों को संविधान की भावना के अनुरूप परिभाषित करने की गुंजाइश छोड़ना है। यहीं पर देश के नेताओं का बड़प्पन काम आता है। यह संवैधानिक नैतिकता के पालन से ही संभव है। संविधान में तो साफ़ कहा गया है कि ‘हम भारत के लोग स्वयं को यह संविधान प्रदान कर रहे हैं। शायद जयप्रकाश नारायण, जस्टिस तारकुंडे एवं एम सी छागला ने भी यही संप्रेषित करने का प्रयास किया था। इसलिए हमने यह संविधान स्वयं को समर्पित किया है। हम इसे न तो राजनीतिक नेताओं को दे रहे हैं और न ही सामाजिक नेताओं को दे रहे हैं मगर देश के नागरिक होने के नाते वे भी इसके लिए प्रतिबद्ध हैं। इसलिए उन्हें संविधान का प्रयोग जनकल्याण के लिए करना चाहिए। इसीलिए उन्हें संविधान को सर्वोपरि मानते हुए संवैधानिक नैतिकता का पालन भी करना है। यदि संविधान का दुरुपयोग हुआ तो समस्या पैदा होगी जैसी साल 1975 में जून में आंतरिक इमरजेंसी की घोषणा से हुई थी। इमरजेंसी संवैधानिक प्रावधान विशिष्ट परिस्थितियों के लिए है मगर 1975 में उसका प्रयोग तानाशाही की ओर देश को ले जाने के लिए हुआ। उसी से चिंतित होकर जयप्रकाश नारायण जी और जस्टिस वी एम तारकुंडे ने उसका सार्वजनिक विरोध किया।
इसलिए ये भले ही कहा जाए कि 1975 में इमरजेंसी तो संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप ही लगी थी मगर सवाल है कि क्या उसके प्रयोग में संवैधानिक नैतिकता का पालन हुआ था? उस समय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था। अपील की सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मुक़दमे पर फ़ैसले तक वे प्रधानमंत्री के रूप में संसद में तो जा सकेंगी मगर सदस्य के रूप में मतदान से वंचित रहेंगी। चुनाव तो हर साल होते हैं और कुछ लोग भ्रष्ट तौर-तरीके भी अपनाते हैं मगर उस पर कार्रवाई से बचने के लिए तो इमरजेंसी नहीं लगाई जा सकती! जरा याद कीजिए कि 1933 में हिटलर ने भी ऐसा ही किया था। उसने सत्ता को अपनी मुट्ठी में करने के लिए संवैधानिक प्रावधानों का ही प्रयोग किया था। उसका परिणाम हम सबने देखा। हमारा ये सौभाग्य रहा कि हमारे देश में 19 माह इमरजेंसी के बाद चुनाव हो गए जिससे लोकतंत्र बहाल हुआ।
अब सवाल है कि संवैधानिक नैतिकता की वर्तमान चुनौतियां क्या हैं? संवैधानिक नैतिकता के लिए सबसे बड़ी वर्तमान चुनौती मेरी राय में राज्यों में राज्यपालों का आचरण है। यह सचमुच खतरे की घंटी है क्योंकि इन राज्यपालों का राजनीति से इतर होना चाहिए।
इनके आचरण में बड़प्पन होना चाहिए। राज्यपाल ऐसी शख्सियत हों जो राज्य एवं केंद्र के बीच समन्वय स्थापित करें। वे गणतंत्रात्मक विरोधाभासों को हल करने की कोशिश करें। लेकिन पिछले दो-तीन साल में हम देख रहे हैं कि ये राज्यपाल सरासर केंद्र सरकार के एजेंटों की तरह काम कर रहे हैं। हालांकि संविधान की ऐसी मंशा कतई नहीं थी और यह संवैधानिक नैतिकता के भी उलट है। आखिर ये राज्यपाल कर क्या रहे हैं? खासकर उन राज्यों के राज्यपाल जहां केंद्र सरकार में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल से इतर राजनीतिक दल की सरकार है। ये राज्यपाल उन विधेयकों पर कुंडली मार कर बैठ जा रहे हैं जिन्हें निर्वाचित विधानसभाओं ने बहुमत से पारित करके उनकी मंजूरी के लिए उनके पास भेजा है। राज्यों के विधायी सदनों में निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं जिन्हें संविधान सम्मत कानून पारित करने हैं। विधानसभा में पारित होने के बाद विधेयकों राज्यपाल के पास भेजा जा रहा है। और राज्यपाल क्या कर रहे हैं? ऐसे भी उदाहरण हैं कि राज्यपालों ने उन विधेयकों के बारे दो या तीन साल तक कोई निर्णय ही नहीं किया। भारत के संविधान में राज्यपाल द्वारा विधेयक को मंजूरी नहीं दिए जाने का प्रावधान है मगर वह हमेशा के लिए विधेयक को सहमति से वंचित नहीं कर सकते। यदि वे मंजूरी देने से इंकार करते हैं तो राज्य सरकार को उसकी सूचना देते हुए असहमति का कारण बताना भी राज्यपाल का कर्तव्य है। इसके आधार पर राज्य सरकार उन विधेयकों में खामियां दूर करने अथवा राज्यपाल के सुझाव समाहित या रद्द करके विधानसभा से फिर से पारित करवा कर विधेयक को दोबारा राज्यपाल की मंजूरी के लिए भेजने की कार्रवाई पूरी कर पाती है। संविधान के तहत राज्यपाल को विधेयक से असहमति को पूर्ण अधिकार है। राज्यपाल को यदि ऐसा लगता है कि विधेयक में उल्लिखित प्रावधान केंद्र सरकार द्वारा लागू किसी कानून के विपरीत हैं तो वह विचाराधीन विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ भेज सकते हैं। इसके उलट कुछ राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक मंजूर नहीं कर रहे। संविधान में कहीं नहीं लिखा कि ‘मुझे ये विधेयक राज्य सरकार को वापस भेजने हैं। इसलिए तुम जो भी कानून पारित करोगे उन्हें मैं मंजूरी ही नहीं दूंगा’। यदि राज्यपाल विधेयकों को हमेशा के लिए दबा लेंगे तो जनता के लिए कानून कैसे बनेंगे?
उनके बिना राज्यों में कानून/व्यवस्था/प्रशासन ठप नहीं हो जाएगा? जो राज्यपाल ऐसा कर रहे हैं वो चार या पांच बड़े राज्यों राज्यपाल हैं। इस तरह चार या पांच लोग जो चार या पांच राज्यों के राज्यपाल हैं वे एक दिन ठानते हैं कि राज्य सरकार के किसी भी कानून को अगले पांच साल हम मंजूरी नहीं देंगे!उन पांच राज्यों में अराजकता फैल जाएगी और उन राज्यों में संविधान मृत हो जाएगा! यहीं पर संवैधानिक नैतिकता का प्रश्न आता है। संवैधानिक नैतिकता का यह कतई तकाजा नहीं है कि राज्यपाल अपनी हरकतों से प्रशासन ठप कर दें और परेशानी जनता उठाए! विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति संबंधी कानूनों को इन राज्यपालों ने अटका रखा है। इसका परिणाम क्या है? विश्वविद्यालय बिना कुलपतियों के काम कर रहे हैं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। और बिना कुलपति के विश्वविद्यालयों को एक-दो दिन अथवा एक-दो महीने ही नहीं, बल्कि एक या दो साल तक चलाया जा रहा है।
बिना कुलपति वाले विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों का भविष्य क्या बनेगा? ऐसी समस्या पैदा की जा रही हैं! और इन्हीं समस्याओं ने सर्वोच्च न्यायालय को राज्यपालों पर निर्णय करने को बाध्य किया।
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में कहा कि ये आजमाया हुआ कानून है जिसमें समय सीमा तय नहीं की गई है मगर आपसे सुचिंतित समय सीमा के भीतर निर्णय करने की अपेक्षा निहित है। यदि मैं किसी लाइसेंस अथवा परमिट के लिए अर्जी देता हूं तो अथाॅरिटी यह नहीं कह सकती कि आप दो या तीन साल बाद मेरे पास आइए और मैं तब आपकी अर्जी पर विचार करूंगा। ऐसा किया ही नहीं सकता। आपको सुचिंतित समय सीमा के भीतर अर्जी का निपटारा करना होता है। अलबत्ता समय सीमा अधिक या कम हो सकती है। कुछ मामलों में ये 10 दिन, कुछ मामलों में एक माह और कुछ अन्य मामलों में 15 दिन का समय भी लग सकता है लेकिन मुनासिब समय सीमा में फ़ैसला हो जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने यही तो कहा है कि हम राज्यपाल से मुनासिब समय सीमा के भीतर कार्रवाई की अपेक्षा करते हैं। ये तो संवैधानिक नैतिकता का तकाजा है। ये तो राज्यपाल द्वारा विधेयक लटकाने का मामला है पर करीब दो साल पहले महाराष्ट्र सरकार ने राज्यपाल को विधान परिषद में नामांकित करने के लिए 12 लोगों की सूची भेजी मगर राज्यपाल ने उस फाइल पर कार्रवाई ही नहीं की। राज्यपाल ने उनके नामांकन को मंजूरी नहीं दी और वो सरकार गिरने के बाद दूसरी सरकार द्वारा विधानसभा में नामांकन की सूची सौंपने पर राज्यपाल ने फटाफट मंजूरी दे दी। तो देखिए कि संविधान के सिद्धांतों के विपरीत राज्यपाल इस प्रकार विधायिका को सरेआम प्रभावित कर रहे हैं। ये डाॅ. आंबेडकर द्वारा प्रतिपादित संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन है। विधानसभा अध्यक्षों द्वारा भी ऐसे ही मनमाने तरीके से काम करने की घटना सामने आ रही हैं।
महाराष्ट्र, मणिपुर, कर्नाटक आदि में संविधान की दसवीं अनुसूची यानी दलबदल निरोधक प्रावधानों के तहत विधायी सदनों के सदस्यों की सदस्यता समाप्त करने की याचिकाओं पर अध्यक्ष ने कह दिया कि मैं तो इन पर निर्णय नहीं करूंगा! और कम से कम एक मामले में तो अध्यक्ष ने कह दिया कि अब तो चुनाव हो चुके और मामला स्वतः समाप्त हो गया इसलिए मेरे निर्णय की आवश्यकता ही नहीं है। मणिपुर के मामले में तो लोग सर्वोच्च न्यायालय चले गए और संवैधानिक नैतिकता के तहत अदालत ने स्पीकर से कहा कि आप तीन महीने में मामला निपटा दीजिए लेकिन स्पीकर ने फैसला नहीं किया। महाराष्ट्र के मामले में भी उच्च न्यायालय ने स्पीकर को तीन या चार माह में याचिकाओं पर फ़ैसला सुनाने को कहा मगर उन्होंने कार्रवाई नहीं की। फिर मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो अदालत ने उन्हें निर्देशित किया कि याचिकाओं का निपटारा निश्चित समय सीमा में करें। निर्देशित करते ही राजनैतिक वर्ग शोर मचाने लगता है कि स्पीकर को निर्णय करने का निर्देश देने वाले आप कौन होते हैं? सवाल ये है कि यदि स्पीकर याचिकाओं का निपटारा नहीं करते तो परिणाम क्या होगा? जनता क्या करेगी? जनप्रतिनिधियों से क्या करने की उम्मीद की जाएगी? अब सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय को उसके अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन बताया जा रहा है। ऐसा करके वे गुपचुप स्पीकर/राज्यपाल की हरकतों का समर्थन कर रहे हैं। क्या संविधान में ऐसा लिखा है? क्या वे फाइलों पर कुंडली मारकर बैठ सकते हैं? तो सर्वोच्च न्यायालय क्या करे? संविधान में कहां लिखा कि वो लोग फाइलों को अनिश्चितकाल तक लटका सकते हैं? ये सरासर दिशाभ्रमित है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की आलोचना करने वाले लोग उन राज्यपालों/स्पीकरों की हरकतों को माफ कर रहे हैं जो संवैधानिक नैतिकता के विपरीत आचरण कर रहे हैं। मैं इसे नितांत गलत मानता हूं क्योंकि इससे संविधान और संवैधानिक नैतिकता तो रद्दी की टोकरी के हवाले हो जाएंगे! लेकिन यदि हम स्वयं को समर्पित संविधान का पालन एवं उसकी रक्षा करना चाहते हैं तो उसका उल्लंघन करने वाला भले राज्यपाल/स्पीकर अथवा कोई अन्य भी हो उसे संवैधानिक नैतिकता के विपरीत आचरण की अनुमति नहीं दे सकते। तमिलनाडु के राज्यपाल से इस्तीफा मांगा जा रहा है मगर मेरी राय में राष्ट्रपति को उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए। राज्यपाल ने संवैधानिक नैतिकता के विपरीत आचरण किया है और राष्ट्रपति कहें कि मुझे अफसोस है कि आपके आचरण को भारत का संविधान/भारत के लोग स्वीकार नहीं कर सकते और इसीलिए आपको तत्काल आपके पद से बर्खास्त किया जा रहा है।
बर्खास्तगी की कार्रवाई से उन अन्य तीन-चार राज्यपालों को भी सबक मिल जाएगा जो तमिलनाडु के राज्यपाल की तरह आचरण कर रहे हैं।
यदि वे तब भी नहीं सुधरते तो राष्ट्रपति को उन तीन-चार राज्यपालों को भी बखास्त कर देना चाहिए। अब समय आ गया है कि जयप्रकाश नारायण जी एवं जस्टिस तारकुंडे द्वारा 1974 में कहे गए शब्दों पर ध्यान दें कि संवैधानिक नैतिकता एवं संविधान के लागू होने पर ध्यान देकर ये फैसला करना चाहिए कि वर्तमान हालात में हमें क्या करना चाहिए। क्योंकि संविधान को हमने खुद को समर्पित किया है न कि राज्यपालों, नेताओं अथवा स्पीकरों को। इसलिए यदि उन्हें हमारा प्रतिनिधित्व करना है तो उन्हें संविधान की व्यवस्थाओं एवं संवैधानिक नैतिकता का कड़ाई से पालन करना होगा। जस्टिस लोकुर ने संसद में बहस की अनुमति सीमित करने को भी संवैधानिक नैतिकता के विपरीत बताया। उन्होंने कहा कि यदि तीन विवादास्पद किसान कानूनों पर संसद में पर्याप्त बहस होने दी जाती तो लंबे किसान आंदोलन में करीब 700 लोगों की मृत्यु होने और अंततः सरकार द्वारा उन्हें वापस लेने की नौबत नहीं आती।