तमिलनाडु में केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ़ स्वर तेज़ हो रहे हैं और राज्य अधिक स्वायत्तता की मांग कर रहा है। जानिए इसके ऐतिहासिक, राजनीतिक और संघीय संरचना से जुड़े कारण इस विश्लेषण में।
पद की गरिमा को ताक पर रखकर लगातार राज्य सरकार के कामों में अड़ंगा लगाते राज्यपाल महोदय, लोकसभा सीटों के परिसीमन की आड़ में उत्तर भारत के मुक़ाबले दक्षिण के राज्यों की सीटों की संख्या इस हद तक कम करने का षड्यंत्र कि राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिण भारत प्रभाव नगण्य हो जाए, त्रिभाषा फ़ॉर्मूले के माध्यम से राज्य पर हिंदी थोपने और भाषाई विविधता को नष्ट करने की कुटिल चालें, सामाजिक न्याय की पुरोधा द्रविड़ राजनीति को हिंदुत्व की राजनीति से आच्छादित कर देने की आक्रामक चालें, एक भाषा, एक परिधान, एक खानपान, एक राशन कार्ड, एक देश, एक चुनाव… जैसे धमकी भरे नारों के कानफोडू शोर से डरी–सहमी क्षेत्रीय अस्मिताएँ, बुलडोज़र के ज़रिए देश की विविधतापूर्ण संस्कृति को एक रंग में रंग देने की साज़िशें और इन सबसे ऊपर तमिलनाडु में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनाने की जिद के चलते मोदी सरकार की टकराववादी नीतियों और पैंतरेबाजियों का नतीज़ा यह हुआ कि सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके की स्टालिन सरकार ने राज्य के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग सामने रख दी है। मुख्यमंत्री स्टालिन का तर्क है कि केंद्र सरकार की टकराववादी नीतियाँ भारत के संघीय ढाँचे को ख़तरे में डाल रही हैं। इसी के मद्देनज़र उन्होंने अधिक स्वायत्तता की मांग को राष्ट्रीय मुद्दे के रूप में प्रस्तुत किया है, जो न केवल तमिलनाडु बल्कि सभी राज्यों की व्यापक संघीय चिंताओं को रेखांकित करती है। इसका उद्देश्य तमिलनाडु सहित सभी राज्यों के अधिकारों की रक्षा करना है। राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता से स्टालिन का अभिप्राय भारत के संघीय ढांचे के भीतर रहकर राज्यों के अधिकार क्षेत्र में वृद्धि से है, नीतिगत और प्रशासनिक मामलों में केंद्र के अनावश्यक हस्तक्षेप और राज्यपाल के मनमाने आचरण की सीमाएँ तय करने से है। मुख्यमंत्री स्टालिन का मानना है कि राज्यों को अधिक स्वायत्तता भारत के संघीय ढाँचे को मज़बूत करती है जिससे केंद्र व राज्यों के मध्य अधिकारों और वित्तीय संसाधनों का समान वितरण और स्थानान्तरण सुनिश्चित होता है।
बता दें कि देश के संविधान में केंद्र एवं राज्यों के मध्य विधायी, प्रशासनिक और आर्थिक शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 245 से लेकर अनुच्छेद 293 तक इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। संघीय सूची में 97 विषय हैं जिन पर केवल केंद्र सरकार क़ानून बना सकती है, राज्य सूची में 65 विषयों पर केवल राज्य सरकारें और समवर्ती सूची यानी concurrent लिस्ट के 52 विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों क़ानून बना सकते हैं। विवाद की स्थिति में केंद्र सरकार के क़ानून को मान्यता मिलेगी। इनसे इतर यदि कोई नया विषय आता है तो उस पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार को है। आपातकाल की परिस्थिति में तीनों सूचियों में मौजूद सभी विषय केंद्र के अधीन आ जाते हैं। स्टालिन द्वारा नियुक्त स्वायत्तता समिति को उन विषयों को वापस राज्य सूची में लाने की सिफारिश का भी काम सौंपा गया है, जो पहले राज्य सरकारों के अधीन आते थे लेकिन अब उन्हें समवर्ती सूची में रख दिया गया है जिस पर केंद्र और राज्य दोनों उन पर कानून बना सकते। शिक्षा एक ऐसा ही विषय है राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में डाल दिया गया है। सीटों के पुन: परिसीमन की भेदभावपूर्ण नीति तमिलनाडु समेत दक्षिण के सभी राज्यों के लिए लोकसभा में सीटों की संख्या को ख़तरनाक रूप से कम करती है। इसलिए उन्होंने राज्य के अधिकारों की रक्षा, अधिक स्वायत्तता और केंद्र – राज्य के रिश्तों को बेहतर बनाने हेतु सिफारिशें देने के लिए 15 अप्रैल, 2025 को एक उच्च स्तरीय तीन सदस्यीय समिति के गठन की घोषणा कर दी है जो देश की एकता व अखंडता और संविधान द्वारा स्थापित संघवादी ढांचे की परिधि के भीतर रहते हुए उन सभी संवैधानिक प्रावधानों, क़ानूनों, आदेशों, नीतियों का अध्ययन करेगी जो केंद्र और राज्यों के संबंधों को प्रभावित करते हैं। समिति विशेष रूप से पड़ताल करेगी कि वितीय संसाधनों, टैक्सेशन, शिक्षा आदि विषयों पर केंद्र के मज़बूत शिकंजे को ढीला करके राज्यों का हिस्सा कैसे बढ़ाया जाए। यह समिति अपनी अंतरिम रिपोर्ट जनवरी 2026 तक और अंतिम रिपोर्ट 2028 तक पेश करेगी। इस विशेष समिति की अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायलय के रिटायर्ड न्यायाधीश कुरियन जोसेफ़ करेंगे। पूर्व आईएएस अधिकारी अशोक वरदान शेट्टी और तमिलनाडु राज्य योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष प्रोफेसर एम् नागनाथन इसके सदस्य होंगे।
राज्यों को अधिक स्वायत्तता के मुद्दे पर तमिलनाडु की दोनों प्रमुख द्रविड़ पार्टियां - डीएमके और एआईएडीएमके ऐतिहासिक रूप से एकमत रही हैं। यही कारण है कि स्टालिन द्वारा अधिक स्वायत्तता की मांग उठाए जाने के तुरंत बाद एआईएडीएमके ने भाजपा के साथ गठबंधन से खुद को अलग कर लिया है।
दरअसल, अधिक स्वायत्तता की यह मांग लम्बे समय से चली आ रही प्रशासनिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक शिकायतों और केंद्र व राज्य के मध्य चल रहे तनावपूर्ण संबंधों के फलस्वरूप उत्पन्न हुई है। विशेषकर केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद से यह तनाव बढ़ता ही जा रहा है। उसका मूल कारण है– भाजपा का अति हिंदीवाद और हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडा, जो द्रविड़ आन्दोलन की धर्मनिरपेक्ष, सामजिक न्याय और सर्व समावेशिता की भावना के साथ सीधे टकराता है। केंद्र सरकार द्वारा वित्तीय और प्रशासनिक अतिक्रमण टकराव की एक बड़ी वजह बना हुआ है। मुख्यमंत्री स्टालिन ने केंद्र सरकार पर राज्य के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करने का आरोप लगाया है। जीएसटी के कारण राज्य को हो रही राजस्व की हानि के कारण सरकार अपनी जनकल्याणकारी योजनाओं को लागू नहीं कर पा रही है। ग़ौरतलब है कि देश कि जनसंख्या में मात्र 6% होने के बावजूद दूसरे नंबर की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला यह राज्य जीडीपी में 10% का योगदान करता है। उन्हें शिकायत है कि तमिलनाडु टैक्स के रूप में जो एक रुपया केन्द्र सरकार को देता है उसके बदले में उन्हें मात्र 29 पैसे वापस मिलते हैं जबकि बिहार जैसे राज्य को एक रुपए के बदले सात रुपए पन्द्रह पैसे मिलते हैं।आख़िर यह नौबत क्यों आई?
लोकसभा की सीटों के परिसीमन की आड़ में तमिलनाडु समेत दक्षिण के सभी पाँचों राज्यों की सीटें घटाने और उत्तर भारत के राज्यों की सीट संख्या में आने वाले भारी उछाल को लेकर तमिलनाडु में केंद्र सरकार के प्रति नाराज़गी और अविश्वास का जो वातावरण बना हुआ है, उसने भी अधिक स्वायत्तता की मांग को हवा दी है। उत्तर और दक्षिण भारत के मध्य लोकसभा की सीटों के इस भारी अंतर के कारणों पर किसी दिन अलग से चर्चा करेंगे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने के लिए दबाव डालने वास्ते समग्र शिक्षा अभियान के तहत करीब 2500 करोड़ रुपए की शिक्षा निधि को केंद्र द्वारा रोके जाने और हाल ही में राज्य पर हिंदी भाषा थोपने को लेकर केंद्र और राज्य के बीच जो लम्बी तकरार चली, उसने भी राज्य सरकार को सशंकित कर दिया।
नि:संदेह डीएमके सरकार ने त्रिभाषा फ़ॉर्मूले को अपनी भाषाई और सांस्कृतिक अस्मिता पर हमले के रूप में देखा। भाषाई अस्मिता की यही वह प्रबल भावना है जिस पर सवार होकर तमिलनाडु के डीएमके, एआईएडीएमके जैसे क्षेत्रीय राजनीतिक दल बारी-बारी से सत्ता में आते रहते हैं।
तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि के मनमाने व्यवहार से उपजी तनातनी ने अधिक स्वायत्तता की मांग को और बढ़ावा दिया। राज्यपाल की मनमानी से तंग आकर अंतत: राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने राज्य विधानसभा द्वारा पारित दस विधेयकों को मंजूरी देने में देरी करने के लिए राज्यपाल को फटकार लगाई। इनमें से कुछ विधेयक तो पांच साल से राज्यपाल के पास मंजूरी के लिए लंबित पड़े थे। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद वे दस विधेयक पारित हो पाए। कोर्ट ने राज्यपाल के इस व्यवहार को “मनमाना“ और “अवैध” करार दिया। स्वायत्तता के लिए गठित की गई उच्चस्तरीय समिति राज्यपाल की भूमिका का विशेष रूप से अध्ययन कर अपनी सिफारिशें देगी। स्टालिन सरकार NEET के विरोध में है क्योंकि यह राज्य के पिछड़े और वंचित वर्गों के छात्रों के हितों को नुक़सान पहुँचाता है। उनका तर्क है कि नीट राज्य की शिक्षा नीति को कमजोर करता है जो ऐतिहासिक रूप से सामाजिक न्याय और समानता को प्राथमिकता देती रही है। उनकी मांग है कि 42वें संविधान संशोधन को निरस्त कर शिक्षा को समवर्ती सूची से निकालकर वापस राज्य सूची में लाया जाए। यह मांग तब और तेज़ हो गई जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने तमिलनाडु विधानसभा द्वारा दो बार पारित उस विधेयक को खारिज कर दिया जिसमें मेडिकल में प्रवेश के लिए NEET के बजाए कक्षा 12 में प्राप्त अंकों को आधार मानने की मांग की गई थी।राज्यपाल की भूमिका
NEET मामला
अधिक स्वायत्तता की यह मांग तमिलनाडु के राजनीतिक परिदृश्य को नया आकार प्रदान कर सकती है। स्टालिन संघवाद को एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाकर तमिलनाडु की क्षेत्रीय पहचान को मजबूती प्रदान कर रहे हैं। तमिल अस्मिता और अधिकारों के प्रति उनकी यह प्रतिबद्धता उनके मतदाता आधार को मजबूत कर सकती है। यह बहस भारत की संघीय प्रणाली में क्षेत्रीय आकांक्षाओं और राष्ट्रीय अखंडता के बीच संतुलन की व्यापक चुनौती को रेखांकित करती है। भारत राज्यों का एक संघ है- तमिलनाडु के अलावा केरल, पश्चिम बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तराखंड में राज्यपालों की भूमिका और केंद्र सरकार के भेदभावपूर्ण व्यवहार ने इस देश के संघीय ढाँचे को निरंतर कमजोर किया है। केंद्र सरकार की टकराववादी नीतियों और राज्यपालों की मनमानी से त्रस्त गैर–भाजपा शासित राज्यों में भी यदि इसी प्रकार अधिक स्वायत्तता की मांग जोर पकड़ती है तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आज जब दुनियाभर में अस्मिताओं की लड़ाई अपने चरम पर है तब ऐसे में भारत की क्षेत्रीय अस्मिताओं को दरकिनार कर केंद्र यदि अपने अड़ियल और टकराववादी रवैये पर कायम रहता है तो देश की एकता और अखंडता को ख़तरा पैदा होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।