दो दिन पहले एक पोस्ट लिखी थी- बॉम्बे हाइकोर्ट ने सीपीएम को मुंबई में फिलिस्तीन के मुद्दे पर प्रदर्शन करने की इजाज़त नहीं दी। उल्टे यह सलाह दे डाली कि सीपीएम देश के ज़रूरी मुद्दों पर प्रदर्शन करे। इस पर आने वाली टिप्पणियों से समझ में आया कि लोग किस तरह मूल मुद्दों से भटक कर अपने पूर्वग्रहों के ही शिकार हो जाते हैं।

भारत में वाम दलों की रणनीतिक नाकामियों से परिचय और वामपंथ से बढ़ते मोहभंग की कहानी बहुत आसान है। यह सामान्य ज्ञान हर किसी के पास है कि भारत में वाम दुर्ग कैसे सिमटता गया है और वाम विचारधारा कैसे भटकावों की शिकार हुई है। लेकिन मुद्दा यह नहीं था। मुद्दा राजनीतिक दलों के लोकतांत्रिक अधिकार को जबरन सीमित करने की पुलिसिया कोशिश के न्यायिक उपचार का था। अपने इस दायित्व में अदालत विफल रही और वह राष्ट्रीय सवालों का वही सरकारी झुनझुना बजाने लगी जो केंद्र की घोर दक्षिणपंथी सरकार के भक्त बजाते रहते हैं।
वाम मोर्चा फिलिस्तीन के मुद्दे पर प्रदर्शन करे या यूक्रेन के मुद्दे पर- यह राजनीतिक फ़ैसला लेने का उसे अधिकार है। आप उसके फ़ैसले की खिल्ली उड़ाना चाहें तो उड़ा सकते हैं। लेकिन वाम वैचारिकी सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर ही प्रदर्शन नहीं करती है, उसने दिल्ली की झुग्गी-बस्तियों पर बुलडोज़र चलाए जाने के ख़िलाफ़ भी आंदोलन किया है और बेलगाम सांप्रदायिक ताकतों के उद्धत व्यवहार के बीच अल्पसंख्यकों का यह भरोसा बनाए रखने की लगातार कोशिश की है कि इस देश में उनकी नागरिकता पर कोई ख़तरा नहीं है।
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आज अदालत ने सीपीएम को रोका है, कल वह दूसरे दलों को भी रोकेगी। नागरिक संगठनों पर प्रतिबंध का एक सिलसिला लगातार जारी है और मानवाधिकार कार्यकर्ता जेलों में डाले जा रहे हैं। इस प्रक्रिया में अदालतें जितना अवरोध बनती दिखती है उससे कहीं ज़्यादा सहयोग करती नज़र आती हैं। इस पर हमें चिंतित होना चाहिए, लेकिन हम ख़ुश हैं कि मुंबई में फिलिस्तीन के मुद्दे पर प्रदर्शन नहीं हो पाया।

दरअसल इसमें भी हमारा सांप्रदायिक चरित्र दिखता है। फिलिस्तीन का ज़िक्र आते ही जब आप यूक्रेन का राग छेड़ते हैं या विदेशी मुद्दों पर दिखने वाली संवेदनशीलता पर मुंह बिचकाते हैं तो इसके पीछे एक ख़याल यह भी होता है कि फिलिस्तीन तो मुसलमानों का मुद्दा है। जबकि ग़ज़ा में जो मानवीय त्रासदी घट रही है, उसका प्रतिकार न करना मनुष्यता के एक ज़रूरी मुद्दे से मुंह मोड़ना है।

हम एक ग्लोबल हो चुकी दुनिया के नागरिक हैं। अब वाकई टोकियो में तितली पंख फड़फड़ाए तो न्यूयॉर्क में तूफ़ान आने की बहुत क्षीण ही सही- लेकिन संभावना हो सकती है। अब सरहदों के आर-पार जो कुछ हो रहा है, उस पर और गंभीरता से विचार करने और प्रतिक्रिया जताने का समय है।
पहलगाम पर हमला हुआ तो हमने पाकिस्तान में दाख़िल होकर कार्रवाई की और दुनिया भर के चुनिंदा देशों में अपने मिशन भेजे- यह बताने को कि यह कार्रवाई क्यों की गई। तब किसी ने अदालत जाकर यह नहीं कहा कि दुनिया भर को बताने की क्या ज़रूरत है। किसी ने यह नहीं पूछा कि सरकार इस क़वायद में इतने साधन क्यों बरबाद कर रही है।
यूक्रेन हो या ग़ज़ा, युद्ध कहीं भी स्वीकार्य नहीं है। लेकिन ग़ज़ा में जो हो रहा है, वह युद्ध नहीं, भीषण नरसंहार है। जो लोग बम से नहीं मर रहे, वे भूख से मर रहे हैं, भगदड़ से मर रहे हैं। अनाज के लिए लगी क़तारों पर बम गिराए जा रहे हैं। 

बहुत आत्मकेंद्रित समाज धीरे-धीरे आत्महंता समाजों में बदलते जाते हैं। उन्हें उनका उपभोग मार डालता है। उन्हें उनकी असंवेदनशीलता मार डालती है। इससे बचना है तो प्रतिरोध करना होगा। ग़ज़ा पर करें, यूक्रेन पर करें, पर्यावरण और धरती को बचाने के लिए करें, सांप्रदायिकता से मुठभेड़ के लिए करें, ख़ुद न कर सकें तो जो कर रहे हैं उनको कुछ हमदर्दी से देखें। यह सीपीएम या वमपंथ के लिए नहीं, उस लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है जिसे हम अपनी उदासीनता में खोते जा रहे हैं और कुछ कम मनुष्य होते जा रहे हैं।
(प्रियदर्शन के फेसबुक पेज से साभार)