थोरियम से बिजली बनाना भारत का पुराना सपना रहा है। दुनिया में सबसे ज्यादा, टोटल का एक चौथाई थोरियम हमारे यहां केरल और उड़ीसा के समुद्र तटों की ललछौंह रेत में है। इसका इस्तेमाल औद्योगिक पैमाने पर परमाणु ऊर्जा बनाने में होने लगे तो भारत का बहुत बड़ा सिरदर्द मिट जाएगा। सन 2050 तक अपनी जरूरत की 30 फीसदी बिजली थोरियम से ही बनाने का लक्ष्य फाइलों में बाकायदा निर्धारित करके रखा गया है। लेकिन बात है कि बनने को नहीं आ रही। भारत में न्यूक्लियर रिसर्च की नींव रखने वाले डॉ. होमी जहांगीर भाभा ने इसके लिए तीन चरणों का कार्यक्रम बना रखा था, जो अभी तक मोटे तौर पर पहले चरण में ही अटका पड़ा है। हालांकि वैज्ञानिकों की एक पीढ़ी इसपर काम करके रिटायर हो चुकी है और दूसरी भी पेंशनयाफ्ता होने के करीब पहुंच रही है।

इस सुस्ती में चीन के परमाणु वैज्ञानिकों का थोरियम से नियमित बिजली बनाने, चार महीने से चालू पावर प्लांट का एक क्षण के लिए भी शटडाउन लिए बगैर उसकी रीफ्यूलिंग कर लेने की घोषणा भारतीय परमाणु वैज्ञानिकों को बाकी दुनिया में फैली अपनी बिरादरी से कहीं ज्यादा कष्ट दे रही होगी। कमाल की बात है कि चीनी रिसर्च टीम के अगुआ शू होंगजी ने अपनी कामयाबी की घोषणा करते हुए सिर्फ अपनी टीम की मेहनत के बारे में बताया। विज्ञान और तकनीकी में उसकी मेधा पर अलग से कोई टिप्पणी नहीं की। अप्रैल के दूसरे हफ्ते में यह बयान जारी करते हुए बुनियादी रिसर्च का श्रेय उन्होंने अमेरिका को दिया, फिर कछुए और खरगोश का किस्सा दोहराते हुए कहा कि 1960 के दशक में इस क्षेत्र में हुए काम को अमेरिकी बीच में ही न छोड़ देते तो सफलता उन्हीं के हिस्से आती।

आगे बढ़ने से पहले कुछ बातें एक ऊर्जा स्रोत के रूप में थोरियम से जुड़ी समस्याओं पर। दुनिया भर में परमाणु बिजली यूरेनियम से ही बनाई जाती है, हालांकि थोरियम इसका कहीं बेहतर और सुरक्षित स्रोत हो सकता है। विखंडन (फिशन) की प्रक्रिया में परमाणु बिजली इन दो ही चीजों से बनाई जा सकती है। प्रकृति में पाई जाने वाली कोई तीसरी चीज इस काम के लिए उपयुक्त नहीं है। प्लूटोनियम का इस्तेमाल विखंडन के ट्रिगर के रूप में किया जा सकता है, लेकिन यह खतरनाक पदार्थ एटमी रिएक्टरों में ही बनता है, प्रकृति में इसकी उपस्थिति नगण्य है। 

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दुनिया में थोरियम की मौजूदगी यूरेनियम की चार गुनी है, लेकिन एक तो इसको रेत और कुछेक गिने-चुने खनिजों से सघन रूप में निकालना बहुत मुश्किल है। दूसरे यह यूरेनियम की तरह खुद में एक विखंडनीय पदार्थ नहीं है। सबसे खास बात यह कि यूरेनियम की तुलना में थोरियम बहुत ऊंचे ताप पर पिघलता है। यानी जिस तरह यूक्रेन के चेर्नोबिल और जापान के फुकुशीमा में मेल्टडाउन की घटनाएं हुईं, वैसा कोई खतरा थोरियम के साथ नहीं है।

थोड़ी सी तकनीकी बात विखंडनीयता और रेडियोधर्मिता के बारे में। पिछली सदी के शुरुआती वर्षों में कुछ खास पदार्थों के एक पोशीदा गुण पर काम हुआ। पाया गया कि उनसे कुछ अनदेखे विकिरण निकलते हैं जो ठीके से पैक की हुई फोटोप्लेट्स पर भी धब्बे छोड़ देते हैं। और कोई जीव उनके पास देर तक रह जाए तो वह जानलेवा ढंग से बीमार हो जाता है। इस गुण को ‘रेडियो एक्टिविटी’ नाम दिया गया। फिर इन रेडियो एक्टिव पदार्थों पर अलग से काम करते हुए पाया गया कि इनमें कुछेक ऐसे होते हैं, जिनपर न्यूट्रॉन दागे जाएं तो वे न सिर्फ बड़ी मात्रा में ऊर्जा छोड़ते हुए हल्के पदार्थों में टूट जाते हैं, बल्कि इस प्रक्रिया में काफी सारे न्यूट्रॉन पैदा करके विस्फोटक किस्म की चेन रिएक्शन शुरू कर देते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध ने इस खोज को तुरत-फुरत एटम बम बनाने की ओर मोड़ दिया। 

ध्यान रहे, रेडियो ऐक्टिव पदार्थों की सूची बहुत लंबी है और उनके इस्तेमाल भी बहुत सारे हैं। लेकिन हल्के पदार्थों में टूट जाने वाले, विखंडनीय, फिसाइल पदार्थ गिने-चुने हैं और उनके सिर्फ दो इस्तेमाल हैं। या तो उनकी सांद्रता बढ़ाकर उनसे बम बना लिया जाए, या कम सांद्रता में उनका उपयोग परमाणु ऊर्जा के ईंधन के रूप में कर लिया जाए। एटम बम के लिए सबसे लोकप्रिय मैटीरियल प्लूटोनियम है जबकि यूरेनियम के बहुत सारे आइसोटोपों में कुछ फिसाइल हैं, कुछ नहीं हैं। जो हैं वे बड़ी मुश्किल से अलग हो पाते हैं और एटम बम के काम उनमें एक ही आता है।

थोरियम एक रेडियो एक्टिव पदार्थ है लेकिन फिसाइल नहीं है। यानी न केवल वह एटम बम के लिए बेकार है, बल्कि उसपर सीधे न्यूट्रॉन मारकर कोई ऊर्जा भी पैदा नहीं की जा सकती। थोरियम को विखंडनीय बनाने के लिए उसे एक अलग पदार्थ यूरेनियम-233 में बदलना पड़ता है। यह काम बहुत मुश्किल तो नहीं है लेकिन बहुत झंझटिया मानकर अमेरिका ने 1970 के दशक में इसको छोड़ दिया था। भारत में यह अभी तक चल रहा है तो इसकी बड़ी वजह यह है कि किसी सरकारी विभाग को बंद करना यहां बहुत मुश्किल होता है और सीधे प्रधानमंत्री की देखरेख में चलने वाले परमाणु ऊर्जा विभाग के थोरियम एक्सपेरिमेंटल एनर्जी प्रभाग को बंद करना एक राष्ट्रवादी मुद्दा बन सकता है। बहरहाल, बीते 50 वर्षों में इस प्रायोगिक काम के नतीजे इतने मामूली रहे हैं कि इसका चलना एक अजूबा ही है।

थोरियम को लेकर चीन की उपलब्धि भी किसी करिश्मे जैसी नहीं कही जा सकती। वहां भी इस काम को शुरू हुए आधी सदी बीत चुकी है। लेकिन डॉ. शू होंगजी को अगुआ बनाकर किसी भी सूरत में थोरियम से बिजली बनाने का जिम्मा चीनी हुकूमत ने सन 2009 में दिया। महामंदी से ठीक पहले आई ऑयल क्राइसिस के असर में, जो एकबारगी चीन समेत सारे ही विकासशील देशों की कमर तोड़ देने वाली लगने लगी थी।

 


शू होंगजी ने इस मामले में व्यावहारिक नजरिया अपनाया और उनके साथ आए दर्जन भर वैज्ञानिकों ने अपनी गैरत की परवाह किए बगैर अमेरिका की छोड़ी हुई रिसर्च के ओपेन सोर्स नतीजों को ज्यों का त्यों उठा लिया। पूरे आठ साल लगाकर उन्होंने न केवल उसका रेशा-रेशा समझ डाला, बल्कि उसमें काम आए सारे कल-पुर्जों और मैटीरियल को नए सिरे से बनाकर अलग-अलग उनकी लैब टेस्टिंग भी कर डाली। गोबी के रेगिस्तान में अपने पहले एक्सपेरिमेंटल प्लांट पर काम शुरू किया उन्होंने 2017 में, जो पिछले साल, 17 जून 2024 से बिजली बनाने लगा।

भारत में थोरियम से बिजली बनाने के काम पर नजर डालें तो 2024 हमारे लिए भी एक शुभ साल रहा, जब यहां भी प्रायोगिक स्तर पर कुछ अच्छी खबरें आईं। लेकिन थोरियम को यूरेनियम-233 में बदलने का काम यहां आज भी एक्सपेरिमेंटल प्लांट के कैंपस से दूर किया जाता है और ईंधन से पैदा होने वाली गर्मी भाप बनाने के ही काम आती है। जबर्दस्त प्रेशर के चलते यह हमेशा खतरे का सबब बना रहता है। 

इसके उलट, थोरियम को फिसाइल मटीरियल में बदलने का काम चीनी अपने एक्सपेरिमेंटल कैंपस में ही करते हैं और विखंडन से पैदा होने वाली गर्मी का इस्तेमाल वे पिघले हुए साल्ट को और गर्माने में करते हैं। ये आम तौर पर सोडियम, पोटैशियम और मैग्नीशियम के फ्लोराइड साल्ट हैं। इस व्यवस्था में भाप से डाइनेमो घुमाने का काम प्लांट से गर्मी पैदा करने से बिल्कुल अलग है, सो प्लांट पर स्टीम प्रेशर से कोई खतरा नहीं है। प्लांट का फ्यूल यूरेनियम छड़ों जैसा न होकर पाउडर शेप में है, लिहाजा बिना शटडाउन लिए रीफ्यूलिंग अभी हमारे एजेंडे पर भी नहीं है।              

बहरहाल, दुनिया में किसी जगह पर भी थोरियम से लगातार बिजली बनने लगे, भारत के लिए हर हाल में यह अच्छी खबर ही है। चीनियों का लक्ष्य 2029 तक यह काम औद्योगिक पैमाने पर शुरू कर देने का है, हालांकि इस रास्ते में आने वाली अड़चनें भी अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा थोरियम हमारे यहां ही है और उसे रेत से धातु रूप देना हम सीख गए हैं। चीनी आगे निकल जाएं तो भी टेक्नॉलजी ज्यादा देर भारत से दूर नहीं रहेगी।