भारत के कई राज्य पार्टी समाज में बदल रहे हैं। पार्टी समाज किसी भी देश के लिए भयानक स्थिति होती है। जाने माने चिंतक और स्तंभकार अपूर्वानंद का यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने समझाया है कि पार्टी समाज के मायने क्या हैं और उसका मूल चरित्र क्या है। जरूर पढ़िए और पढ़वाइएः
महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों के बाद राज्य में क्या होगा? राजनीतिशास्त्री सुहास पलसीकर ने आशंका व्यक्त की है कि महाराष्ट्र पार्टी-समाज में बदल जाएगा।
पार्टी-समाज कैसा होता है,यह पूर्व सोवियत संघ या चीन या भारत में भारतीय जनता पार्टी शासित गुजरात या मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश या वाम मोर्चा के शासन के वक्त के पश्चिम बंगाल को देखकर समझा जा सकता है। समाज की प्रत्येक संस्था पर एक पार्टी का क़ब्ज़ा समाज को पार्टी समाज में बदल देता है।
जैसा सुहास पलसीकर ने लिखा है, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दायरों में एक पार्टी का वर्चस्व पार्टी-समाज को जन्म देता है। उनका कहना है कि इस समय राजनीतिक मोर्चे पर भाजपा का पूरा क़ब्ज़ा दीखता है। कॉरपोरेट जगत से उसके घनिष्ठ रिश्ते और मध्य वर्ग पर उसकी पकड़ आर्थिक क्षेत्र में उसके वर्चस्व को सुनिश्चित करेगी। सामाजिक क्षेत्र में यह उम्मीद की जा रही थी कि जातिगत विभाजन इस वर्चस्व के रास्ते में रुकावट बनेगा। लेकिन उसकी काट करने के लिए भाजपा सारी जातियों के ऊपर हिंदुत्व का सांस्कृतिक छाता तान देगी। वैसे भी ग़ैर सवर्ण जातियों में इस वर्चस्व का जवाब देने की उम्मीद जिन प्रक्रियाओं से थी वे धीरे धीरे दम तोड़ रही हैं।
अंबेडकरवादियों में सामाजिक परिवर्तन की इच्छा ख़त्म सी हो गई है और वे अपने संघर्ष को प्रतिनिधित्व के प्रश्न तक सीमित रखकर संतुष्ट हैं।वारकरी संप्रदाय जैसे भक्ति आंदोलन की परंपराएँ जीवंत नहीं रह गई हैं और उनका हिंदुत्वकरण करना आसान है।शिवाजी जैसे चरित्र को भी संकीर्ण मुसलमान विरोधी प्रतीक में बदल दिया गया है।सबसे चिंता की बात यह है कि हिंदुओं के बड़े हिस्से को अपनी सांस्कृतिक परंपराओं की विविधता को ख़त्म करने की आर एस एस या भाजपा की साज़िश से कोई परेशानी नहीं है, बल्कि वे हिंदूपन के इस नए संस्करण से ख़ुद को शक्तिशाली महसूस कर रहे हैं। इस प्रकार समाज के जीवन के हर हिस्से पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भाजपा का पूरा क़ब्ज़ा होता दीखता है।
यह कहना शायद पूरी तरह मुनासिब नहीं कि समाज का हर तबके पर यह वर्चस्व स्थापित कर लिया जा सकता है। अल्पसंख्यकों, ख़ासकर मुसलमानों को तरह तरह के क़ानून बना कर जकड़ दिया जाएगा। उनके ख़िलाफ़ सड़क की हिंसा को राजकीय समर्थन दिया जाएगा। उनके ख़िलाफ़ मीडिया का दिन रात चलनेवाला दुष्प्रचार उन्हें कोने में धकेल देगा। प्रतिरोध की उनकी किसी भी कोशिश का अपराधीकरण किया जाएगा। इस तरह उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने का सुख हिंदुओं के एक हिस्से को दिया जाएगा।
गुजरात में भाजपा के 25 साल के शासन या मध्य प्रदेश में तक़रीबन 20 साल के भाजपा शासन ने उन राज्यों के समाज को भाजपा समाज में बदल दिया है। अगर कोई दल लंबे वक्त तक सत्ता में रहे तो यह क़तई स्वाभाविक है कि हर कोई उससे संरक्षण हासिल करने की होड़ करेगा। उस दल के छोटे बड़े नेता प्रभावी हो उठते हैं। थानों, तहसील या ज़िला प्रशासन में उनकी पैठ इस कदर हो जाती है कि मामूली से मामूली काम के लिए भी उनकी शरण जाना होता है और वे हर राजकीय गतिविधि भी नियंत्रित करने लगते हैं। फिर स्थानीय मंदिर समिति हो या स्कूल समिति, उसी दल के नेताओं को नेतृत्व दे दिया जाता है। इस तरह समाज एक पार्टी की भाषा बोलने लगता है। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा या अब तृणमूल पार्टी के शासन का पश्चिम बंगाल पार्टी समाज कहा जाएगा।
भाजपा का पार्टी समाज वाम मोर्चे या तृणमूल के पार्टी समाज से भिन्न है। क्योंकि इसका अर्थ अनिवार्य रूप से यह है कि इसमें अल्पसंख्यकों, ख़ासकर मुसलमानों का जीवन दूभर कर दिया जाएगा।
उनके ख़िलाफ़ घृणा प्रचार तो भारत के हर हिस्से में अब आम रिवाज सा बन गया है और हिंदू इसे उचित मानने लगे हैं, किसी न किसी बहाने उनपर शारीरिक हिंसा, सामूहिक रूप से उन पर हमला, उनके धार्मिक स्थलों पर हमला, यह तक़रीबन रोज़मर्रा की बात बन जाती है। मुसलमान विधायी प्रक्रियाओं से तो बाहर कर ही दिए जाते हैं, राजकीय संसाधनों तक उनकी पहुँच सीमित हो जाती है। वे साझा समाज से भी धीरे धीरे और कई बार हिंसक तरीक़े से बाहर किए जाते हैं। वे समाज के किनारे पर जीवन व्यतीत करने को बाध्य कर दिए जाते हैं।
संक्षेप में भाजपा का पार्टी समाज एक अर्थ में मात्र हिंदू पार्टी समाज है। मुसलमान अगर इसमें शामिल होना चाहते हैं तो ग़ुलाम बनकर या पालतू बनकर रह सकते हैं।उनके जीवन को हर तरह से नियंत्रित करने का अधिकार हिंदुत्ववादी तत्त्वों को दे दिया जाता है।
मुसलमानों के लिए सबसे तकलीफ़देह है राजकीय तंत्र का हिंदुत्वकरण। पुलिस और प्रशासन मुसलमान विरोधी बल में बदल जाते हैं। बल्कि वे मुसलमानों को अपना दुश्मन ठहराते हैं।
हाल में संभल में मुसलमानों के ख़िलाफ़ की गई हिंसा इसका ताज़ा उदाहरण है। पुलिस अब मारे गए मुसलमानों को यह गरिमा देने को भी तैयार नहीं कि वे पुलिस के द्वारा मारे गए हैं। कहा जा रहा है कि ख़ुद मुसलमानों ने मुसलमानों को मारा है। यह 2019 के नागरिकता संशोधन क़ानून(सी ए ए ) के ख़िलाफ़ मुसलमानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान उन पर की गई हिंसा के बाद भी देखा गया। कोई 23 लोग मारे गए लेकिन पुलिस ने कहा कि उसकी गोली से कोई नहीं मारा गया है। यही नहीं कि वे विरोध नहीं कर सकते, वे अपने ख़िलाफ़ की गई हिंसा के बारे में बोल भी नहीं सकते। ऑल्ट न्यूज़ के मोहम्मद ज़ुबैर ने यति नरसिंहानंद के उस भाषण की तरफ़ सबका ध्यान दिलाया जिसमें वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा प्रचार कर रहा है। उत्तर प्रदेश पुलिस ने ज़ुबैर पर ही मुक़दमा दायर कर दिया। यह कहते हुए कि वे देश की एकता और संप्रभुता पर हमला कर रहे हैं। दो साल पहले भी एक दूसरे हिंदुत्ववादी ‘संत’ के मुसलमान विरोधी बयान पर ज़ुबैर ने कार्रवाई की माँग की थी। पुलिस ने आरोप लगाया कि ज़ुबैर ने उस हिंदू ‘संत’ के लाखों अनुयायियों की भावना को आहत किया है और समाज में वैमनस्य फैलाया है। उस मामले में भी पुलिस ने ज़ुबैर पर न सिर्फ़ मुक़दमा दायर किया बल्कि उन्हें गिरफ़्तार कर लिया।अगर मुसलमान घृणा का विरोध करता है तो उसे ही घृणा का प्रचारक बना दिया जाता है।
किसी एक राजनीतिक दल या समाज के एक हिस्से का मुसलमान विरोधी हो जाना अपने आप में बुरा है लेकिन जब पुलिस और प्रशासन मुसलमान विरोधी बल में बदल जाए तब मुसलमानों का जीवन असंभव हो जाएगा। अभी हमने न्यायपालिका में सामान्य हो रहे मुसलमान विरोध की तो बात ही नहीं की है। महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश बनेगा या मध्य प्रदेश या गुजरात या असम बनेगा,अब हमारा प्रश्न यही रह गया है।अब हम मुसलमान विरोधी घृणा और हिंसा के मामले में राज्यों का तुलनात्मक अध्ययन ही कर सकते हैं।