श्रीराम सेंटर में मंचित नाटक 'अंतराल' की प्रस्तुति ने दर्शकों को रिश्तों, असमंजस और जीवन की गहराइयों से जोड़ दिया। जानें, अभिनय, निर्देशन और भावनात्मक प्रभाव का विश्लेषण।
किसी भी साहित्यिक कृति, विशेषकर उपन्यास और कहानी, को नाटक में बदलने के मुख्यत: दो तरीके हैं। पहला तो ये कि जस का तस किया जाए यानी निर्देशक अपनी तरफ से कुछ न जोड़े। न घटाए। सिर्फ इतना करे कि मूल रचना के मुख्य अंशों के दृश्यों में बांध दे। दूसरा ये कि विधा परिवर्तन के साथ कुछ नया जोड़ा या घटाया जाए। जो मूल रचना में नहीं है उसे भी कल्पना के सहारे लाया जाए। दोनों तरीकों के अपने लाभ और हानि हैं। मूल के प्रति समर्पित निर्देशक या रूपांतरकार के बारे में अक्सर कहा जाता है कि फलाँ ने रचना की आत्मा को सुरक्षित रखा। हालांकि ऐसा भी होता है कि आत्मा सुरक्षित रहे पर शरीर में किसी तरह का सौंदर्य़ न बढ़े। दूसरे तरीके में मूल रचना के मंतव्य में कुछ या कई चीजें जुड़ जाती हैं। पर निर्देशक पर आरोप लगता है कि उसने रचना की आत्मा को मार दिया। हालांकि बदला हुआ रूप मूल रचना को नए तरीके से निखार भी सकता है।
इस भूमिका की जरूरत इसलिए पड़ी कि इसके बिना हाल ही में श्रीराम सेंटर में हुए नाटक `अंतराल’ (निर्देशक- रजनीश मणि) का आस्वाद मुश्किल था। ये नाटक आधुनिक हिंदी के मूर्धन्य लेखक सच्चिदानंद वात्स्यायन `अज्ञेय’ के उपन्यास `नदी के द्वीप’ पर आधारित है। या ये कहें कि उससे प्रेरित है। अज्ञेय ने इसी नाम से एक कविता भी लिखी है। दोनों में दार्शनिक स्थापना एक ही है- मनुष्य समाज रूपी नदी में एक द्वीप की तरह है और उसे अपनी अस्मिता बनाए रखनी चाहिए और अगर उसका अस्तित्व नदी में विलयित हो जाए तो उसका वजूद ही खत्म हो जाएगा। कुल मिलाकर व्यक्ति और समाज में क्या रिश्ता होना चाहिए यही इसका कथ्य है। उपन्यास में ये बात कुछ चरित्रों के माध्मय से कही गई है। पर निर्देशक ने अपनी तरफ से आजादी भी ली है। यानी कुछ नई चीजें जोड़ी हैं। इस पर कुछ शुद्धतावादी अज्ञेय-प्रेमी सवाल भी खड़े कर सकते हैं। पर फिलहाल शुद्धतावादी नजरिए को छोड़ दें तो ये नाटक एक अच्छा प्रयोग था।
अज्ञेय के उपन्यास में मुख्य रूप से चार चरित्र हैं- भुवन (शुभम सिंह), रेखा (तनिषा रैना), गौरा (एनब खिजरा) और चंद्रमाधव (कमल मैडी)। भुवन एक भू- वैज्ञानिक है। लखनऊ प्रवास के दौरान उसकी निकटता रेखा नाम की महिला से होती है जो पहले से शादी शुदा है पर पति से अलग रहती है। भुवन और रेखा की मुलाकात का माध्मय बनता है चंद्र माधव, जो पेशे से पत्रकार है। फिर भुवन के जीवन में आती है गौरा जो काफी कम उम्र की है। भुवन उसे ट्यूशन भी पढ़ाता है। भुवन और गौरा करीब भी आने लगते हैं और उनके बीच एक जज्बाती रिश्ता बनने लगता है। पर दोनों पूरी तरह अपने अपने व्यक्तित्व को भुला नहीं पाते। गौरा संगीत साधना और अध्यापन में लग जाती है। चारो पात्र एक दूसरे से मिलते रहते हैं पर इनमें से कोई एक दूसरे से पूरी तरह जुड़ नहीं पाता। सब अपने जीवन में द्वीप की तरह ही रह जाते हैं। नदी के द्वीप की तरह। निर्देशक ने इसमें समुद्र की धारणा को भी जोड़ दिया है। नदियां आखिरकार समुद्र में मिल जाती है। पर क्या नदी के भीतर जो द्वीप हैं वे कभी समुद्र से जुड़ पाते हैं? या वे नदी में नाव चलाते रह जाते हैं? फिलहाल यहाँ बता दिया जाए कि नाटक में नाव चलाने का दृश्य रखा गया हो जो स्मोकस्क्रीन (धुएं का बादल) के सहारे दिखा गया है। ये दृश्य निर्देशक की अपनी कल्पना है और मूल रचना की कहानी को तो नहीं उसकी दार्शनिकता को आगे बढ़ाती है।
रजनीश ने अज्ञेय के उपन्यास में निहित दार्शनिक और वैचारिक स्थापनाओं को अलग ज़मीन देने की कोशिश की है। और थोड़ी सी समकालीनता देने का प्रयास भी किया हे। लखनऊ के जिस कमरे में चंद्रमाधव और भुवन रहते हैं उसे लेकर जो दृश्य बनाया गया है वो रोचक तो है, हंसाता भी है पर उसके संदर्भ फिल्मी हैं। चंद्रमाधव का अपने कमरे में अंडरवियर पहने रहना भुवन के लिए असमंजस की स्थिति पैदा कर देता है। भुवन जिससे प्रेम करता है उसके सामने मित्र की ये हरकत कुछ लोगों को अजीब लग सकती है। पर आजकल `क्रिएटिव लिबर्टी’ यानी कल्पनाशीलता की आजादी के नाम पर नाटकों और फिल्मों में बहुत सी चीजे ऐसी हो रही हैं जो आज के दर्शक को तो लुभावनी लगती है पर जो साहित्यिक समाज है उसे लग सकता है कि ये क्या है? पर तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि जिन चरित्रों को कोई कथाकार एक संजीदा नजरिए से पेश करता है उसे कोई निर्देशक मजाक की शैली मे भी पेश कर सकता है। चंद्रमाधव के साथ यहीं हुआ है। इस नाटक में।
वैसे रजनीश मणि खुद एक संजीदा निर्दशक हैं। वे हाल में ही राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक हुए हैं और दिल्ली में अपनी रगमंडली बनाकर रंगमंच की दुनिया में सक्रिय हैं। जब उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में यान ओत्चेनाशेक के चेक उपन्यास `रोमियो जूलियट और अंधेरा’ (अनुवाद- निर्मल वर्मा) पर अपना डिप्लोमा प्रॉडक्शन किया था तो उसे एक गंभीर प्रस्तुति माना गया था। इसमें उन्होंने गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता `अंधेरे में’ का भी इस्तेमाल किया था। मूल उपन्यास तब के चेकोस्लोवाकिया में नाजीवाद की विध्वंसक भूमिका के बारे में है जो दो प्रेमियों के जीवन को नष्ट कर देता है। रजनीश ने `अंधेरे में’ कविता का प्रयोग कर इस उपन्यास को वैश्विक के साथ साथ भारतीय परिप्रेक्ष्य भी दिया था। इससे ये भी पता चलता है कि रजनीश साहित्य के कितने गंभीर पाठक हैं। वैसे `अंतराल’ नाटक को उन्होंने कोरोना समय मे तैयार किया था। तब ये एक एकल प्रस्तुति के रूप में परिकल्पित हुआ था। बाद में इसमें कई और चीजें जुड़ती गई है। हो सकता है कि आनेवाली प्रस्तुतियों में कुछ और चीजें शामिल की जाएं। इसकी संभावनाएं हैं।
इतना कहने के बाद ये जोड़ना भी जरूरी होगा कि रजनीश को अपने नाटकों के तकनीकी पक्ष पर ध्यान देना चाहिए। खासकर प्रकाश परिकल्पना पर। इसी प्रस्तुति में कुछ ऐसे दृश्य थे जिनमें प्रकाश नाव पर भी पड़ रहा था और बेडरूम पर भी। ये कुछ बेमेल विवाह जैसा हो गया था। पर इस नाटक का संगीत पक्ष बहुत प्रभावशाली रहा। कुछ फिल्मी गानो को भी उपयोग में लाया गया ताकि जजबाती दृश्यों में गहराई आए। नाटक के अंत में जावेद अख्तर की एक रचना को गायन में बांधकर (संगीत संयोजन- अनिता बितालू, गायक- गरिमा दिवाकर, आदित्य भंडारी) जिस तरह प्रस्तुत किया गया वो भावनात्मक रिश्तों को गहन करने वाला रहां। इस गीत की आरंभिक पंक्तियां इस तरह हैं-
कभी यूं भी तो हो
दरिया का साहिल हो
पूरे चांद की रांत हो
और तुम आओ
कभी यूं भी तो हो परियों की महफिल हो
कोई तुम्हारी बात हो
और तुम आओ