भारत की पारंपरिक प्रदर्शनकारी कलाओं में कठपुतली (पुतली खेल), जिसका आधुनिक अंग्रेजी नाम `पपेट’ आजकल ज़्यादा चलन में है, एक अजीब से तिराहे पर है। एक रास्ता तो वही है जो कुछ सदियों से चली आ रही है और कठपुतली के कलाकार शादी ब्याह या मौक़े पर या किसी समारोह में आकर दस-बीस मिनटों की प्रस्तुतियाँ देते हैं। लोगों का मनोरंजन कर देते हैं। इन जगहों पर कुछ अन्य प्रदर्शनकारी कलाओं के कलाकार भी अपने करतब दिखाते हैं। दूसरी राह है कठपुतली केंद्रित समारोहों में देश और विदेश के कलाकार अपनी कलाओं का प्रदर्शन करते हैं। और तीसरी राह वो है जिसे प्रयोग पथ कह सकते हैं। आज कठपुतलियों को लेकर देश विदेश में- कई तरह के प्रयोग हो रहे हैं, कार्यशालाएँ हो रही हैं और विदेशी अध्येता आकर भारतीय कठपुतली कलाएँ सीख रहे हैं और अपने देश लौटकर भारतीय पुतली कला का विस्तार कर रहे हैं।

पर इन सबके साथ और बावजूद भारत में कठपुतली या पुतली कला तकलीफदेह स्थिति में है। कठपुतली को वो सम्मान हासिल नहीं है जो शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य या नाटक जैसी कलाओं को है। हालाँकि इनमें से कम साधना और अनुशासन की ज़रूरत कठपुतली कला में नहीं है। नाटक भी संकट में है फिर भी सैद्धांतिक रूप से उसे एक सम्मानित कला का दर्जा प्राप्त है। पर कठपुतली को वो भी नहीं है। उसे अभी तक एक सामान्य लोककला के दायरे में रखा जाता है। हालांकि दादी पदमजी जैसे कलाकारओं की वजह से अब मध्यवर्गीय वातावरण में उसे थोड़ी सी प्रतिष्ठा मिली है लेकिन ये भी मानना पड़ेगा सामान्य कला संबंधी विमर्श में कठपुतली गायब है। उसके कलाकार हाशिए पर हैं। हालांकि राज्य सरकारों से लेकर केंद्रीय संगीत नाटक अकादेमी कठपुतली जैसी कलाओं को अपने कार्यक्रमों और पुरस्कार- सूची में जगह देती है पर कलाओं की वर्णव्यवस्था में उसका स्थान सबसे नीचे हैं।

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पिछले हफ्ते में मेरी मुलाकात विख्यात कठपुतली कलाकार पूरन भट्ट से हुई और इस कला के संकटों और संभावनाओं को लेकर विशद चर्चा भी हुई। इस दौरान कई मुद्दे उभरे। जैसे क्या भारत कठपुतली को कभी शास्त्रीय कला का दर्जा मिल पाएगा, उसे लेकर कोई बड़ा प्रशिक्षण संस्थान बन सकेगा? क्या कठपुतली के कलाकार समाज में हाशिए पर ही बने रहेंगे?

पर आगे कठपुतली से जुड़ी इन बातों पर चर्चा करने के पहले पूरन भट्ट और उनके समुदाय पर के बारे में बुनियादी बातें जानना जरूरी होगा।

पूरन उस नट-भांट समुदाय से आते हैं जिन्होंने उत्तर भारत में सत्रहवी सदी और उसके बाद आज तक कठपुतली कला को उत्तर भारत में फैलाया और उसे जीवित भी रखा। ये समुदाय अपने को अमर सिंह राठौर से जोड़ता हैं। अमर सिंह राठौर राजस्थान के नागौर इलाके के जागीरदार थे और शाहजहां के दरबार में भी थे। उनके विश्वस्त भी। अमर सिंह काफी बहादुर थे और एक मुद्दे पर तनातनी के बाद उन्होंने शाहजहां के साले सलावत खान का सिर भरे दरबार मे काट लिया था। फिर शाहजहां के सैनिकों के लड़ते भिड़ते निकलने के दौरान आगरा के क़िले में ही वे मारे गए। आगे की कहानी और लंबी है और उसमें अमर सिंह की पत्नी भी किरदार के रूप मे आती है।

पर फिलहाल प्रासंगिक बात ये है कि अमर सिंह राठौड़ को लेकर नौटकियाँ भी लिखीं और खेली जाने लगीं और नागौर के आसपास के किसान और नट-भांट उनकी वीरता की कथा को कठपुतली के माध्यम से देश के अन्य हिस्सों में घूम घूम कर फैलाने लगे। कठपुतली एक आख्यान परक कला के रूप में फैलने लगी। आज भी कई पारंपरिक कठपुतली कलाकार घूमंतू कलाकार के तौर पर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। खुद पूरन भी दिल्ली के आनंद पर्वत के इलाके में एक ट्रांजिट कैंप में ही रहते है। सपरिवार। वे देश विदेश घूम चुके हैं। संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार भी उनको मिल चुका है। कई साल पहले जब दिल्ली के श्रीराम सेंटर में कठपुतली रेपरटरी थी तो पूरन वहां भी थे। लेकिन अभी भी, लगभग पचहत्तर साल के हो जाने के बाद भी उनका कोई स्थायी आवास नहीं है। यही स्थिति कई अन्य पारंपरिक कठपुतली कलाकारों की है। आप अगर आनंद विहार के पास इस इलाके के ट्रांजिट कैंप के इलाकों में जाएं और वहां कई पारंपरिक कलाकारों के अस्थायी आवासों को देखे तो ये एहसास होगा कि हमारे पांरपरिक कलाकार किस असह्य स्थितियों में रह रहे फिर भी अपनी कला को बचाए हुए हैं।

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वैसे पुतली की कला सिर्फ भारत में नहीं है। दुनिया के हर देश में है। जापान में तो बुनराकु नाम की पारंपरिक पुतली कला है वो एक शास्त्रीय कला है। विश्व कला जगत में वो जापान की पहचान भी है। पर, पूरन पूछते हैं क्या भारत में कठपुतली को एक शास्त्रीय कला का दर्जा मिल सकेगा? क्या अन्य यूरोपीय देशों की तरह कठपुतली की सार्वजनिक प्रतियोगिताएं होंगी? उनका कहना है कि प्रतियोगिताओं से भी माहौल बनता है। इसका सबसे बड़ा फायदा तो ये होता है इससे दर्शकों की बढ़ोतरी होती है और इस कला के गुणग्राहकों में इजाफा होता है। जब किसी कला के सहृदय बढ़ते हैं तो उसका सामाजिक आधार बढ़ता और उसके कलाकारों की भी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है। भारत में शहरी मध्यवर्ग के लोग भी अब इस कला में रूचि ले रहे हैं। वे भी इसे सीख रहे हैं। पर पारंपरिक कठपुतली कलाकार को न तो प्रतिष्ठा मिली है और न आर्थिक सुरक्षा।

पूरन का कहना है कि आज के भारत में कठपुतली के सामने मुख्य समय वही है जिसे सामान्य रूप से आधुनिकता बनाम परंपरा का संकट कहते हैं। कठपुतली कला में आधुनिकता आ रही है। विदेशों में जो भारतीय कठपुतली कलाकार जाते हैं और वहां अपने करतबों का प्रदर्शन करते हैं उससे उनमें आत्मविश्वास का संचार होता है। और वे वहाँ से कुछ सीखते भी है।

पर भारत आकर पाते हैं कि शहरी और महानगरीय जीवन में कठपुतली के लिए पर्याप्त स्पेस नहीं है। ऐसे में उनके सामने ये विकल्प होता है कि या तो फिर ग्रामीण और घूमंतू परिवेश में लौट जाएं या फिर महानगर मे टिके रहने के लिए संघर्ष करें।

वैसे विदेशों में भी भारतीय पुतली कलाओं के लिए आकर्षण बढ़ रहा है। कई विदेशी भारतीय कठपुतली कला को सीखने के लिए भारत आते हैं। पूरन भट्ट के यहां भी उसी ट्रांजिट कैंप में दुनिया के अलग अलग मुल्कों से प्रशिक्षण पाने के लिए लोग आते हैं। लेकिन पूरन भट्ट् जैसे कला गुरुओं के सामने सबसे बड़ी मुश्किल ये कि अपने समुदाय के आर्थिक भविष्य को कैसे सुनिश्चित करें। उनको राष्ट्रीय औऱ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा भी मिल गई पर नट- भांट समाज को सामाजिक सम्मान कब मिलेगा?

वैसे भारत कठपुतली या पुतली कला के हिसाब से एक समृद्ध देश है। केरल और कर्नाटक से लेकर असम और पश्चिम बंगाल की अत्यंत समृद्ध पुतली कला परंपराएं हैं। पर कठिनाई है ये है कि जैसे भारत रंग महोत्सव जैसे आयोजन में पूरे देश की नाट्य परंपराओं की संक्षिप्त ही सही, झांकी मिल जाती है वैसी पुतली कला को लेकर कोई राष्ट्रीय आयोजन नहीं होता। निजी प्रयासों से ईशारा पपेट फेस्टिवल जरूर होता है और उसकी अहमियत भी है लेकिन वहां भी संसाधनो की कमी है। पुतली कला भी भारतीय कला है और वो भी भारतीयता की एक पहचान बन सकती है। पर कैसे और कब? किस तरह?