मध्य प्रदेश में एकमुश्त दल-बदल के ज़रिए सरकार को गिराने का खेल चल रहा है। पता नहीं, कमलनाथ की सरकार बचेगी या नहीं और बचेगी भी तो क्या दल-बदल के ही सहारे? इन सवालों के जवाब हमें अगले एक पखवाड़े में मिल जाने चाहिए। बहरहाल, सरकार बचे या जाए, लेकिन यह तो साफ़ है कि दल-बदल का यह खेल अवसरवादी राजनीति की पराकाष्ठा है।
मध्य प्रदेश में दल-बदल का यह खेल बीजेपी की शह पर खेला जा रहा है। अगर बीजेपी इस दल-बदल के पीछे नहीं होती तो न तो ‘महाराज’ सिंधिया का असंतोष उबाल मारता और न ही 22 विधायक बीजेपी की गोद में बैठने के बारे में सोचते। इन विधायकों को मंत्री पद और जाने क्या-क्या लालच दिए गए कि वे पार्टी के प्रति वफ़ादारी और सिद्धांत को भूलकर बीजेपी के बाड़े में बंद हो गए।
हालाँकि, दल-बदल का यह खेल केवल बीजेपी ही नहीं खेलती। कांग्रेस और दूसरी पार्टियाँ भी दल-बदल की राजनीति करती रही हैं। लेकिन निकट भविष्य में बीजेपी ने तो तमाम हदें लाँघ दी हैं।
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वास्तव में बीजेपी ने थोक में दल-बदल की नई परंपरा डाल दी है। अपनी सरकार बनाने और दूसरों की गिराने के लिए उसने विधायकों को खरीदने से लेकर उन्हें धमकाने जैसे ढेरों हथकंडों का इस्तेमाल किया है। आइए, अब ज़रा जायज़ा लेते हैं कि छह साल में उसने दूसरे दलों की सरकार गिराने और अपनी बनाने के लिए कहाँ-कहाँ दल-बदल का सहारा लिया है।
मध्य प्रदेश के पहले बीजेपी ने दल-बदल की राजनीति के सहारे पाँच राज्यों में अपनी सरकारें बनाई हैं। ये राज्य हैं- कर्नाटक, मेघालय, गोवा, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश। कर्नाटक का मामला सबसे ताज़ा है। वहाँ उसने कांग्रेस और जेडीएस के 17 विधायकों को तोड़कर पहले उनकी सरकार गिराई और फिर अपनी बना ली। इन पाँच राज्यों के अलावा उसने महाराष्ट्र में एनसीपी के अजित पवार के सहारे विधायक तोड़कर सत्ता हथियाने की कोशिश की थी जिसमें उसे मुँह की खानी पड़ी थी।
कहा जा रहा है कि बीजेपी की नज़र अब राजस्थान पर है। राजस्थान में भी कांग्रेस की सरकार के पास बारीक बहुमत ही है और वह वहाँ भी कर्नाटक तथा मध्य प्रदेश की तरह विधायकों को खरीदकर सरकार गिरा सकती है और अपनी बना सकती है। कयास तो ये भी लगाए जा रहे हैं कि महाराष्ट्र की सरकार भी उसकी आँखों में चुभ रही है और उसे भी गिराने की कोशिशें युद्ध स्तर पर चल रही हैं।

अगर बीजेपी ने इन पाँच राज्यों में दल-बदल के ज़रिए सरकार न बनाई होती तो उसका राज देश के एक-चौथाई क्षेत्र तक ही सिमटकर रह जाता। साफ़ है कि उसकी राजनीतिक ताक़त वैध तथा लोकतांत्रिक तरीक़ों से नहीं बढ़ी है।

हो सकता है कि आपको लग रहा हो कि इसमें नई बात क्या है। सारी पार्टियाँ ऐसा करती हैं और नेता तो जहाँ खाने-पीने को मिलता है, वहीं चल देते हैं। उनकी पार्टी और सिद्धांतों के प्रति कोई निष्ठा नहीं होती। वे तो बस पद और पैसे के लालच में राजनीति में आते हैं। 
हक़ीक़त तो यह है कि राजनीति का यह अश्लील ड्रामा हमारे-आपके पैसे से खेला जा रहा है और हमारे हित ही दाँव पर लगे हैं। यह जनमत के साथ छल है, जनादेश का अपमान है, लोकतंत्र के साथ सरेआम धोखाधड़ी है। हम सरकार चुनते हैं लोकतांत्रिक ढंग से शासन चलाने के लिए, न कि दल-बदल कर अपना हित साधने के लिए।
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दल-बदल लोकतंत्र विरोधी हरकत

दल-बदल को हमेशा से लोकतंत्र विरोधी हरकत माना जाता रहा है। यह सही है कि यह कोई नई परिघटना नहीं है। यह प्रवृत्ति आज़ादी के बाद से चल रही है। 1967 में ‘आया राम गया राम’ प्रकरण के बाद यह चिंता का विषय बनी थी और इसी का परिणाम था 1985 में दल-बदल विरोधी क़ानून का बनना। हालाँकि इससे बात नहीं बनी तो 2003 में इसमें संशोधन किया गया और एक-तिहाई की जगह दो-तिहाई विधायकों या सांसदों के टूटने पर ही पार्टी में विभाजन माना जाने लगा। इससे कम के टूटने का मतलब था दल-बदल।
इस संशोधन के बाद से व्यक्तिगत दल-बदल पर काफ़ी अंकुश लग गया। मगर राजनीतिक दलों ने दूसरे रास्ते निकाल लिए। ख़ास तौर पर मोदी और शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी ने तो दल-बदल की नई राजनीति ही शुरू कर दी। ध्यान रहे कि बीजेपी जो आज कर रही है अगर वह राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन गया तो आने वाली सरकारें भी यही करेंगी; सरकारें हमेशा डाँवाडोल रहेंगी, ठीक से काम नहीं कर पाएँगी। 
लिहाज़ा अब वक़्त आ गया है कि दल-बदल क़ानून पर फिर से विचार किया जाए और पद और पैसे के लिए किए जाने वाले दल-बदल पर रोक लगाने के उपाय किए जाएँ।