इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं जब दुनिया की एक सामान्य धारा टूट जाती है। 22 सितम्बर 2025 को ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और पुर्तगाल तथा अगले दिन फ्रांस द्वारा फ़िलस्तीन को औपचारिक मान्यता देना पश्चिमी कूटनीति में वही ऐतिहासिक मोड़ है। ले मोंडे ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा, "यह वह क्षण है जब यूरोप ने अमेरिकी कूटनीति की अनुगामी बनने से इनकार कर दिया और अपनी नैतिक रीढ़ की खोज की।"

अब तक फिलीस्तीन को मान्यता देने वाले देशों की कुल संख्या 150+ हो गई है, जिसमें अरब, एशियाई और अफ्रीकी देश पहले से ही शामिल थे। और अब पुर्तगाल, एंडोरा, बेल्जियम, लक्जमबर्ग, माल्टा और मोनाको आदि के साथ अधिकांश लैटिन अमेरिकी और यूरोप के प्रमुख देश भी जुड़ गए हैं। द गार्जियन के संपादकीय ने इसे "उपनिवेशवाद के भूत से मुक्ति का क्षण" बताया।

इसराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने तुरंत तीखी प्रतिक्रिया दी: "आप आतंकवाद को पुरस्कृत कर रहे हैं। फ़िलस्तीनी राज्य कभी स्थापित नहीं होगा।" उनकी झल्लाहट सुरक्षा चिंता से ज़्यादा अलगाव के भय को दर्शाती है। वहीं, फ़िलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने इसे "सही बनाम ग़लत की जीत" बताया। यह भाषा बीसवीं सदी के उपनिवेश-विरोधी संघर्षों की याद दिलाती है।

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पश्चिमी एकजुटता का अंत 

दुनिया की नजरें अब स्पेन, इटली और जर्मनी पर टिकी हैं, जो EU के प्रमुख सदस्य हैं। यदि ये देश भी मान्यता देते हैं, तो यह इसराइल के लिए बड़ा कूटनीतिक झटका होगा और अमेरिकी विदेश नीति की भी एक बड़ी विफलता मानी जाएगी। जापान के अखबार असाही शिंबुन ने लिखा, "यह बहुध्रुवीय विश्व का जन्म है, जहां एकल महाशक्ति का युग समाप्त हो रहा है।"
 व्हाइट हाउस ने फिलीस्तीन को मान्यता की इन घोषणाओं को "अनुपयोगी और असमय" बताया है। एक वरिष्ठ अमेरिकी प्रवक्ता ने कहा, "हम मानते हैं कि फिलीस्तीन राज्य की स्थापना वार्ता के माध्यम से होनी चाहिए, न कि एकतरफा मान्यता से।" चाइना डेली ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "अमेरिकी विशेषाधिकार का अंत वैश्विक लोकतंत्र की शुरुआत है।"

यूरोपीय देशों के कदम इसराइल के साथ पारंपरिक संबंधों को तो बदल ही रहे हैं, ये वैश्विक राजनीति में बदलाव का भी साफ संकेत देते हैं। यह सिर्फ़ विदेश नीति का बदलाव नहीं, बल्कि अमेरिका-केन्द्रित पश्चिमी ढाँचे के टूटने का प्रमाण है।

ब्रिटेन, जिसने 1917 की बाल्फ़ोर घोषणा से इसराइल के निर्माण की नींव रखी थी, आज अमेरिका की छाया से अलग खड़ा है। कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे करीबी सहयोगी अब स्वतंत्र कूटनीति अपना रहे हैं। पुर्तगाल ने भी यूरोप की नैतिक आवाज़ में शामिल होकर संदेश दिया है कि पश्चिम में अब "एक ही स्वर" नहीं रहा। इस्राइली अख़बार हारेत्ज़ ने लिखा: "अब यह केवल फ़िलस्तीन का प्रश्न नहीं; यह पश्चिम की एकजुटता का प्रश्न है।"

ट्रम्प की विदेश नीति और यूरोपीय प्रतिक्रिया 

डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियों ने पश्चिम में दरार पैदा की। NATO सदस्यों से सुरक्षा खर्च की मांग, व्यापार युद्ध और इसराइल के प्रति एकतरफ़ा झुकाव ने अमेरिकी नेतृत्व को कमज़ोर किया। ट्रम्प का वह बयान— "मैं तुम्हारी सुरक्षा की लागत वहन नहीं कर सकता"—ने सहयोगियों में अविश्वास पैदा किया। यूरोपीय देशों ने अब स्वतंत्र सुरक्षा पहल शुरू की हैं। फ़िलस्तीन की मान्यता इसी कड़ी में अमेरिका के लिए सबसे बड़ा झटका है। फाइनेंशियल टाइम्स ने टिप्पणी की, "ट्रम्प की 'अमेरिका फर्स्ट' नीति का अंतिम परिणाम 'अमेरिका अलोन' साबित हो रहा है।"

भारत की सन्तुलित कूटनीति: दोस्ती और सिद्धान्त के बीच 

भारत ने हमेशा फ़िलस्तीन के अधिकारों का समर्थन किया, लेकिन इसराइल के साथ रणनीतिक साझेदारी भी बढ़ाई। यह संतुलन नेहरू-इंदिरा-वाजपेयी-मनमोहन की परंपरा का ही विस्तार है, परंतु मोदी सरकार ने इसे नए स्तर पर पहुँचाया। 4 जुलाई 2017 को टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित संयुक्त लेख में मोदी और नेतन्याहू ने लिखा: "हमारे दोनों देश जटिल हैं। योगासन की तरह, जो एक ही समय में जमीन पर टिके रहने और ऊपर उठने में सहायक होते हैं, हम कई चुनौतियों का सामना करते हैं।" इस योग सादृश्य ने भारत-इज़राइल रिश्तों की नई बुनियाद रखी।
मगर ठीक छह महीने बाद, 10 फरवरी 2018 को मोदी रामल्ला पहुँचे। यासिर अराफात (अबू अम्मार) के मकबरे पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उन्होंने कहा: "मुझे अबू अम्मार के मकबरे पर श्रद्धांजलि अर्पित करने का अवसर मिला... यह एक अविस्मरणीय अनुभव रहा।" राष्ट्रपति महमूद अब्बास के सामने उन्होंने स्पष्ट किया: "भारत को उम्मीद है कि फ़िलस्तीन जल्द ही शांतिपूर्ण माहौल में एक संप्रभु और स्वतंत्र देश बनेगा।"

प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि भारत अपने विकास योगदान को "एनर्जेटिक फिलिस्तीन राज्य के निर्माण की बुनियाद" मानता है। मोदी इस्राइली धरती पर कदम रखने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री थे, तो फिलीस्तीन के रामल्ला जाने वाले भी पहले प्रधानमंत्री थे। हालांकि, हाल के वर्षों में भारत ने इसराइल के साथ भी अपने रिश्तों को मजबूत किया है। सितम्बर 2025 में, भारत और इसराइल ने एक द्विपक्षीय निवेश समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिससे व्यापार और आर्थिक सहयोग को बढ़ावा मिला है।

भारत की भूमिका 

 भारत ने हाल के वर्षों में कई बार फ़िलिस्तीन के पक्ष में आधिकारिक रूप से खड़े होकर संदेश दिया है कि उसका समर्थन केवल शब्दों तक सीमित नहीं। भारत ने इसराइल से दोस्ती और फिलिस्तीन को समर्थन दोनो दिखाये हैं। फ़िलिस्तीनी राज्य के समर्थन में स्पष्ट बयान और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वोट, और इसराइल के साथ गहरा सहयोग।
2017 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत ने अमेरिका की उस पहल के ख़िलाफ़ वोट किया था जिसमें राष्ट्रपति ट्रंप ने येरुशलम को इसराइल की राजधानी के रूप में मान्यता देने की कोशिश की।

दिसंबर 2017 में अमेरिका ने एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए जब यरुशलम को इसराइल की राजधानी के रूप में मान्यता दे दी, तो इस फैसले के विरोध में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मिस्र ने एक प्रस्ताव लाया, जिसमें अमेरिका से इस मान्यता को वापस लेने को कहा गया। 18 दिसंबर 2017 को अमेरिका ने इस प्रस्ताव पर वीटो तक का इस्तेमाल किया - जो उसका पिछले 6 सालों में पहला वीटो था। लेकिन ट्रंप इस प्रस्ताव के विरोध में अकेले रहे। जबकि सुरक्षा परिषद के बाकी सभी सदस्य देशों समेत भारत ने भी उनका समर्थन नहीं किया। मोदी से नाराजगी की शुरुआत यहीं से होती है। वह राष्ट्रपति ट्रंप के पहले कार्यकाल का पहला साल था।

इसके ठीक तीन दिन बाद, 21 दिसंबर 2017 को तुर्की और यमन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसी मुद्दे पर एक प्रस्ताव रखा। भारत ने अमेरिका और इसराइल के विरोध के बावजूद तुर्की और यमन के प्रस्ताव का समर्थन किया। 127 देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया, जबकि केवल 9 देश विरोध में रहे।

2017 में यरुशलम को इसराइल की राजधानी मानने के अमेरिकी प्रस्ताव के खिलाफ वोट देने से पहले के 10 वर्षों (2007-2017) में भी भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में फिलीस्तीन के पक्ष में 21 में से 21 बार वोट दिया था। ये सभी वोट फिलीस्तीनियों के मानवाधिकारों, इज़राइली बस्तियों की अवैधता, और फिलीस्तीन में मानवीय स्थिति से जुड़े प्रस्तावों पर थे।

भारत के इस फैसले के पीछे तीन मुख्य कारण थे: पहला, फिलिस्तीन के प्रति भारत का ऐतिहासिक समर्थन; दूसरा, अरब देशों के साथ रणनीतिक संबंधों को बनाए रखना; और तीसरा, यरुशलम के मुद्दे पर शांतिपूर्ण वार्ता द्वारा हल निकालने की भारत की स्थिति को बरकरार रखना।

भारत ने इसराइल की बस्तियों के विस्तार के खिलाफ वोट डाला था। 14 नवंबर 2023 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत ने 'पूर्वी यरुशलम और सीरियाई गोलान समेत कब्जे वाले फिलिस्तीन क्षेत्र में इसराइली बस्तियां' शीर्षक वाले प्रस्ताव पर भारत ने बांग्लादेश, भूटान, चीन, फ़्रांस, जापान, मलेशिया, मालदीव, रूस, साउथ अफ़्रीक, श्रीलंका और ब्रिटेन आदि के साथ मिलकर इसराइल के ख़िलाफ़ वोट किया।

2023 के वोट के बाद संबंधों में सूक्ष्म तनाव 

14 नवंबर 2023 को भारत के फिलीस्तीन समर्थक वोट ने इज़राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू को स्पष्ट रूप से निराश किया। दोनों देशों की गरमाहट औपचारिकता में बदल गई। नेतन्याहू प्रशासन की "निराशा" ने भारत-इज़राइल संबंधों में एक सूक्ष्म तनाव की शुरुआत कर दी। इसराइली मीडिया में "विश्वासघात" जैसे शब्द सामने आए, जबकि भारत ने "कूटनीतिक मौन" बनाए रखा। इसने इसराइल को स्पष्ट संदेश दिया: भारत बिना शर्त सहयोगी नहीं बनेगा। इसराइल के खिलाफ भारत के इस वोट के बाद दोनों देशों की यात्राओं और वार्ताओं में एक स्पष्ट सतर्कता देखी गई।

इसराइल-भारत में रक्षा सहयोग और कई करार हुए 

"बाज़ार और खरीददार सबको चाहिए" - बस यह वास्तविकता कायम रही। 2023 की वोटिंग के तुरंत बाद जनवरी 2024 में इसराइली कंपनी IAI ने भारतीय नौसेना को $120 मिलियन के समुद्री ड्रोन सौदे की आपूर्ति जारी रखी। मार्च 2024 में इसराइली ड्रिप सिंचाई प्रौद्योगिकी का नया करार हुआ। सितंबर 2024 में इसराइली रक्षा मंत्री की यात्रा के दौरान हरमोनियम-3 एयर डिफेंस सिस्टम पर चर्चा हुई। नवंबर 2024 में साइबर सुरक्षा सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर हुए।
भारत की नीति स्पष्ट रही: "हथियार खरीदना विचारधारा नहीं, जरूरत है।" इसराइल का रुख था: "ग्राहक को उत्पाद बेचना व्यवसाय है।" फिलहाल यही व्यावहारिकता दोनों देशों के रिश्तों की बुनियाद बनी हुई है।

विरोधाभास की जड़ें 

भारत की यह नीति ऐतिहासिक रूप से सुसंगत रही है। नेहरू ने कहा था: "शांति का कोई विकल्प नहीं है।" इंदिरा गांधी ने 1982 में फ़िलस्तीन के अधिकारों का समर्थन किया। अटल बिहारी वाजपेयी ने 24 मार्च 1977 को रामलीला मैदान में घोषणा की: "अरबों की ज़मीन पर इसराइल का कब्ज़ा वापस होना चाहिए।" मनमोहन सिंह ने 2007 में UN में दोहराया कि भारत "एक संप्रभु, स्वतंत्र फ़िलस्तीन राज्य" चाहता है।
परंतु मोदी काल में यह संतुलन एक नए दबाव में है। घरेलू स्तर पर हिन्दू-मुस्लिम राजनीति ने इसराइल के प्रति झुकाव को बढ़ावा दिया है। विदेश मंत्रालय के बयानों में फ़िलस्तीन का समर्थन साफ़ है, पर सार्वजनिक स्वीकारोक्ति से परहेज किया जाता है।

नया वैश्विक समीकरण और भारत की चुनौती

जब अमेरिका अलग-थलग पड़ रहा है, चीन और रूस इस रिक्त स्थान को भरने को तैयार हैं। कार्नेगी मास्को सेंटर के विशेषज्ञ के शब्दों में: "फ़िलस्तीन पर पश्चिम की हर दरार रूस के लिए ग्लोबल साउथ में नेतृत्व का सीमेंट बन जाती है।"

भारत के सामने अब वही सवाल है जो 1948 में ट्रूमैन के इसराइल मान्यता के समय था: क्या वह पश्चिम के साथ जाएगा, या अपनी ऐतिहासिक स्थिति कायम रखेगा? फ़िलस्तीनी कवि महमूद दरवेश ने लिखा था: "हम एक लाइलाज बीमारी से पीड़ित हैं- उम्मीद।" आज यह उम्मीद केवल रामल्ला और ग़ज़ा में नहीं, बल्कि लंदन, ऑटावा, कैनबरा और लिस्बन में भी पल रही है और शायद कल रोम में भी। पश्चिम का यह दरार शुरू हो चुका है। यह शांति की ओर ले जाएगा या और गहरे विभाजन की ओर, आने वाले वर्षों में यही वैश्विक राजनीति का निर्धारण करेगा।

भारत को अब सन्तुलन से आगे बढ़कर स्पष्ट नैतिक रुख़ अपनाना होगा। केवल कूटनीतिक शब्दावली से न तो हमारी ऊँचाई बढ़ेगी और न ही स्वतंत्रता मज़बूत होगी। जब पश्चिम तक फ़िलस्तीन का समर्थन कर रहा है, तो भारत की ऐतिहासिक जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।