2 जनवरी 1975 को बिहार के समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर एक बम विस्फोट ने देश को झकझोर दिया था। इस हमले में केंद्रीय रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की जान चली गई। यह आज़ाद भारत में किसी केंद्रीय मंत्री की पहली हत्या थी। लगभग पांच दशक बाद यह मामला फिर से सुर्खियों में है। बीजेपी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे ने इस हत्याकांड की जाँच दोबारा कराने की माँग उठाई है। बिहार चुनाव के पहले इस माँग के सियासी मतलब भी निकाले जा रहे हैं। ललित नारायण मिश्र बिहार के क़द्दावर नेता थे।
ललित नारायण मिश्र कौन थे?
ललित नारायण मिश्र अपने दौर के करिश्माई नेता थे जिन्हें बिहार के मिथिलांचल में प्यार से 'ललित बाबू' कहा जाता था। उनका जन्म 2 फरवरी 1923 को सुपौल जिले के बलुआ गांव में हुआ था। ललित बाबू ने दरभंगा से पढ़ाई शुरू की और बाद में पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एमए किया।
1940 के दशक में कॉलेज के छात्र रहते हुए ललित बाबू स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण से प्रेरित होकर उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। उस समय बिहार स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रमुख केंद्र था। ललित बाबू ने मिथिलांचल के युवाओं को संगठित किया, रैलियां निकालीं, ब्रिटिश शासन के खिलाफ पर्चे बांटे और पुलिस की लाठियां भी सहीं। उनकी बेबाक आवाज और संगठन क्षमता ने उन्हें युवा नेताओं में लोकप्रिय बनाया।
नेहरू के सचिव बनने की यात्रा
स्वतंत्रता के बाद ललित नारायण मिश्र ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ अपनी सियासी पारी शुरू की। 1940 के दशक के अंत में वे बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिन्हा और अनुग्रह नारायण सिन्हा के करीबी सहयोगी बने। उनकी बुद्धिमानी, भाषण शैली और संगठन क्षमता ने कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का ध्यान खींचा। 1951 में वे दरभंगा जिले से बिहार विधानसभा के लिए चुने गए और जल्द ही बिहार सरकार में संसदीय सचिव बने।
1950 के दशक के मध्य में जवाहरलाल नेहरू ने उनकी प्रतिभा को पहचाना। 1957 में ललित बाबू को नेहरू का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया। यह उनके करियर का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था।
नेहरू के साथ काम करते हुए उन्होंने विदेश नीति और आर्थिक नीतियों पर योगदान दिया, खासकर मिथिलांचल और बिहार के विकास के लिए केंद्र से फंड लाने में उनकी भूमिका अहम थी। उन्होंने झंझारपुर-लौकहा और भपटियाही-फारबिसगंज रेल लाइनों के सर्वेक्षण को मंजूरी दिलाई, मिथिला चित्रकला को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाई और नेपाल-भारत कोसी समझौते को आगे बढ़ाया। उनकी मेहनत ने उन्हें इंदिरा गांधी के करीबी बनाया, और 1973 में वे रेल मंत्री बने। उनकी लोकप्रियता उस समय चरम पर थी, और कुछ लोग उन्हें भविष्य का प्रधानमंत्री भी मानते थे। लेकिन फिर वह दुखद घटना घटी।
समस्तीपुर हत्याकांड
2 जनवरी 1975 को समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर ललित नारायण मिश्र समस्तीपुर-मुजफ्फरपुर ब्रॉडगेज रेल लाइन के उद्घाटन के लिए पहुंचे थे। उनके साथ उनके भाई जगन्नाथ मिश्र और कई अन्य कांग्रेस नेता मौजूद थे। भाषण के बाद जैसे ही वे मंच से उतरे, एक ग्रेनेड विस्फोट हुआ। ललित बाबू गंभीर रूप से घायल हो गए। उन्हें इलाज के लिए दानापुर रेलवे अस्पताल ले जाया गया, लेकिन ट्रेन को 14-16 घंटे की देरी हुई, जो सामान्य रूप से 7 घंटे में पहुंच जानी चाहिए थी। इस देरी ने कई सवाल खड़े किए। 3 जनवरी 1975 को ललित बाबू ने दम तोड़ दिया। यह आजाद भारत में किसी केंद्रीय मंत्री की पहली हत्या थी, जिसने पूरे देश को झकझोर दिया।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे विदेशी साजिश करार दिया। लेकिन सवाल यह था कि इस हत्याकांड के पीछे कौन था? क्या यह एक राजनीतिक साजिश थी?
जांच की प्रक्रिया और आनंदमार्गी
हत्याकांड की जांच पहले बिहार पुलिस की सीआईडी को सौंपी गई, लेकिन जल्द ही इसे केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को हस्तांतरित कर दिया गया। 9 जून 1975 को सीबीआई ने जांच शुरू की और 1 नवंबर 1975 को पटना की एक अदालत में आरोपपत्र दाखिल किया।
सीबीआई ने दावा किया कि हत्या के पीछे आनंदमार्गी संगठन का हाथ था, जो अपने नेता प्रभात रंजन सरकार (आनंदमूर्ति) की गिरफ्तारी का बदला लेना चाहता था।
आनंदमार्गी कौन?
आनंदमार्ग एक सामाजिक-आध्यात्मिक संगठन है, जिसकी स्थापना 1955 में प्रभात रंजन सरकार (आनंदमूर्ति) ने की थी। इसका मुख्यालय पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में आनंद नगर (बाबा नगर) में है। संगठन योग, ध्यान, तंत्र-मंत्र और सामाजिक सुधार पर जोर देता है। प्रभात रंजन सरकार ने प्रोग्रेसिव यूटिलाइजेशन थ्योरी (प्राउट) का प्रतिपादन किया, जो संसाधनों के प्रगतिशील उपयोग पर आधारित एक समाजवादी-साम्यवादी विकल्प था।
1960 और 1970 के दशक में आनंदमार्ग तेजी से फैला, लेकिन इसका अनुशासित और केंद्रीकृत ढांचा सरकार के लिए संदेह का कारण बना। 1971 में भारत सरकार ने संगठन की कुछ गतिविधियों को राष्ट्र-विरोधी और हिंसक करार देते हुए प्रतिबंध लगाया। 1973 में आनंदमूर्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई (जिन्हें बाद में सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया)। आपातकाल (1975-77) के दौरान आनंदमार्गियों को बड़े पैमाने पर गिरफ्तार किया गया।
सीबीआई ने आनंदमार्गी संगठन पर ललित बाबू की हत्या का आरोप लगाया। 1979 में सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमा दिल्ली स्थानांतरित कर दिया। 1981 में आरोप तय हुए, और 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने रोजाना सुनवाई का आदेश दिया। 18 दिसंबर 2014 को दिल्ली की एक अदालत ने चार लोगों—संतोषानंद, सुदेवानंद, गोपालजी (सभी आनंदमार्गी), और वकील रंजन द्विवेदी—को उम्रकैद की सजा सुनाई। लेकिन ललित बाबू के परिवार, खासकर उनकी पत्नी कामेश्वरी देवी और बेटे विजय कुमार मिश्र, ने इस फैसले को कभी स्वीकार नहीं किया। उनका मानना था कि आनंदमार्गी निर्दोष थे और असली साजिशकर्ता बड़े राजनीतिक नेता थे।
इंदिरा गांधी पर निशाना
ललित नारायण मिश्र की हत्या 1973-75 के उस दौर में हुई, जब इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ बिहार और गुजरात में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन जोर पकड़ रहा था। आपातकाल (1975-77) से पहले यह आंदोलन इंदिरा सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन चुका था। कुछ लोग मानते हैं कि इस हत्याकांड का इस्तेमाल इंदिरा गांधी को बदनाम करने के लिए किया गया। विपक्षी दलों, खासकर जनता पार्टी ने इसे 'लोकतंत्र बनाम तानाशाही' का मुद्दा बनाया।
1977 में इंदिरा गांधी की हार और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद ललित बाबू की पत्नी ने गृह मंत्री चरण सिंह को पत्र लिखकर और प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि हत्या के पीछे कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं का हाथ था।
उन्होंने जांच की दिशा पर सवाल उठाए। हालांकि, नई सरकार के लिए इस मुद्दे का महत्व कम हो गया था, क्योंकि इंदिरा को बदनाम करने की जरूरत खत्म हो चुकी थी। इस हत्याकांड ने जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन को बल दिया, जिसने 1977 में इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाने में अहम भूमिका निभाई।
बिहार की सियासत
ललित नारायण मिश्र हत्याकांड पचास साल बाद फिर से सुर्खियों में है। 2020 में ललित बाबू के पोते वैभव मिश्र ने सीबीआई को याचिका देकर नई जांच की मांग की। 2022 में दिल्ली हाई कोर्ट ने सीबीआई को इस पर जवाब देने का आदेश दिया। 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने वैभव मिश्र को दोषियों की अपील में सहायता करने की अनुमति दी। मई 2025 में बीजेपी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे ने भी दोबारा जांच की मांग उठाई, दावा करते हुए कि हत्या के पीछे तत्कालीन कांग्रेस सरकार के कुछ नेताओं का हाथ था और ट्रेन की देरी भी साजिश का हिस्सा थी।
कुछ लोग इसे बिहार विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखते हैं। बीजेपी के लिए बिहार में यह 'करो या मरो' की स्थिति है। पार्टी नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ गठबंधन में है, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर अपना दबदबा चाहती है। ऐसे में ललित बाबू हत्याकांड को गरमाकर यह दावा किया जा रहा है कि उनकी लोकप्रियता से इंदिरा गांधी घबराती थीं और उनकी हत्या एक साजिश थी। सवाल यह भी उठता है कि अगर यह साजिश थी, तो 1977-83 में जनता पार्टी की सरकार और 1998-2004 व 2014 से अब तक बीजेपी की केंद्र सरकार ने इसकी जांच क्यों नहीं कराई? क्या यह मुद्दा बिहार चुनाव के लिए सियासी हथियार है?