उन्होंने चीन के नेता के साथ अपने गृह राज्य में नदी किनारे झूला झूला, उस विशाल पड़ोसी देश के नेता के साथ, जिसकी आर्थिक तरक़्क़ी की मिसाल को वह अपने मुल्क में दोहराना चाहते थे। मगर जब दोनों गुफ़्तगू कर रहे थे, उसी वक़्त चीनी और भारतीय फ़ौजें सरहद पर आमने-सामने आ गईं।
2014 का यह तनाव कई आक्रामक कार्रवाइयों में पहला था, जिसने आख़िरकार मोदी को शर्मिंदा कर दिया। यही नहीं, उनकी अर्थव्यवस्था को इस मजबूरी में जकड़ दिया कि हज़ारों भारतीय सैनिकों को कई बरस तक हिमालय की ऊँचाई पर जंग की तैयारी की हालत में तैनात रखना पड़ा।
सालों बाद, भारत के मज़बूत माने जाने वाले नेता ने अमेरिका की ओर गर्मजोशी से रुख़ किया और अपनी राजनीतिक पूंजी को दांव पर लगाकर एक ऐसे रिश्ते को तेज़ी से बदलना शुरू किया जो धीरे-धीरे शीतयुद्ध के दौर के ठंडेपन से निकल रहा था।
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अपने पहले कार्यकाल में मोदी ने राष्ट्रपति ट्रंप से इतनी क़रीबी बना ली कि उन्होंने प्रोटोकॉल तोड़कर ह्यूस्टन में खचाखच भरे स्टेडियम में उनके लिए चुनावी प्रचार किया (नारा लगाया-अबकी बार ट्रम्प सरकार)। बाइडन प्रशासन ने  उस पक्षपातपूर्ण क़दम को नज़रअंदाज़ करते हुए, चीन के ख़िलाफ़ भारत को एक अहम सहयोगी मानकर रिश्ते को आगे बढ़ाया जिससे मोदी का भरोसा और बढ़ गया।
पिछले साल अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र में मोदी ने, जिन्हें नए संक्षेप बनाने का शौक़ है, कहा — “A.I.” का मतलब है “अमेरिका और इंडिया।” 
लेकिन फिर ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में मोदी को बहुत सार्वजनिक तौर पर अपमान का सामना करना पड़ा। राष्ट्रपति ने पहले 25 फ़ीसदी और फिर रूस से तेल ख़रीदने का हवाला देते हुए 25 फ़ीसदी और यानी 50 फीसदी का भारी-भरकम टैरिफ़ लगा दिया।
साथ ही उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था को “मरी हुई” भी कह दिया।  उन्होंने भारत के छोटे लेकिन कट्टर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान को जिसे पहले वे “आतंकवाद का सरपरस्त मुल्क” कह चुके थे, बराबरी का दर्जा देकर दोनों पड़ोसियों के बीच विवाद सुलझाने की कोशिश की, जिससे भारत में ग़ुस्सा भड़क उठा।
इन सबने भारत को एक आत्म-मंथन के दौर में धकेल दिया, जिससे उसकी विशालता और बढ़ती अर्थव्यवस्था के बावजूद, वैश्विक मंच पर उसकी शक्ति की सीमाएँ उजागर हो गईं। मोदी ने इस हफ़्ते माना कि व्यापार विवाद के लिए उन्हें व्यक्तिगत रूप से राजनीतिक क़ीमत चुकानी पड़ सकती है।
अब बीजिंग के साथ रिश्ते दोबारा गरमाने की कोशिशें बढ़ी हैं और सात साल में पहली बार मोदी इस महीने के अंत में वहाँ जाने वाले हैं। लेकिन सीमा पर टकराव और पाकिस्तान के साथ हालिया सैन्य तनाव में चीन के समर्थन की वजह से रिश्ते अब भी तनावपूर्ण हैं। उधर, चीन नई दिल्ली की उन कोशिशों से सावधान है कि वह खुद को मैन्युफैक्चरिंग का विकल्प तैयार करना चाहती है।
मोदी फ़ोन डिप्लोमैसी में भी लगे हैं। उन्होंने ब्राज़ील के राष्ट्रपति लूला दा सिल्वा से बात की, जो ख़ुद ट्रंप से टकराव में फंसे हैं। उन्होंने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से बात की और कहा कि दोनों पक्ष “भारत-रूस विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी” को और गहरा करने पर सहमत हुए हैं। रूस की स्थिरता को भारत के अधिकारी खुले तौर पर सराह रहे हैं। मोदी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार इस हफ़्ते मॉस्को में थे, ताकि पुतिन की नई दिल्ली यात्रा के कार्यक्रम को अंतिम रूप दे सकें।
“मैं इस साल बाद में भारत में राष्ट्रपति पुतिन की मेज़बानी करने का इंतज़ार कर रहा हूँ,” मोदी ने एक्स पर लिखा।
लेकिन इस अफ़रा-तफ़री और प्रतिरोध के बीच, एक आर्थिक और कूटनीतिक ताक़त के रूप में भारत के उभार को पक्का करने का सपना अचानक पैदा हुई अनिश्चितता से फीका पड़ गया है।

भारत उन दो महाशक्तियों के बीच फंसा है, जिन्होंने तनाव के मौक़ों पर उसे नीचा दिखाने में हिचकिचाहट नहीं की। अब वह ये महसूस कर रहा है कि उसे अपनी पुरानी “रणनीतिक स्वायत्तता” की नीति पर लौटना होगा। सीधी ज़बान में, इसका मतलब है कि भारत को अपने दम पर चलना होगा, टुकड़ों-टुकड़ों में रिश्ते बनाने होंगे और किसी एक गठबंधन में ज़्यादा न उलझना होगा।

बीजिंग और वॉशिंगटन में भारत की राजदूत रह चुकीं निरुपमा राव ने कहा कि ट्रंप के कठोर क़दमों ने “एक बहुत अहम साझेदारी की रणनीतिक बुनियाद” हिला दी है, जिसे दो दशक से ज़्यादा वक़्त में सावधानी से बनाया गया था। नई दिल्ली अब “बहुत व्यावहारिक रणनीतिक तालमेल” करेगी, ताकि अपने हितों की रक्षा कर सके। उन्होंने कहा, यह भारत के लिए “गहरे आत्म-निरीक्षण” का वक़्त है।
उन्होंने कहा, “हमें इससे सबक़ लेना होगा और वाक़ई राष्ट्रीय प्राथमिकताओं पर ध्यान देना होगा — और यह तय करना होगा कि मज़बूत और असरदार बनने के लिए हमें क्या करना चाहिए।”
नई दिल्ली और वॉशिंगटन के बीच आधिकारिक बातचीत पूरी तरह टूटी नहीं है। ट्रंप का यह ऐलान कि रूस के साथ व्यापारिक रिश्तों की सज़ा के तौर पर 25 फ़ीसदी का अतिरिक्त टैरिफ़ इस महीने के अंत में लागू होगा, संकेत देता है कि यह शायद बेहतर व्यापार समझौता हासिल करने की एक दबाव-रणनीति हो, और रूस को यूक्रेन में समझौते पर मजबूर करने का तरीक़ा भी।
रूसी तेल की ख़रीद को केंद्र में लाने से पहले भारतीय अधिकारियों का कहना था कि ट्रंप की व्यापक चिंता यानी व्यापार संतुलन पर प्रगति हो रही थी। भारत अमेरिकी ऊर्जा और रक्षा सामान की ख़रीद बढ़ाने को तैयार था।
कई दौर की बातचीत के बाद, भारत और अमेरिका की तकनीकी टीमें गर्मियों तक पहले चरण के द्विपक्षीय समझौते को अंतिम रूप देने के क़रीब थीं। भारत ने अपनी लंबे समय से सुरक्षित कृषि मंडी को कुछ हद तक खोलने की भी हामी भरी थी, जो अब तक बातचीत में एक अड़चन रही थी।
जी-20 मामलों में मोदी के विशेष दूत रहे अमिताभ कांत ने कहा है कि ट्रंप ने पारंपरिक अमेरिकी सहयोगियों पर भी दबाव की राजनीति अपनाई है, और भारत अब भी एक पारस्परिक लाभकारी व्यापार समझौते तक पहुँच सकता है। लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि भले ही व्यापार मसले सुलझ जाएँ, भरोसा हमेशा के लिए खो जाएगा।
अगर चीन की आक्रामकता पर मोदी की प्रतिक्रिया कोई संकेत देती है, तो विश्लेषकों का मानना है कि वह अमेरिका के साथ बिगड़े रिश्ते को चुपचाप और बिना सार्वजनिक टकराव के सुलझाने की कोशिश करेंगे।
चीन के साथ जानलेवा सीमा घुसपैठ के बाद मोदी की प्रतिक्रिया नपे-तुले अंदाज़ में थी। बीजिंग से साझा ख़तरे का हवाला देते हुए उन्होंने अमेरिका के साथ रक्षा, तकनीक और समुद्री रिश्ते बढ़ाए, लेकिन उनके अधिकारी इस बात से बचते रहे कि अमेरिका उन्हें बीजिंग के ख़िलाफ़ मोहरा बना दे। यही परहेज़ पिछले अक्टूबर से रिश्ते सुधारने की कोशिश को संभव बना रहा, जब दोनों तरफ़ के अधिकारी गंभीर बातचीत में जुटे।
ट्रंप के ऊँचे टैरिफ़ के ऐलान के बाद मोदी के समर्थक वर्ग में उनका विरोध सीमित रहा और मोदी ने अपनी चुनौती को जनता की रोज़ी-रोटी की हिफ़ाज़त के तौर पर पेश किया। मोदी ने इस हफ़्ते एक जनसभा में कहा, “भारत अपने किसानों, मछुआरों और डेयरी किसानों के हितों पर कभी समझौता नहीं करेगा। मुझे पता है कि इसके लिए मुझे व्यक्तिगत रूप से भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी, और मैं इसके लिए तैयार हूँ।”
असल में, रिश्ते बिगड़ने की शुरुआत ट्रंप के रूसी तेल पर ध्यान देने से पहले ही हो चुकी थी। कुछ अधिकारियों और विश्लेषकों का कहना है कि रिश्तों में दरार शायद किसी व्यक्तिगत नाराज़गी से जुड़ी है। इस साल वसंत में भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़कर कई दिनों तक सीमा-पार झड़पों में बदल गया। तब ट्रंप ने ऐलान किया कि उन्होंने दोनों पक्षों पर दबाव डालकर युद्धविराम कराया।
पाकिस्तानी अधिकारियों ने इसका स्वागत किया — और बाद में कहा कि उन्होंने ट्रंप का नाम नोबेल शांति पुरस्कार के लिए भेजा — मगर भारतीय अधिकारियों ने अमेरिकी राष्ट्रपति के इस दावे का खंडन किया। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि यह मोदी की सैन्य ताक़त थी जिसने पाकिस्तान को युद्धविराम के लिए मजबूर किया।
लेखक और मोदी के पूर्ववर्ती के सलाहकार रहे संजय बारू ने कहा, “आज हमारे पास एक ऐसा अमेरिकी राष्ट्रपति है जो बहुत अहंकारी है और जिसकी लीडरशिप स्टाइल बेहद निजी है और एक भारतीय प्रधानमंत्री है जो भी बहुत अहंकारी है और जिसकी लीडरशिप स्टाइल भी बेहद निजी है। जब दो नेता राष्ट्रों के रिश्ते को नेताओं के निजी रिश्ते में बदल देते हैं, तो शायद यही वह क़ीमत है जो हम चुका रहे हैं।”
(यह लेख न्यूयॉर्क टाइम्स से साभार)