बिहार में चुनाव आयोग एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण के दौरान मतदाताओं को राहत देने की बात कर रहा है लेकिन उसके बार-बार बदलते बयान की वजह से आम लोग और विपक्ष के नेता कह रहे हैं कि यह दरअसल उसका झांसा है।
इससे साफ तौर पर यह लगा कि चुनाव आयोग ने 11 दस्तावेजों की जो लिस्ट जारी की थी उसमें उसने कुछ नर्मी बरतने का फैसला किया है और ऐसा लगा कि वोटर लिस्ट में नाम दर्ज रहे, इसके लिए उन्हें जमा करने की अनिवार्यता खत्म कर दी गई है।
लेकिन शनिवार को शाम होते-होते चुनाव आयोग ने एक प्रेस रिलीज जारी की और कहा कि 24 जून को जारी आदेश में कोई बदलाव नहीं लाया गया है। 6 जुलाई को जारी विज्ञापन के हवाले से जिस बदलाव की बात कही गई उसे चुनाव आयोग के बयान में अफवाह बताया गया।
इस प्रेस नोट में साफ तौर पर यह नहीं कहा गया कि जो लोग बिना दस्तावेज के फॉर्म जमा करेंगे उनका नाम वोटर लिस्ट में रहेगा या उन्हें दस्तावेज जमा करने के बाद ही वोटर लिस्ट में शामिल किया जाएगा? बहुत से लोग यह सवाल कर रहे हैं कि चुनाव आयोग साफ-साफ यह बात क्यों नहीं कहता कि दस्तावेज जमा करना जरूरी है या उसके बिना भी केवल भरे हुए एन्यूमरेशन फार्म के आधार पर वोटर लिस्ट में नाम शामिल रहेगा।
6 जुलाई को जारी प्रेस नोट में कहा गया है कि निर्देशों के अनुसार ड्राफ्ट इलेक्टोरल रोल 1 अगस्त को जारी किया जाएगा जिसमें उन लोगों का नाम शामिल होगा जिनका एन्यूमरेशन फॉर्म चुनाव आयोग को मिल चुका है। इसके बाद इस प्रेस नोट में कहा गया है कि मतदाता अपने डॉक्यूमेंट 25 जुलाई 2025 से पहले कभी भी जमा कर सकते हैं। इसके साथ ही यह भी बताया गया है कि ड्राफ्ट इलेक्टोरल रोल के प्रकाशन के बाद अगर किसी दस्तावेज की कमी होती है तो ईआरओ (इलेक्टोरल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर) डॉक्यूमेंट संबंधित मतदाता से मांग सकते हैं। इस दस्तावेज की मांग दावा और आपत्ति की अवधि में की जा सकती है। यह अवधि 1 अगस्त से 1 सितंबर तक है।
इसके बाद एक बार फिर यह उलझन पैदा हो गई कि क्या बिना दस्तावेज जमा किए गए फॉर्म के आधार पर वोटर लिस्ट में नाम रहेगा या उसके लिए बाद में ही सही दस्तावेज देने ही होंगे? दरअसल कल जारी विज्ञापन में यह तो जरूर कहा गया कि जिनके पास दस्तावेज उपलब्ध नहीं है वह दस्तावेज के बिना फॉर्म जमा करें लेकिन उसमें यह पेच लगा दिया गया था कि ईआरओ यानी ब्लॉक स्तर के अधिकारी को अगर जांच की जरूरत महसूस हुई तो वह जांच करेंगे और दस्तावेज की मांग कर सकते हैं। इस विज्ञापन से ऐसा लगा था कि कुछ-कुछ लोगों के मामले में जांच की जा सकती है या जरूरत पड़ी तो दस्तावेज भी मांगा जा सकता है।
चुनाव आयोग इस बात का कोई जवाब नहीं दे रहा है कि उसने अपने पहले विज्ञापन में जिन 11 दस्तावेजों की सूची जारी की थी उसके बारे में अपने बाद के विज्ञापन में यह क्यों कहा कि उन दस्तावेजों के बिना भी फॉर्म जमा किए जा सकते हैं? ऐसे में आम लोगों को यह शक हो रहा है कि चुनाव आयोग अपनी वाहवाही के लिए फिलहाल फॉर्म जमा करवा ले रहा है ताकि वह यह दावा कर सके कि इतने करोड़ फॉर्म जमा हो गए लेकिन बाद में वह वैसे फॉर्मों के आधार पर वोटर का नाम लिस्ट में शामिल नहीं करेगा जिनमें दस्तावेज नहीं होंगे।
सामाजिक संगठनों का कहना है कि चुनाव आयोग को साफ तौर पर यह बताना चाहिए कि क्या वह बिना दस्तावेज वाले फॉर्म के आधार पर वोटर का नाम लिस्ट में शामिल करेगा या उसे खारिज कर देगा? उनका कहना है कि चुनाव आयोग गोलमोल बात ना करके वोटर को साफ तौर पर यह बताए कि वह चाहता क्या है।
चुनाव आयोग की इस प्रक्रिया को 'वोटबंदी' बताने वाले भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य का कहना है कि बिहार के ‘हैरान-परेशान’ मतदाताओं को चुनाव आयोग द्वारा राहत दिये जाने की खबरें भ्रमित करने वाली हैं और इस भ्रम से बचने की जरूरत है।
उन्होंने अपने बयान में कहा, “जाहिर तौर पर विशेष गहन पुनरीक्षण की धीमी प्रगति ने चुनाव आयोग को बचाव के इस तात्कालिक रास्ते के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। अगर 10 दिन में सिर्फ 14 प्रतिशत ही भरे फॉर्म वापस आये हैं तो चुनाव आयोग समझ सकता है कि प्रारूप के स्तर पर ही भारी संख्या में मतदाता बाहर हो जायेंगे। इसलिए यह 'छलावे भरी छूट' दी जा रही है कि प्रारूप के स्तर पर मतदाताओं को कोई दस्तावेज या यहां तक कि फोटो भी जमा करने की जरूरत नहीं है।”
दीपंकर ने आरोप लगया कि यह 'छूट' भारी पैमाने पर मताधिकार से वंचित किये जाने के खतरे को समाप्त नहीं करती, यह बस उसे केवल टालती है। उन्होंने यह भी कहा कि यह स्पष्ट नहीं है कि दस्तावेज जमा करने की कोई नई समय सीमा है या नहीं। बकौल दीपंकर, “इसका मतलब यह भी निकलता है कि दस्तावेज जमा न कर सकने वाले आवेदकों का मामला, अन्य उपलब्ध दस्तावेजों की स्थानीय जांच के द्वारा मतदाता पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ ) द्वारा निपटाया जाएगा।”
मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के चुनाव आयोग के आदेश में ईआरओ के रोल को भी समझने की जरूरत है। 6 जुलाई को छपे विज्ञापन में चुनाव आयोग ने कहा है, “यदि आप आवश्यक दस्तावेज उपलब्ध करा देते हैं तो निर्वाचक निबंधन पदाधिकारियों को आवेदन को प्रोसेस करने में आसानी रहेगी।” देखा जाए तो चुनाव आयोग यहां बहुत ही नर्मी भरे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है और ऐसा लगता है कि वह राहत देने की कोशिश कर रहा है। लेकिन इसके ठीक बाद इस विज्ञापन में कहा गया है, “यदि आप आवश्यक दस्तावेज उपलब्ध नहीं कर पाते हैं तो निर्वाचक निबंधन पदाधिकारी (ईआरओ) द्वारा स्थानीय जांच या अन्य दस्तावेज के साक्ष्य के आधार पर निर्णय लिया जाएगा।”
ईआरओ को दिए गए इसी अधिकार के बारे में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश कुमार राम ने भी सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि वोटर लिस्ट में नाम जोड़ने या हटाने का अंतिम तौर पर ईआरओ को अधिकार दिया गया तो वह मनमानी करेंगे। उन्होंने कहा कि अगर अंतिम निर्णय ईआरओ के विवेक पर छोड़ा गया तो सरकार अपने फायदे के लिए दबाव डालकर उनसे नाम हटवा सकती है। उन्होंने कहा कि जब जनवरी में मतदाता सूची का प्रकाशन हो चुका है तो फिर से प्रक्रिया शुरू करना संदेह पैदा करता है।
इस पूरे मामले में दीपांकर का कहना है कि शुरूआत से ही पूरी विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया में कोई पारदर्शिता नहीं रही है। उनके अनुसार, “हर नई घोषणा के साथ यह प्रक्रिया और अधिक अपारदर्शी व मनमानीपूर्ण होती जा रही है। इसमें किये जा रहे 'बदलाव' हमारी इस समझदारी की तस्दीक कर रहे हैं कि विशेष गहन पुनरीक्षण एक अविवेकपूर्ण व अवांछित योजना है और इस कपट भरी योजना की पूरी तरह वापसी की हमारी मांग को बल प्रदान करता है।”