फार्मा इंडस्ट्री में भी एआई
इलाज के मामले में ही नहीं, दवाएं बनाने में भी दुनिया भारत की कद्र करती है, लेकिन इस बात के संदर्भ स्पष्ट होने चाहिए। सीधे ‘मेडिकल और फार्मा इंडस्ट्री का पावरहाउस’ बोल देने से गलतफहमी की गुंजाइश रह जाती है। भारत के डॉक्टरों की दुनिया में अच्छी ख्याति रही है लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि प्राइवेट मेडिकल चेन्स की बढ़ती मेहरबानियों के बावजूद विकसित देशों की तुलना में इलाज यहां आज भी सस्ता पड़ता है। इस क्षेत्र में भारत की एक प्रसिद्धि दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल के लिए भी है लेकिन इसकी चर्चा प्रायः मरीजों की लाचारी से जुड़कर होती है।
रही बात फार्मा इंडस्ट्री की तो भारत की स्थिति सिर्फ जेनरिक दवाओं के मामले में बेहतर मानी जाती है। जेनरिक दवा, यानी पश्चिम में काफी पहले खोज ली गई जिन दवाओं के पेटेंट खत्म हो जाते हैं, उन्हें थोड़ा फॉर्म्यूला बदलकर या साथ में कोई और चीज फेंटकर बना दी गई दवा, जो स्वभावतः सस्ती पड़ती है। ध्यान रहे, दवाओं की कीमत में सबसे ज्यादा हिस्सा उनकी खोज और क्लिनिकल ट्रायल पर आई लागत का होता है और कंपनियां कुछ समय तक मनॉपली प्रॉफिट (अकेले विक्रेता का मुनाफा) कमा लेने के बाद ही किसी और को उसे बनाने की इजाजत देती हैं।
जड़ से नई दवाएं बनाकर बाजार में लाने का श्रेय काफी लंबे समय से मुख्यतः तीन ही देशों को जाता रहा है- अमेरिका, फ्रांस और स्विट्जरलैंड। जाहिर है, दवा उद्योग का मुनाफा भी सबसे ज्यादा इन्हीं के हिस्से आता है। लेकिन नई दवाएं खोजने और जेनरिक दवाएं बनाने के अलावा फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री का एक तीसरा दायरा भी है।
1980 से एक बड़े औद्योगिक केंद्र के रूप में चीन का उभार शुरू हुआ तो कुछ जोर उसने केमिकल इंडस्ट्री में भी लगाया। नई दवाओं की खोज करना उसके एजेंडा पर नहीं था। बस दवाएं बनाने में काम आने वाले रसायन सस्ते से सस्ते में बना कर थोक में बेचने का तरीका उसने खोज निकाला। नतीजा यह कि भारत समेत दुनिया भर की दवा कंपनियां सामान्य दवाओं के केमिकल उससे टनों में खरीदकर मिलीग्राम्स में पैकेजिंग-ब्रांडिंग-मार्केटिंग कर रही हैं।
यह किस्सा पिछले चार-पांच वर्षों में ही बड़ी तेजी से बदलने लगा है। विज्ञान और तकनीकी के मामलों में बदलावा इतने चमत्कारिक ढंग से होते नहीं, लेकिन पता नहीं कैसे कुछ ऐसा हो गया है कि दवा उद्योग में ‘डाउन द लाइन’ समझे जाने वाले चीन की गिनती अचानक ‘टॉप ऑफ द लाइन’ मुल्कों में होने लगी है। मतलब यह कि थोक भाव में दवाओं के केमिकल बनाने वाले इस देश की पहचान अचानक बिल्कुल नई दवाएं बनाने वाले देश के रूप में बनने लगी है। यह भी कमाल की बात है कि ऐसा होने में मुख्य भूमिका आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की बताई जा रही है, जो अमेरिका की एक अद्यतन खोज है। इस बदलाव की तह में जाने से पहले एक नजर इसे बयान करने वाले तथ्यों पर।
नई दवाओं की खोज के मामले में 2019 तक चीन की स्थिति विश्व अर्थव्यवस्था में उसकी हैसियत को देखते हुए काफी नीचे थी। फार्मा इंडस्ट्री में दुनिया के कुल ‘इनोवेशन पाइपलाइन असेट्स’ (दवाओं की खोज में लगे हुए संसाधन) का 10 प्रतिशत ही उसके पास था। छह साल भी नहीं गुजरे और अभी यह सीधे बढ़कर 30 प्रतिशत हो गया है। एक नीति के तहत अपनी रिसर्च लैब्स द्वारा खोजी गई ‘संभावित दवाओं’ और प्रक्रियाओं (प्लेटफॉर्म्स) का लाइसेंस चीन ने विदेशी दवा कंपनियों को बेचने का फैसला किया है। बायोटेक लाइसेंसिंग के इस धंधे में चीन का हिस्सा 2023-24 में पूरी दुनिया का 21 प्रतिशत था, जो अभी, 2025 में छलांग लगाकर 32 प्रतिशत हो गया है।
एस्ट्राजेनेका, फाइजर और सनोफी जैसी बड़ी दवा कंपनियों ने अभी हाल में सीएसपीसी, एक्सटालपी और हेलिक्सॉन जैसे बिल्कुल नए-नए चीनी स्टार्ट-अप्स से अरबों डॉलर के लाइसेंस खरीदे हैं।
कहीं किसी कैंसर-रोधी दवा के लिए, कहीं गठिया जैसी किसी ऑटोइम्यून डिजीज के ट्रीटमेंट के लिए। खुद चीनी इन दवाओं के कारोबार में जाकर सैकड़ों अरब डॉलर की सालाना कमाई कर सकते थे, लेकिन इंटरनेशनल ट्रायल और नाकामी का सारा जोखिम वे अभी इन ऊंची दुकानों पर ही छोड़ दे रहे हैं। अपने प्रयोगों के लिए उनके पास 60 करोड़ स्वास्थ्य बीमा धारकों का लंबा-चौड़ा बेस है, जिन पर क्लिनिकल ट्रायल का डेटा एक समानांतर दुनिया का दरवाजा उनके लिए खोले हुए है।
कृत्रिम बुद्धि संबंधी अपने लेखों में यह बात मैं दोहराता रहा हूं कि पैटर्न पकड़ना ही एआई की बुनियाद है। बड़े डेटासेट पर काम करने वाले बायोमेडिकल एआई मॉडल ऐसे आंकड़ों से भी बड़े-बड़े मायने निकाल लेते हैं, जिन्हें हम अपने रेग्युलर हेल्थ चेक-अप में फालतू मानकर इधर-उधर फेंक देते हैं। मसलन, एक हीमोग्राम में बीसेक संख्याएं निकलकर आती हैं। उनमें कोई आंकड़ा बोल्ड हुआ तो लोगों का ध्यान उसपर जाता है। डॉक्टर के लिए भी मायने उसी के होते हैं। लेकिन अगर मशीन लर्निंग से किसी खास कैंसर के 1000 मरीजों में इन डेटा का कोई पैटर्न बिना किसी बड़े बदलाव के भी खोजा जा सके तो उस कैंसर का रुझान बायोप्सी से पहले ही पकड़ा जा सकता है। फार्मा रिसर्च में सक्रिय चीन के एआई बेस्ड स्टार्ट-अप बीमारियों और दवाओं के रिश्ते इसी तरह खोज रहे हैं।
हमारे देश में योजना आयोग को भंग करके उसकी जगह नीति आयोग नाम की एक संस्था कायम की जा चुकी है, लेकिन चीन में योजना आयोग आज भी न केवल बचा हुआ है बल्कि पंचवर्षीय योजनाएं आज भी उसके विकास की धुरी हैं। 2025 से 2030 के लिए पेश की गई पंचवर्षीय योजना में सरकारी फंडिंग और सपोर्ट के लिहाज से ‘एआई ड्रग डिस्कवरी’ को प्राथमिकता दी गई है। टेंसेंट, बाइदू, बाइटडांस और अलीबाबा जैसी चीन की ताकतवर टेक-कंपनियां भी हेल्थ डेटासेट्स के खजाने और अपनी वैज्ञानिक जनशक्ति का महत्व अच्छी तरह जानती हैं।
यही वजह है कि वे दवाओं के क्षेत्र में उभर रही रिसर्च कंपनियों को फाइनेंस कर रही हैं या अपनी तरफ से ही ऐसी कंपनियां शुरू भी कर रही हैं। इस पंचवर्षीय योजना में मिलने वाला तगड़ा सरकारी समर्थन 2030 आते-आते ऐसी स्टार्ट-अप कंपनियों को दवाओं से जुड़े शोध की महाशक्ति बना सकता है। अमेरिकी, फ्रांसीसी और स्विस फार्मा कंपनियों के लिए अभी इनसे लाइसेंस खरीदना फायदे का सौदा जरूर है लेकिन आगे यही उन्हें हौआ लगने लगेंगी।