जगदीप धनखड़, पीएम मोदी और अन्य।
भारत का उपराष्ट्रपति पद, जो राज्यसभा का पदेन सभापति भी है, निष्पक्षता और लोकतांत्रिक नेतृत्व की मांग करता है। जगदीप धनखड़ का कार्यकाल (2022–2025), जो एक
विवादास्पद इस्तीफे के साथ अचानक समाप्त हुआ, अपने पूर्ववर्तियों के गरिमामय कार्यकाल से बिल्कुल विपरीत है। अंग्रेजी कहावत “जैसा बोओगे, वैसा काटोगे” और राल्फ वाल्डो एमर्सन का कथन “कारण और प्रभाव का नियम ही सबसे बड़ा नियम है” धनखड़ के कार्यकाल को दर्शाते हैं, जहां उनकी एकपक्षीय बयानबाजी और स्पष्ट पक्षपात ने असंतोष, अविश्वास प्रस्ताव और अपमानजनक विदाई को जन्म दिया। धनखड़ के राजनीतिक सफर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति उनकी वफादारी, और यूके के वेस्टमिंस्टर सिस्टम की निष्पक्ष परंपराओं से उनके विचलन को उनके पूर्ववर्तियों के योगदान के साथ तुलना करते हुए यह सवाल भी उठता है कि क्या अगला उपराष्ट्रपति इस पद की लोकतांत्रिक गरिमा बहाल करेगा। लेकिन
धनखड़ की विदाई का संदेश साफ है। यह उन नेताओं के लिए चेतावनी है जो कांग्रेस या अन्य दलों से बीजेपी में आए: बीजेपी में रहना है तो “मोदी-मोदी” कहना होगा। यह हिंदुत्व, सनातन या भगवा का मामला नहीं, बल्कि एक सिद्धांत है- एक देश, एक नेता, एक पार्टी, कोई एनडीए नहीं, केवल एक नेता।
धनखड़ का राजनीतिक सफर और पक्षपात के आरोप
जगदीप धनखड़ (जन्म 18 मई, 1951, किठाना, राजस्थान), एक जाट परिवार से, विनम्र शुरुआत से प्रमुख वकील और राजनेता बने। सैनिक स्कूल, चित्तौड़गढ़ और राजस्थान विश्वविद्यालय से शिक्षित, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में वकालत की। जनता दल से राजनीति शुरू कर, कांग्रेस में कुछ समय रहे, और 2008 में बीजेपी में शामिल हुए। उनके करियर में लोकसभा सांसद (1989–1991), राजस्थान विधायक (1993–1998), और संसदीय कार्य राज्य मंत्री (1990–1991) के पद शामिल हैं। लेकिन इसके बाद राजनीति में लगभग हाशिये पर रहे धनखड़ को भाजपा में भविष्य दिखने लगा।
पीएम मोदी ने धनखड़ की प्रतिभा पहचानी!
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और पश्चिम बंगाल का राज्यपाल (2019–2022) बनाकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राजनीतिक चूड़ियां कसने के लिए तैनात कर दिया। राज्यपाल धनखड़ ने यह काम बखूबी किया। पश्चिम बंगाल में चुनाव बाद हिंसा और विश्वविद्यालय नियुक्तियों पर धनखड़ का ममता बनर्जी से टकराव इसका प्रमाण है। हालत यहाँ तक पहुँच गयी कि ममता बनर्जी ने 2022 में उन्हें ट्विटर पर ब्लॉक कर दिया। तृणमूल कांग्रेस ने उनपर बीजेपी के इशारे पर काम करने का आरोप लगाया (द हिंदू, जनवरी 2022)।
मोदी खुश हुए। इतना खुश कि पार्टी के तमाम हसरतगारों, उम्मीदवारों, दावेदारों को परे धकेलकर धनखड़ साहब की उपराष्ट्रपति पद पर धमाकेदार इंट्री करा दी। सब खामोश। और अगस्त 2022 में 74.37% वोटों के साथ धनखड़ उपराष्ट्रपति चुन लिए गए। निस्संदेह उनकी नियुक्ति संसदीय अनुभव से ज्यादा मोदी के प्रति वफादारी पर आधारित थी। मोदी का “किसान पुत्र” वाला बयान (6 अगस्त, 2022, द इंडियन एक्सप्रेस) धनखड़ के जरिए किसान आंदोलन को कमजोर करने की रणनीति से भी जुड़ा था।
कहाँ तो इस पद पर कभी सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1952–1962) विराजमान होते थे, जिनके बौद्धिक योगदान को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। और भी अनेक सम्मानित उपराष्ट्रपति हुए।
विद्वान और सफल उपराष्ट्रपति
राधाकृष्णन, जाकिर हुसैन (1962–1967), शंकर दयाल शर्मा (1987–1992), और कृष्णकांत (1997–2002) ने इस पद की प्रतिष्ठा बढ़ाई। समाजवादी नेता कृष्णकांत ने भारत की परमाणु महत्वाकांक्षाओं का समर्थन किया, और 1998 के परमाणु परीक्षण उनके कार्यकाल में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में हुए (द हिंदू, 1998)। एम. वेंकैया नायडू (2017–2022) ने ट्रिपल तलाक बिल जैसे ऐतिहासिक कानून पारित किए, जिसके लिए थेरेसा मे ने भारत की संसदीय परंपरा की तारीफ की (यूके पार्लियामेंट, 2019)।
राधाकृष्णन और हामिद अंसारी (2007–2017), दोनों ने 10 साल तक निष्पक्षता का उदाहरण पेश किया। राधाकृष्णन की दार्शनिक विरासत और अंसारी की कूटनीतिक कुशलता, जिसे कोफी अन्नान ने “विभाजनों के बीच पुल” कहा (यूएन प्रेस, 2017), ने सभी दलों के साथ सहयोग बढ़ाया।
वी.वी. गिरि (1967–1969) और आर. वेंकटरमण (1984–1987) का कार्यकाल राष्ट्रपति पद के लिए उन्नति के कारण छोटा रहा, फिर भी गरिमामय था। भैरों सिंह शेखावत (2002–2007) ने राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद इस्तीफा दिया, लेकिन कुछ सम्मान बरकरार रखा।
तो उपराष्ट्रपति धनखड़ से कहाँ कमी रह गई? दरअसल, धनखड़ ने अपने पूर्ववर्ती उपराष्ट्रपतियों की उच्च परंपरा निभाने की बजाय मोदी के प्रति उच्च वफादारी का रास्ता चुना।
उन्हें भी भारत को 2014 में आजादी मिली का असत्य ही सत्य लगने लगा। उन्हें भी अपनी प्रगति 2014 के बाद के भारत की प्रगति की तारीफ में दिखी (राज्यसभा रिकॉर्ड, 2023)।
अब कोई कहे कि धनखड़ का कार्यकाल पक्षपातपूर्ण रहा, तो यह कम है। 2015 के NJAC फैसले को “न्यायिक अतिक्रमण” और अनुच्छेद 142 को “लोकतंत्र के खिलाफ परमाणु मिसाइल” कहना धनखड़ की मजबूरी कम मोदी के विचारों से सुर मिलाते दिखने की कवायद ज्यादा थी। (द वायर, 2023; द टाइम्स ऑफ इंडिया, 2023)।
धनखड़ के विवादास्पद बयान
मोदी भक्ति सिद्ध करने की होड़ में उन्होंने न्यायपालिका पर भी हमला कर डाला (अप्रैल 2025): “हमारा लोकतंत्र यह नहीं चाहता था कि जज सुपर संसद बनें, कानून बनाएं और कार्यपालिका का काम करें।” यह सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ था, जिसमें राज्यपालों को बिलों पर समयबद्ध निर्णय लेने का आदेश था।
भाजपाइयों को पीछे छोड़ते हुए माननीय धनखड़ ने आरएसएस की ऐसी तारीफ (जुलाई 2024) की कि बड़े बड़े नेता बगले झांकने लगे - उन्होंने कहा कि “पिछले 25 साल से मैं आरएसएस का एकलव्य हूं। मेरा एकमात्र पछतावा है कि मैं पहले इसमें शामिल नहीं हुआ। आरएसएस एक वैश्विक थिंक टैंक है।” उनका यह बयान समाजवादी पार्टी के एक सांसद की टिप्पणी के जवाब में था, जिसे विपक्ष ने बीजेपी की कठपुतली होने का सबूत माना।
प्रतिद्वंद्विता प्रतिभा की बजाय यह साबित करने की हो कि भाजपा में मोदी का सबसे बड़ा विश्वास पात्र या भक्त कौन? तो इसकी अग्रिम पंक्ति में अपना नाम दर्ज कराने के लिए वे मोदी को गांधी से भी बड़ा बता गये।
गांधी-मोदी तुलना करते हुए धनखड़ ने 2024 में कह डाला कि: “महात्मा गांधी पिछली सदी के 'महापुरुष' थे, और नरेंद्र मोदी इस सदी के 'युगपुरुष' हैं।” जाहिर तौर पर उनके इस बयान ने विपक्ष को भड़काया, जिन्होंने इसे चाटुकारिता कहा।
मोदी जी को युग-पुरुष बताने के बावजूद विपक्ष सही मुद्दों को लेकर सरकार पर आक्रामक रहा, तो उन्होंने पद की गरिमा की धज्जियां उड़ाते हुए विपक्ष पर तंज कसना शुरू किया।
किसान आंदोलन के दौरान उपराष्ट्रपति धनखड़ ने विपक्ष को “राष्ट्र के दुश्मनों के साथ” खड़ा बताया: “जो लोग देश के दुश्मनों के साथ खड़े हों, वे संवैधानिक पद पर रहकर भी शर्मिंदगी का कारण बनते हैं।”
उपराष्ट्रपति धनखड़ का निशाना राहुल गांधी पर था, जिससे राज्यसभा में भारी हंगामा हुआ।
जयराम रमेश को उन्हें “सरकारी मुखपत्र” कहना पड़ा। (द हिंदू, 2023)।
धनखड़ से क्या हुईं ग़लतियाँ?
पर धनखड़ से कुछ गलतियाँ भी हो गयीं। एकबार सार्वजनिक मंच पर मोदी सरकार के कृषि मंत्री को याद दिलाने लगे कि वे देश के दूसरे संवैधानिक पद पर होने के नाते पूछ रहे हैं कि किसानों से किया गया वादा क्यों नहीं पूरा हुआ। इस पर बाद में क्या हुआ या नहीं, सब भूल गए।
लेकिन बीते सोमवार 21 जुलाई, 2025 को उनसे बड़ी गलती हो गई। अव्वल तो कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को उन्होंने आपरेशन सिंदूर आदि विषयों पर बोलने दिया। उनकी थोड़ी तारीफ भी कर दी और जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ सत्ता पक्ष की बजाय विपक्षी प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, जिससे बीजेपी के साथ उनका तनाव बढ़ा, जिसके बाद उन्होंने स्वास्थ्य कारणों (एंजियोप्लास्टी के बाद) का हवाला देकर पद से इस्तीफा दे दिया (द इंडियन एक्सप्रेस, जुलाई 2025)।
जयराम रमेश ने उनकी विदाई पर दुख जताया, कहा कि इतने उच्च पद पर बैठे व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार उचित नहीं, लेकिन धनखड़ ने भी पद की गरिमा तोड़ी थी। इसके बाद पीएम मोदी का संक्षिप्त विदाई ट्वीट (21 जुलाई, 2025, ट्विटर) ने स्पष्ट कर दिया कि यह विदाई अपमानजनक थी।
धनखड़ पहले उपराष्ट्रपति रहे जिनके तीन साल के छोटे कार्यकाल में दिसंबर 2024 में उनके खिलाफ विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव पेश करना पड़ा था, जिसमें उनपर पक्षपात का आरोप था।
2023 में जया बच्चन के नाम को लेकर विवाद और मणिपुर हिंसा बहस के दौरान मोदी को न बुलाने से उनकी विभाजनकारी छवि और उजागर हुई।
दिसंबर 2023 में 146 सांसदों के निलंबन की घटना उपराष्ट्रपति के तौर पर उनकी विपक्षी दलों और लोकतंत्र को कुचलने की काली करतूतों के रूप में याद किया जाएगा।
विपक्ष के प्रति उनका व्यवहार मोदी सरकार के रवैये की तरह दमनकारी माना गया है। जबकि कांग्रेस के उपराष्ट्रपति (राधाकृष्णन, हुसैन, वेंकटरमण, शर्मा, के.आर. नारायणन) और गैर-कांग्रेसी जैसे गोपाल स्वरूप पाठक (1969–1974) और मोहम्मद हिदायतुल्लाह (1979–1984) जैसे उपराष्ट्रपतियों ने निष्पक्षता बरती थी। नारायणन की कूटनीति को नेल्सन मंडेला ने सराहा (1997, संग्रहीत भाषण)। बीजेपी के उपराष्ट्रपतियों में नायडू ने हास्य से दूरी कम की, जबकि धनखड़ और शेखावत पक्षपातपूर्ण रहे। धनखड़ ने किसान आंदोलन को “मगरमच्छ के आंसू” और जेएनयू को “राष्ट्र-विरोधी” कहा, जिससे उनकी छवि धूमिल हुई।
वेस्टमिंस्टर की निष्पक्षता की परंपरा
यूके में हाउस ऑफ कॉमन्स के स्पीकर, जैसे जॉन बर्को (2009–2019), पार्टी संबंध त्यागते हैं और कहते हैं, “स्पीकर सदन की सेवा करता है, उस पर शासन नहीं” (यूके पार्लियामेंट, 2019)। यह निष्पक्षता की सदियों पुरानी परंपरा भारत के लिए भी अनुकरणीय है, जहां उपराष्ट्रपति को सभी दलों के प्रति निष्पक्ष रहना चाहिए। धनखड़ का बीजेपी से जुड़ाव और एकपक्षीय रवैया राज्यसभा की निष्पक्षता को कमजोर करता था, जो भारत जैसे विविध लोकतंत्र में और भी जरूरी है।
बीजेपी में शामिल होने वालों को संदेश
पहले जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक और अब उपराष्ट्रपति जगदीश धनखड़ के साथ जो हुआ, वह बीजेपी में शामिल होने वाले अन्य दलों के नेताओं के लिए कड़ा संदेश है।
2014 के बाद से बीजेपी में शामिल होने वाले प्रमुख नेताओं में शामिल हैं: हिमंत बिस्व सरमा (कांग्रेस, 2015), ज्योतिरादित्य सिंधिया (कांग्रेस, 2020), जितिन प्रसाद (कांग्रेस, 2021), और सुष्मिता देव (कांग्रेस, 2021)। 2014-2024 के बीच, लगभग 20 प्रमुख कांग्रेस नेताओं और 10 अन्य दलों (टीएमसी, सपा, बसपा आदि) से नेता बीजेपी में शामिल हुए (द हिंदू, 2024)। इन नेताओं को सामान्य बीजेपी नेताओं से ज्यादा जोर-शोर से मोदी की तारीफ करनी पड़ती है, जैसा कि हिमंत बिस्व सरमा करते हैं।
बहरहाल, धनखड़ का उपराष्ट्रपति कार्यकाल, जो मोदी के प्रति वफादारी से प्रेरित था, ने असंतोष और अविश्वास प्रस्ताव को जन्म दिया। राधाकृष्णन और नायडू के गरिमामय कार्यकाल के विपरीत, उनके टकरावपूर्ण रवैये और एकपक्षीय बयानों ने इस पद की पवित्रता को ठेस पहुंचाई।
धनखड़ की अपमानजनक विदाई उन नेताओं के लिए सबक है जो अन्य दलों से बीजेपी में आए- चाहे मुख्यमंत्री हों, राज्यपाल हों, या उपराष्ट्रपति, जैसे धनखड़ और सत्यपाल मलिक।
हबीब जालिब का शेर किसको याद रहता है:
कि तुमसे पहले वो जो शख्स तख्ते-नशीं था, उसको भी अपने खुदा होने पे इतना ही यकीं था।
यदि भाजपा में रहना है, तो मोदी मोदी ही कहना होगा। योगी अगर 'बंटोगे, तो कटोगे' कहें, तो आपको कहना है कि 'एक रहोगे, तो सेफ रहोगे'।
मोहन भागवत कहें कि मुसलमान भी इसी भारत के अंग हैं, तो आप उन्हें सौगात ए मोदी देकर आइये। संघ जातिवाद खत्म कर हिन्दू एकता की बात करे, तो करने दो, आप जनगणना में जाति की गणना करिये, क्योंकि ये राजनीति है और मोदी है, तो मुमकिन भी।
संदेश साफ है: न नागपुर, न अमित शाह, न योगी, न कोई और- केवल एक नेता। किसान, जवान या अन्य मुद्दों पर बोलने की जरूरत नहीं, वह मोदी का काम है। कुछ बोलना हो तो नड्डा जी से सीख लें। क्या अगला उपराष्ट्रपति इस पद की लोकतांत्रिक गरिमा बहाल करेगा, या पक्षपातपूर्ण विभाजन को और गहरा करेगा?