महाराष्ट्र चुनावों में ‘महाविकास अघाड़ी’ की चौंकाने वाली ‘महापराजय और ‘महायुति’ की ‘महाविजय’ को न तो भाजपा ने लोकतंत्र की जीत बताया है और न ही कांग्रेस ने उसे लोकतंत्र को एक धक्के के रूप में व्यक्त करने का साहस दिखाया है। कोई भी गठबंधन सामूहिक रूप से मानने को तैयार नहीं है कि ‘मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहिन योजना’ के तहत हर माह बाँटी जाने वाली सिर्फ़ पंद्रह सौ रुपये की राशि ने इतना बड़ा उलटफेर कर दिया।
प्रधानमंत्री ने महाराष्ट्र के नतीजों को ‘हिंदुत्व’ की विजय बताया है। उनके लिए ऐसा बताया जाना शायद इसलिए ज़रूरी हुआ हो कि हरियाणा के बाद महाराष्ट्र का चुनाव भी आरएसएस के नेतृत्व में लड़ा गया था, भाजपा की अगुवाई में नहीं। मोदी जीत का श्रेय भाजपा-नेतृत्व को देकर संघ को ‘दूसरी बार’ नाराज़ नहीं करना चाहते हों ! आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए कि झारखंड में मिली हार को मोदी के द्वारा हिंदुत्व की पराजय के रूप में नहीं गिनाया गया।
भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अगर ‘महायुति’ की जीत का बड़ा कारण ‘लाडकी बहिन योजना’ के बजाय ‘हिंदुत्व’ को बताना चाहता है तो उसके पीछे सरकार की इस शर्म को तलाश किया जा सकता है कि महाराष्ट्र जैसे औद्योगिक रूप से विकसित राज्य में भी नागरिक-ग़रीबी के हाल इतने बुरे हैं कि राहुल गांधी लोकतंत्र, संविधान, जाति जनगणना , अदानी और धारावी के मुद्दे उठाते रहे पर आर्थिक मदद के आगे मतदाताओं ने सभी मुद्दों को ठुकरा दिया। दुनिया के मंचों पर भारत की आर्थिक प्रगति का ढिंढोरा पीटते रहने वाली हुकूमत के लिए इससे ज़्यादा शर्मिंदा करने वाली और कोई बात नहीं हो सकती कि ग़रीब नागरिकों की पेट की आग लोकतंत्र की ज़रूरत पर ज़्यादा भारी पड़ रही है।
नई सरकार के अस्तित्व में आने बाद ‘लाडकी बहिन योजना’ में न सिर्फ़ तेरह लाख नई महिलाओं को जोड़ा जाएगा उन्हें प्रतिमाह दी जाने वाली राशि भी 1500 से बढ़ाकर 2100 की जाएगी। माना जा सकता है जैसे-जैसे राशि बढ़ती जाएगी, ‘महायुति’ की सीटें भी बढ़ती जाएँगी। आश्चर्यजनक नहीं कि योजना के चलते महिलाओं ने पिछले तीस सालों में पहली बार सबसे ज़्यादा मतदान किया। वर्तमान में महाराष्ट्र की साढ़े चार करोड़ से ज़्यादा महिला मतदाताओं में से ढाई करोड़ को योजना का लाभ मिल रहा है।
इतना ही नहीं ! महाराष्ट्र की 29 अनुसूचित जाति की सीटों में से 21 पर और अनुसूचित जनजाति की 24 सीटों में 21 पर भी ‘महायुति’ की जीत हुई ।’महाविकास अघाड़ी’ को दोनों वर्गों की कुल 53 सीटों में से सिर्फ़ 11 प्राप्त हुईं। अतः यह भी पूछा जा सकता है कि समाज के ये दोनों शोषित वर्ग चुनावों में राहुल गांधी द्वारा उठाई जा रही जाति जनगणना की माँग के साथ नहीं खड़े दिखना चाहते थे या फिर उनके भी महिलाओं की तरह ही ‘महायुति’ के साथ जाने के पीछे कोई आर्थिक कारण रहे ?
महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों का संबंध ‘महाविकास अघाड़ी’ के भविष्य के मुक़ाबले इस बात से ज़्यादा है कि राहुल गांधी इस हार का जवाब किस तरह देने वाले हैं ? कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी इंडिया गठबंधन आगे क्या करने वाला है ? हरियाणा और महाराष्ट्र में जीत का नेतृत्व अगर संघ ने किया है, भाजपा ने नहीं, तो राहुल गांधी को ऐसा क्यों नहीं स्वीकार कर लेना चाहिए कि उनका असली मुक़ाबला मोदी से नहीं बल्कि मोहन भागवत से है और कांग्रेस के पास उसके लिए अभी तैयारी नहीं है !
राहुल गांधी जिस तरह तमाम स्थानों पर अचानक से प्रकट होकर अलग-अलग क़िस्म के हुनर सीखते हुए दिखाई पड़ जाते हैं, अपने तमाम विरोध के बावजूद संघ और मोहन भागवत से भी अगर कुछ संगठनात्मक नुस्ख़े हासिल कर लें तो मोदी को हराने का उनका संघर्ष थोड़ा आसान हो सकता है। लड़ाई अब सड़कों और ख़ंदकों की बन गई है। राहुल उसे सिर्फ़ संसद में ओजस्वी भाषणों और विरोध-प्रदर्शन के ज़रिए नहीं जीत सकेंगे। उन्हें अपनी रणनीति भी बदलनी होगी और वह फ़ौज भी जो फ़ेवीकोल की तरह कांग्रेस संगठन के साथ चिपकी हुई है। सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी इस कड़वी हक़ीक़त को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने का साहस दिखा पाएँगे ?
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