socialist and secular Constitution: आरएसएस संविधान की प्रस्तावना से 'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द हटाने की मांग कर रहा है। इस पर बहस छिड़ गई है। स्तंभकार वंदिता मिश्रा आरएसएस के इस कुतर्क की खामियां बता रही हैं।
राष्ट्रीय स्वयं संघ(RSS), 26 जून को ‘इमरजेंसी के 50 वर्ष’ मना रहा था। इस दौरान RSS के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि इमरजेंसी के दौरान संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए गए शब्द "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" पर चर्चा की जानी चाहिए। होसबाले का इशारा इन शब्दों को प्रस्तावना से हटाने के लिए था। लेकिन उन्होंने इसके लिए जो तर्क पेश किया वो बेहद हल्का, कम जानकारी भरा,सतही और ग़ैर-जरूरी था।
होसबाले ने कहा, “प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द आपातकाल के दौरान जोड़े गए थे। बाद में इन्हें हटाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। इसलिए, यह चर्चा होनी चाहिए कि क्या ये शब्द बने रहें या नहीं। मैं यह बात बाबासाहेब अंबेडकर के नाम पर बने इस भवन (अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर) में कह रहा हूं, जिनके बनाए संविधान की प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे।”
होसबाले की इन बातों का समर्थन करने के लिए दो केंद्रीय मंत्री-जितेंद्र सिंह और शिवराज सिंह चौहान- भी सामने आ गए। उनका भी तर्क कमोबेश यही है कि आंबेडकर के संविधान में ये शब्द नहीं थे।
इस तर्क की निरर्थकता को समझने के लिए आइए इतिहास की एक छोटी सी यात्रा कर लीजिए। ‘इमरजेंसी’ के दौरान, 1976 में, तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के लगभग 40 अनुच्छेदों में संशोधन किया, 14 नए अनुच्छेद जोड़े गए, 2 नए भागों को जोड़ा गया और साथ ही एक नई सूची-7वीं, को भी जोड़ा गया। इसी संशोधन द्वारा प्रस्तावना में भी तीन नए शब्द जोड़े गए- ‘सेक्युलर’(पंथ-निरपेक्ष), ‘सोशलिस्ट’(समाजवादी) और ‘इंटीग्रिटी’(अखंडता)।
जब इंदिरा गांधी सरकार ने इमरजेंसी हटाई तो चुनाव करवाए गए। श्रीमती गांधी चुनाव हार गईं और जनता पार्टी (उस समय के सभी ग़ैर-कांग्रेसी राजनैतिक दल) ने सरकार बनाई। 1978 में 44वें संविधान संशोधन द्वारा जनता पार्टी सरकार ने 42वें संशोधन के तमाम प्रावधानाओं को उलट दिया। लेकिन नई सरकार बनने के बाद भी संविधान की प्रस्तावना में किए गए संशोधनों को छेड़ा भी नहीं गया। मतलब सेक्युलर, सोशलिस्ट शब्दों को नहीं हटाया गया।
होसबाले और दोनों केंद्रीय मंत्रियों का तर्क असल में अवसरवाद में लिपटा हुआ तर्क है। जनता पार्टी सरकार में देश की तमाम कांग्रेस विरोधी पार्टियां शामिल थीं। इसमें भारतीय जनता पार्टी का पुराना स्वरूप, जनसंघ भी शामिल था।
सवाल यह उठता है कि जब तमाम अनुच्छेदों को बदला जा रहा था तब देश के सम्पूर्ण विपक्ष ने सेक्युलर और सोशलिस्ट जैसे शब्दों को बदलने में रुचि क्यों नहीं दिखाई? आखिर क्यों अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जैसे जनसंघ के नेताओं ने सरकार पर इन शब्दों को हटाने के लिए दबाव नहीं डाला? इसके उलट भी जब 1980 में जनसंघ अपने नए कलेवर में भारतीय जनता पार्टी के रूप में अस्तित्व में आई तो उसने अपने संविधान और नियमों में सेक्युलर और सोशलिस्ट जैसे शब्दों को शामिल करना भी जरूरी समझा। आखिर क्यों?
ऐसे तमाम अवसर आए भी जब पार्टी के बड़े नेता जैसे अटल बिहारी बाजपेयी ने सार्वजनिक मंचों से सेक्युलरिज्म को, देश की विविधता की जरूरत के रूप में देखा। सवाल यह है कि आज ऐसा क्या हो गया है? आज ऐसा क्या बदल गया है? पार्टी को आज इस बदलाव की जरूरत क्यों महसूस हो रही है? इन दो शब्दों से बीजेपी और संघ के अस्तित्व को खतरा क्यों महसूस हो रहा है?
होसबाले के तर्क की निरर्थकता देखिए। होसबाले का कहना है कि सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द डॉ अंबेडकर द्वारा बनाये गए संविधान में नहीं थे। यह कैसा तर्क है? क्या होसबाले साहब को नहीं पता कि अभी तक संविधान में 106 संशोधन हो चुके हैं, इसका मतलब संशोधनों में जोड़ी या हटाई गई बातें डॉ अंबेडकर के संविधान से सीधे ताल्लुक़ नहीं रखतीं हैं, तो क्या इन संशोधनों को भी इसी आधार पर ख़त्म करने की माँग की जा सकती है?
क्या किसी बात को संविधान से हटाने का आधार यह हो सकता है कि वो संविधान के निर्माण के समय उसमें नहीं थी? जिन्हें संविधान समझ आता है वो जानते हैं कि इन्ही संविधान निर्माताओं ने ही अनुच्छेद-368 का भी प्रावधान किया था, जो संविधान में संशोधन से संबंधित है। हर कोई जानता था कि एक ‘परफेक्ट संविधान’ लिखा जाना असंभव है। यह एक गतिमान किंतु सैद्धान्तिक दस्तावेज है जिसमें बदलाव आवश्यक हैं लेकिन ये बदलाव संविधान की सैद्धांतिक सीमा के पार नहीं जाने चाहिए।
संविधान की इसी सैद्धांतिक सीमा का निर्धारण किया गया 1973 के केशवानंद भारती मामले में। इस केस में 13 जजों की अबतक की सबसे बड़ी सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने बहुमत से यह फैसला दिया कि संविधान में हर किस्म का संशोधन किया जा सकता है, संविधान का कोई भी हिस्सा संशोधन से परे नहीं है लेकिन यह संशोधन किसी भी हालत में संविधान के ‘मूल ढांचे’ के ख़िलाफ़ नहीं होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने संप्रभुता, लोकतंत्र, पंथ-निरपेक्षता, समाजवाद, न्यायिक समीक्षा, कानून का शासन, संघीय ढांचा, स्वतंत्रता, समता, और बंधुत्व आदि को ‘मूल ढांचे’ का हिस्सा माना है।
साथ ही यह भी कहा कि यह सूची स्थिर नहीं है इसमें समय समय पर अन्य बातें भी जोड़ी जा सकती हैं। मूल ढांचे के सिद्धांत ने न सिर्फ़ पंथ-निरपेक्षता और समाजवाद जैसे विचारों को भारत के मूल चरित्र में संवैधानिक रूप से जोड़ा, बल्कि उसके साथ साथ संसद की असीमित शक्ति को भी सैद्धांतिक घर्षण से नियंत्रण में रखा। यह घर्षण इतना खतरनाक़ और प्रभावी है कि मोदी सरकार में इसे लेकर उच्च दर्जे की बेचैनी, तनाव और छटपटाहट है।
भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता रह चुके और वर्तमान में भारत के उपराष्ट्रपति जो ख़ुद भी सुप्रीम कोर्ट में वकील रहे हैं, उन्हें संविधान के ‘मूल ढांचे का सिद्धांत’ बिल्कुल पसंद नहीं है। उन्हें नहीं पसंद है कि कोई सत्ता के कामों पर लगाम लगाए। क्योंकि अगर मूल ढांचे का सिद्धांत जीवित रहता है तो सरकार चाहे कितने ही बड़े बहुमत से क्यों न संसद में बैठे, वह मनमर्जियाँ नहीं कर सकेगी। उनकी मनमर्जी कानून तो बना सकेगी लेकिन उसी दायरे में, जो संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है। संविधान का मूल ढाँचा असल में राजनैतिक उच्छृंखलता के गले में न्याय और संविधान का पट्टा है, जिसे काटा जाना असंभव है।
अच्छी बात यह है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने मूल ढांचे की बात सिर्फ़ केशवानंद मामले में ही नहीं कहीं। कोर्ट ने बार-बार इस बात को अपने तमाम फैसलों में सिद्धांत के रूप में इस्तेमाल किया और मूल ढांचे की सूची में कई अन्य बातों को भी जोड़ा। एस आर बोम्मई,1994 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान में मौजूद अनुच्छेद -14, 15, 16 और 26-30 धर्म के आधार पर होने वाले भेदभाव पर प्रतिबंध लगाते हैं और धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। कोर्ट ने 42वें संविधान संशोधन के बारे में कहा कि ‘सेक्युलर’ शब्द इन अनुच्छेदों को ताक़त प्रदान करता है।
इस तरह कोर्ट ने सेक्युलरिज्म को समानता के अधिकार के साथ जोड़ दिया। इसके बाद 2017 में अभिराम सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि चुनावों के दौरान धर्म, जाति या समुदाय के नाम पर वोट मांगना एक भ्रष्ट आचरण है, क्योंकि यह भारतीय लोकतंत्र की सेक्युलर-मूल भावना को कमजोर करता है। इस फैसले ने फिर से यह स्पष्ट किया कि सेक्युलरिज्म संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न हिस्सा है। इस संबंध में सबसे नया फैसला बलराम सिंह मामले, 2024 में आया। तत्कालीन मुख्य न्यायधीश जस्टिस संजीव खन्ना ने सोशलिस्ट और सेक्युलर शब्दों को हटाने की इस याचिका को ख़ारिज करते हुए कहा कि ये दोनों ही संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा हैं।
याचिका में वही निरर्थक तर्क थे जो आरएसएस महासचिव होसबाले लेकर आए हैं। याचिका में कहा गया था कि प्रस्तावना की अंगीकरण तिथि 26 नवंबर, 1949 होने के कारण उसमें संशोधन नहीं किया जा सकता। अदालत ने स्पष्ट किया कि संविधान एक “जीवंत दस्तावेज” है और अनुच्छेद 368 के तहत संसद को प्रस्तावना में संशोधन का अधिकार प्राप्त है। इसके साथ ही, अदालत ने यह भी कहा कि याचिकाएं दाखिल करने में इतने वर्षों की देरी याचिककर्ता की विश्वसनीयता को कमजोर करता है।
रही बात अंबेडकर के प्रस्तावना में सोशलिज्म शब्द के विरोध की, तो अंबेडकर ने तो हिंदू कोड बिल (अप्रैल,1947) भी पेश किया था। क्या आरएसएस ने इसे स्वीकार किया था? क्या आरएसएस के अनुषंगी संगठनों ने इसे स्वीकार किया था? अपनी सुविधा से तर्क गढ़ने से वैचारिक निर्बलता सामने आती है आरएसएस और इसके ‘विचारकों’ को इससे बचना चाहिए। यदि साहस है तो खुलकर बताना चाहिए कि उन्हें सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्दों से क्या परेशानी है?
आख़िर भारत के एक समाजवादी गणराज्य होने में आरएसएस को क्या समस्या है? यदि भारत में किसी धर्म विशेष को तरजीह नहीं दी जाती है, सभी धर्मों के लिए सम्मान है और अल्पसंख्यकों को कुछ संरक्षण प्रदान किए गए हैं तो इससे आरएसएस को कौन सा खतरा महसूस हो रहा है?
आर एस एस को चाहिए कि अब इन अफ़वाही खतरों से देश को डराना बंद करें। भारत इस समय कई अन्य चुनौतियों का सामना कर रहा है, और ये चुनौतियाँ झूठी नहीं हैं खयाली नहीं हैं। भारत में वैक्सीनेशन सही अवस्था में नहीं है। भारत में ‘जीरो डोज़’ बच्चों की संख्या दुनिया में दूसरे स्थान पर है। भारत में लगभग 14 लाख ऐसे बच्चे हैं जिन्हें डिप्थीरिया, पर्ट्यूसिस और टिटनस का टीका नहीं लगा है। भारत आज़ादी के बाद की सर्वाधिक असमानता झेल रहा है। भारत में युवाओं की मौत का सबसे बड़ा कारण ‘आत्महत्या’ है।
शिक्षित बेरोजगारी पर लगाम लगाने में सरकार नाकाम है। हर साल लगभग 5 लाख लोग भारत में टीबी से मर जा रहे हैं। स्वास्थ्य सुविधाएं इतनी बदतर अवस्था में हैं कि लोग ओझा, स्वामी, चमत्कारी, झोला छाप वैद्य और बाबाओं की शरण में जा रहे हैं, हजारों की संख्या में सरकारी स्कूल ख़त्म किए जा रहे हैं और प्राइवेट स्कूलों की संख्या बढ़ाई जा रही है। सरकारों का ध्यान अंबानी-अडानी जैसे धनपतियों की ओर जाकर टिक गया है जबकि 85 करोड़ भारतीय आज भी निम्नस्तरीय सरकारी राशन खाने के लिए मजबूर हैं।
आरएसएस, यदि आपको देश बदलने का इतना ही शौक है तो ऊपर लिखी तमाम समस्याओं को बदलना चाहिए, और इसके लिए आपको कुछ सकारात्मक कोशिश करनी चाहिए। अपनी कट्टर धार्मिक कुंठा के लिए, देश की एकता और विविधता को थामे रहने वाले सिद्धांतों को छिन्न-भिन्न करने वाले अभियान मत चलाइए, इससे भारत खतरे में आ जाता है, भारत की अखंडता खतरे में आ जाती है।