Sanskrit in Jammu Kashmir Schools: जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा द्वारा स्कूलों में संस्कृत अनिवार्य करने के प्रस्ताव ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में विवाद खड़ा कर दिया है। गैर हिन्दी भाषी राज्यों में भाषा थोपने और नई शिक्षा नीति 2020 पर बहस छिड़ गई है।
जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल (एलजी) मनोज सिन्हा के सचिवालय द्वारा स्कूलों में संस्कृत को अनिवार्य या वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव विवादों में घिर गया है। यह प्रस्ताव राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के प्रावधानों के तहत एक NGO के प्रमुख पुरुषोत्तम लाल दूबे की याचिका के आधार पर आया है। हालांकि, जम्मू-कश्मीर सरकार ने स्पष्ट किया है कि इस प्रस्ताव को अभी तक मंजूरी नहीं दी गई है, और न ही स्कूलों में संस्कृत को अनिवार्य या वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल करने की कोई प्रक्रिया शुरू की गई है।
प्रस्ताव का विवरण
जम्मू-कश्मीर के स्कूल शिक्षा विभाग ने शनिवार (19 जुलाई 2025) को एक बयान जारी कर उन खबरों का खंडन किया, जिनमें दावा किया गया था कि कक्षा 6 से 10 तक संस्कृत को अनिवार्य और कक्षा 3 से 5 तक वैकल्पिक विषय के रूप में लागू किया जा रहा है। विभाग ने कहा कि यह प्रस्ताव केवल एक याचिका के आधार पर उपराज्यपाल के सचिवालय से स्कूल शिक्षा और उच्च शिक्षा विभाग को टिप्पणी के लिए भेजा गया था। विभाग ने स्पष्ट किया कि कोई औपचारिक प्रस्ताव, अनुमोदन या प्रक्रिया शुरू नहीं की गई है।
केंद्र सरकार का दबाव
कश्मीर, जो कि मुस्लिम-बहुल क्षेत्र है, में इस प्रस्ताव ने स्थानीय स्तर पर तनाव पैदा कर दिया है। सूत्रों के अनुसार, केंद्र सरकार द्वारा NEP 2020 के तहत संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए दबाव बनाया जा रहा है। हालांकि, राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी। इस संदर्भ में, कुछ स्थानीय नेताओं और संगठनों ने इस कदम को सांस्कृतिक और धार्मिक संवेदनशीलता के खिलाफ बताया है, क्योंकि कश्मीर में उर्दू और कश्मीरी जैसी भाषाओं का प्रभुत्व है।
जम्मू-कश्मीर सरकार का रुख
जम्मू-कश्मीर सरकार के एक प्रवक्ता ने कहा कि उपराज्यपाल के सचिवालय ने सामान्य प्रशासन विभाग (GAD) के माध्यम से इस याचिका को स्कूल शिक्षा विभाग को भेजा था, ताकि इस पर टिप्पणी मांगी जा सके। प्रवक्ता ने जोर देकर कहा कि विभाग ने संस्कृत को शामिल करने के लिए कोई प्रक्रिया शुरू नहीं की है और पाठ्यक्रम में किसी भी बदलाव के लिए पारदर्शी और परामर्शी प्रक्रिया का पालन किया जाएगा।
स्थानीय प्रतिक्रियाएं और विवाद
इस प्रस्ताव ने जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक और सामाजिक हलकों में बहस छेड़ दी है। कुछ संगठनों और नेताओं ने इसे क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान पर हमला बताया है, खासकर तब जब उर्दू को कथित रूप से नजरअंदाज करने का आरोप लगाया जा रहा है। दूसरी ओर, उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने पहले भी संस्कृत को जम्मू-कश्मीर में बढ़ावा देने की बात कही थी। 2021 में, उन्होंने कहा था कि जम्मू-कश्मीर हमेशा से वाराणसी की तरह संस्कृत का एक प्रमुख केंद्र रहा है और इसे बचाने की सामूहिक जिम्मेदारी है।
भाजपा और विपक्ष का रुख
भाजपा के कुछ नेताओं ने संस्कृत को बढ़ावा देने के इस विचार का समर्थन किया है, इसे NEP 2020 के अनुरूप और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने का कदम बताया है। हालांकि, विपक्षी दल, विशेष रूप से नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP), ने इस कदम को क्षेत्र की जनसांख्यिकीय और सांस्कृतिक संरचना के लिए असंवेदनशील माना है। कुछ नेताओं ने इसे केंद्र सरकार की उस नीति का हिस्सा बताया, जो जम्मू-कश्मीर की विशेष पहचान को कमजोर करने की कोशिश कर रही है।
NEP 2020 का संदर्भ
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में संस्कृत सहित भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने की बात कही गई है, लेकिन यह भी स्पष्ट किया गया है कि कोई भी भाषा किसी क्षेत्र पर थोपी नहीं जाएगी। जम्मू-कश्मीर में उर्दू को प्रशासनिक और शैक्षिक भाषा के रूप में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, और हाल ही में नायब तहसीलदार की भर्ती के लिए उर्दू को अनिवार्य करने के फैसले पर भाजपा विधायकों ने विरोध प्रदर्शन किया था। इस संदर्भ में, संस्कृत को अनिवार्य करने का प्रस्ताव स्थानीय समुदायों में असंतोष को और बढ़ा सकता है।
जम्मू-कश्मीर सरकार ने कहा है कि पाठ्यक्रम में किसी भी बदलाव से पहले सभी पक्षों के साथ परामर्श किया जाएगा और कोई भी निर्णय आधिकारिक तौर पर उचित चैनलों के माध्यम से सूचित किया जाएगा। विशेषज्ञों का मानना है कि इस मुद्दे पर केंद्र और राज्य प्रशासन के बीच तनाव बढ़ सकता है, क्योंकि यह न केवल शैक्षिक नीति से संबंधित है, बल्कि क्षेत्र की सांस्कृतिक और राजनीतिक संवेदनशीलताओं को भी प्रभावित करता है।
संस्कृत को स्कूलों में अनिवार्य करने का प्रस्ताव जम्मू-कश्मीर में एक संवेदनशील और विवादास्पद मुद्दा बन गया है। केंद्र सरकार के दबाव और स्थानीय असंतोष के बीच, इस प्रस्ताव का भविष्य अनिश्चित है। यह मामला क्षेत्र में सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिशीलता को और जटिल कर सकता है, खासकर तब जब जम्मू-कश्मीर पहले से ही राज्य के दर्जे की बहाली और अन्य संवैधानिक मुद्दों पर चर्चा कर रहा है।