बात तो बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकालने की थी। देश के बड़े अखबारों ने चुनाव आयोग के सूत्रों के हवाले से लिखा था कि बिहार की मतदाता सूची में बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार से आये विदेशी नागरिकों की घुसपैठ हुई है। माहौल बन गया। और कहा गया कि चुनाव आयोग विशेष पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) के तहत इन्हें छांटेगा, हटाएगा और मतदाता सूची को ‘शुद्ध’ करेगा। लेकिन 24 जुलाई तक के आधिकारिक प्रेस नोट और ग्राउंड रिपोर्टों से जो सच निकलकर आया है, वह न सिर्फ़ चौंकाता है, बल्कि कई गंभीर सवाल भी उठाता है। उल्टे तथ्य बताते हैं कि इन्हीं बांग्लादेशी रोहिंग्याओं को भारत सरकार म्यांमार में खाद्य व अन्य सहायता भी देती है। यह कैसी दोहरी नीति? एक तरफ देश के भीतर 'घुसपैठिए' कहकर डर फैलाओ, दूसरी तरफ विदेश में उनके लिए घर बनवाओ और राशन भेजो।

याद करिए क्या कहा था मीडिया ने 

हिंदुस्तान टाइम्स (23 जुलाई 2025): "बिहार के मतदाता सूची पुनरीक्षण के दौरान नेपाल, बांग्लादेश और अन्य देशों के बड़ी संख्या में विदेशी नागरिक मिले हैं। चुनाव आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, 'जिन्हें मतदान का अधिकार नहीं होना चाहिए, वे भी सूची में शामिल हैं।'"
Zee News: "SIT जांच और SIR अभियान के दौरान बिहार के सीमावर्ती ज़िलों में बड़ी संख्या में विदेशी नागरिक मिले, जिनमें नेपाल और बांग्लादेश के नागरिक प्रमुख थे।" 

द हिन्दू (24 जुलाई 2025): "नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार से आये लोगों की पहचान की गई है, लेकिन इन्हें ड्राफ्ट मतदाता सूची में शामिल नहीं किया जाएगा।" 

अब इन खबरों के बाद किसी आम नागरिक को क्या लगेगा? यही कि राज्य की मतदाता सूची में विदेशी घुसपैठियों की भरमार है और चुनाव आयोग कोई कठोर कदम उठाने जा रहा है। लेकिन जब खुद चुनाव आयोग की प्रेस विज्ञप्तियों को पढ़ें तो तस्वीर कुछ और ही बनती है।
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लेकिन ECI की प्रेस विज्ञप्तियों में वो कहां हैं? 

भारत निर्वाचन आयोग की 22, 23 और 24 जुलाई की प्रेस विज्ञप्तियों (संख्या 261, 265, 266) में कहीं भी 'नेपाल', 'बांग्लादेश' या 'म्यांमार' का नाम नहीं लिया गया है। न ही यह स्पष्ट किया गया है कि कितने विदेशी नागरिकों की पहचान की गई और उन्हें मतदाता सूची से निकाला गया। मतलब जो बातें 'सूत्रों' के हवाले से कही गई थीं, वो आयोग की आधिकारिक भाषा में अदृश्य हैं। तो क्या ये सारे घुसपैठिए रातों-रात भूत बनकर उड़ गए? या फिर मुद्दा बस इतना था कि चुनाव से पहले माहौल बनाना है? अब सोचिए, चुनाव आयोग ने जिन 7.89 करोड़ मतदाताओं का सत्यापन किया, उनमें से कुल 52.9 लाख नाम हटाए गए। ये नाम चार श्रेणियों में आए:
  • 20 लाख मृत घोषित किए गए, 
  • 28 लाख ऐसे पाए गए जो स्थायी रूप से बाहर जा चुके हैं, 
  • 7 लाख दोहरे नाम वाले, 
  • 11,484 ऐसे जिनका कोई पता नहीं।
अब सोचिए, जिन 11,484 का कोई अता-पता नहीं, क्या वही सारे 'विदेशी घुसपैठिए' हैं? अगर हां, तो इसका मतलब बिहार की कुल मतदाता संख्या 7.8 करोड़ में ये सिर्फ 0.014% हैं। यानी एक प्रतिशत का सौवां हिस्सा भी नहीं। फिर इतना शोर क्यों?

क्या यह फिर से एक चुनावी एजेंडा था? 

भारतीय जनता पार्टी पिछले चार दशकों से बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा उठाती रही है। असम, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, बिहार, झारखंड से लेकर महाराष्ट्र तक हर चुनाव में यह मुद्दा गर्म किया जाता है। और फिर चुनाव बीतते ही मुद्दा ठंडा हो जाता है। कार्रवाई कहां होती है, कोई नहीं जानता। 

असम NRC: 2019 में 19 लाख लोगों को 'संदिग्ध' बताया गया, लेकिन इनमें से किसी को भी आज तक डिपोर्ट नहीं किया गया। क्यों? जवाब किसी के पास नहीं। न असम सरकार देती है न केंद्र।
दिल्ली चुनाव: 2020 में कहा गया कि केजरीवाल सरकार बांग्लादेशियों को बचा रही है। क्या किसी को पकड़ा गया? आंकड़े गायब। 

झारखंड चुनाव: वहां कहा गया कि पूरा राज्य बांग्लादेशी घुसपैठियों से खतरे में है। फिर क्या कार्रवाई हुई? अंधेरा। अब 2025 में बिहार की बारी है। फिर वही स्क्रिप्ट, वही संवाद।
बीजेपी IT सेल प्रमुख अमित मालवीय ने 13 जुलाई को X पर लिखा: "बिहार की मतदाता सूची में बांग्लादेश, म्यांमार, और नेपाल के नागरिकों के नाम मिले। विपक्ष इन्हें वोट बैंक के लिए बचाने की कोशिश कर रहा है।" मतलब बात अब भी आंकड़ों की नहीं, आशंकाओं की हो रही है।

विपक्ष का आरोप: NRC की आड़ में मतदाता हटाने की साजिश 

RJD और कांग्रेस ने इसे 'बैकडोर NRC' बताया। उनका आरोप है कि गरीब, अल्पसंख्यक और प्रवासी मजदूरों को निशाना बनाया जा रहा है ताकि चुनाव में असर हो। वहीं बीजेपी इसे 'घुसपैठ' के खिलाफ जरूरी कदम बता रही है।

चुनाव आयोग ने भी साफ किया कि अब तक की जांच में यह साबित नहीं हुआ कि हटाए गए नामों में कितने बांग्लादेशी, रोहिंग्या या नेपाली थे। यानी घुसपैठियों का हौवा था, हकीकत नहीं।

भारत की विदेश नीति बनाम घरेलू राजनीति 

अब सबसे दिलचस्प हिस्सा यही है: जिस रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठ पर देश में इतना हो-हल्ला होता है, उन्हीं रोहिंग्याओं के लिए भारत सरकार विदेश में करोड़ों की सहायता देती है।
म्यांमार में: 

  •  2017 में 25 मिलियन USD की सहायता राकाइन राज्य में घर बनाने के लिए दी गई 
  • 2023 तक अतिरिक्त 5 मिलियन USD पुनर्वास और दवाइयों के लिए
बांग्लादेश में: 
  • 2017 से 2025 तक 7,000 टन खाद्य सामग्री भेजी गई 
  • 15 मिलियन USD की वित्तीय सहायता भी दी गई जिसमें 2024 में शिक्षा और शेल्टर के लिए 2 मिलियन USD शामिल थे
  • 2017 से 2025 तक 7,000 टन खाद्य सामग्री भेजी गई 
  • 15 मिलियन USD की वित्तीय सहायता भी दी गई जिसमें 2024 में शिक्षा और शेल्टर के लिए 2 मिलियन USD शामिल थे

अब सवाल यह है कि जिसे आप अपने देश में घुसपैठिया कह रहे हो, उसी के लिए विदेश में घर, राशन और दवा क्यों भेज रहे हो?

बीजेपी और RSS के बयान: डर फैलाना बनाम धरातल पर हकीकत
बीजेपी और RSS के नेताओं ने लगातार बयान दिए:

  • 2014: मोदी ने कहा "बांग्लादेशी घुसपैठिए भारत छोड़ दें" 
  • 2017: अमित शाह बोले "रोहिंग्या देश की सुरक्षा के लिए खतरा" 
  • 2019: भागवत ने कहा "अवैध प्रवासी सांस्कृतिक खतरा हैं" 
  • 2024: शाह ने झारखंड से रोहिंग्याओं को निकालने की बात की
लेकिन इन बयानों के बाद क्या हुआ?
भारत में, बीजेपी सरकार रोहिंग्या को शरणार्थी दर्जा नहीं देती और उन्हें अवैध प्रवासी मानती है। 2017 में, गृह मंत्रालय ने 40,000 रोहिंग्या को निर्वासित करने की योजना बनाई। 2024 में, मणिपुर में 8 रोहिंग्या को निर्वासित करने का प्रयास किया गया, जो म्यांमार के अस्वीकार करने पर रुक गया।
आंकड़े कहते हैं: 

  • 2005-2013 (UPA): 82,728 बांग्लादेशी निर्वासित 

  • 2014-2017 (NDA): सिर्फ 1,822 

  • 2024 में: 295 2025 में अब तक: 100
ऑपरेशन सिंदूर: मई 2025 से शुरू हुआ, जिसमें करीब 2,000 लोगों को वापस भेजा गया। मुख्य रूप से गुजरात (लगभग 1,000), दिल्ली, हरियाणा, असम, महाराष्ट्र, और राजस्थान से। बिहार में कितने बांग्लादेशी या रोहिंग्या हैं, या थे, कोई स्पष्ट डेटा नहीं।

बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र: घुसपैठ पर वादे   

बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणापत्रों में अवैध प्रवास, विशेष रूप से बांग्लादेशी और रोहिंग्या, पर सख्त कार्रवाई का वादा किया है। यह केंद्र और राज्यों दोनों के घोषणापत्रों में शामिल रहा: 2014 लोकसभा घोषणापत्र: बीजेपी ने "नेबरहुड फर्स्ट" नीति की बात की, लेकिन अवैध प्रवास पर सख्ती का वादा किया। इसमें कहा गया, "हम अवैध घुसपैठ को रोकने के लिए सीमा सुरक्षा और कानून को मजबूत करेंगे।" रोहिंग्या का उल्लेख नहीं था, लेकिन बांग्लादेशी प्रवास पर जोर था।

हर चुनाव से पहले डर और भ्रम का खेल 

जब-जब चुनाव आता है, घुसपैठियों की चर्चा होती है, अखबारों में सुर्खियां बनती हैं, नेता बयान देते हैं। लेकिन न कोई सूची आती है, न आंकड़े। न गिरफ्तारी होती है, न निर्वासन। 
और वहीं दूसरी ओर, विदेश में उन्हीं लोगों के लिए भारत सरकार मदद भेजती है, घर बनवाती है, राशन भेजती है।
तो सवाल वही है: क्या ये सब बस एक चुनावी स्क्रिप्ट है?
अगर नहीं, तो फिर घुसपैठिए हर बार चुनाव के समय ही क्यों मिलते हैं, और चुनाव खत्म होते ही क्यों ग़ायब हो जाते हैं? अगर हां, तो जनता को यह समझना होगा कि यह कोई सुरक्षा नीति नहीं, बल्कि एक सोची-समझी चुनावी रणनीति है। वोट चाहिए, तो डर दिखाओ। घुसपैठ का डर, सांस्कृतिक संकट का डर, पहचान मिटने का डर। और जब डर काम कर जाए, तब वही घुसपैठिए विदेश में भारत की छवि बचाने का जरिया बन जाते हैं।
देश की राजनीति में इससे बड़ा विरोधाभास और क्या होगा?
और ऐसे समय में, जब लोकतंत्र का भविष्य धुंध में दिख रहा हो — याद आता है पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन का वो वाक्य, जो आज भी गूंजता है: 
"चुनाव न सिर्फ फ्री और फेयर हों, बल्कि दिखें भी।"