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कृषि क़ानूनों पर क्या कहना है विशेषज्ञों का?

साल 2012-13 का आर्थिक सर्वेक्षण रघुराम राजन ने तैयार किया था , जो बाद में रिजर्व बैंक के गवर्नर बने। उसमें कहा गया था कि ऐसी व्यवस्था तैयार करना ज़रूरी है जो खेती को थोक प्रसंस्करण, ढुलाई और रिटेलिंग यानी खुदरा बिक्री से जोड़ दे, ताकि बेहतर उपज, बेहतर कीमत वगैरा हासिल किए जा सकें। इन कड़ियों को जोड़ने या तैयार करने के काम में निजी क्षेत्र को शामिल करना चाहिए। 
आलोक जोशी
भारत सरकार किसानों की भलाई के नाम पर जो तीन नए क़ानून ले कर आई है, उनसे किसानों को फ़ायदा होगा या नुक़सान, यह बहस बहुत जोर-शोर से चल रही है। किसान सड़क पर हैं। सरकार उन्हें समझाने के लिए तरह तरह के उपाय करने में जुटी है और अब तो मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुँच चुका है।
इन कानूनों के समर्थक एक बात बार-बार कहना नहीं भूलते कि जो लोग विरोध कर रहे हैं उन्होंने कानून ठीक से पढ़े तक नहीं हैं। दूसरा तर्क यह है कि जो विद्वान आज इन कानूनों का सबसे ज्यादा विरोध कर रहे हैं, पिछले 20-22 सालों में वही इन सुधारों के सबसे बड़े पैरोकार रहे हैं।
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क्या कहना है विशेषज्ञों का?

भारत सरकार के मंत्री और अफ़सर तो इन कानूनों का समर्थन कर ही रहे हैं, ऐसे बहुत से विशेषज्ञ भी खुलकर मैदान में आ गए हैं जो सरकार के कदम को सही ठहरा रहे हैं। कुछ ही समय पहले मशहूर मैनेजमेंट गुरु गुरचरण दास ने अपने कॉलम में लिखा कि इन कानूनों को वापस लेने की माँग दूसरी हरित क्रांति की हत्या करने जैसी है। 
कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी और रमेश चांद भी अलग- अलग मंचों पर लगातार बता रहे हैं कि ये क़ानून किसानों और खेती के लिए कैसे फायदेमंद होंगे। दूसरी तरफ आंदोलन से जुड़े किसानों की तरफ से भी इनके तुर्की-ब-तुर्की जवाब आ रहे हैं।

पानगढ़िया का समर्थन

बहस को एक नई ऊँचाई मिल गई है नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पानगढ़िया के समर्थन में आने से। पानगढ़िया नीति आयोग का पद छोड़कर विदेश गए थे और माना जाता है कि वे मोदी सरकार के प्रशंसक या समर्थक नहीं हैं।
इसके बावजूद 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' में उन्होंने इन क़ानूनों के समर्थन में एक लंबा लेख लिखा है और बिंदुवार समझाया है कि खेती से जुड़े कारोबार में बड़ी कंपनियों के आने से मंडियाँ ख़त्म नहीं होंगी, उल्टे इनसे किसान की उपज के लिए बड़ा बाज़ार मिलना संभव होगा। 

कौशिक बसु ने पाला बदला?

उन्होंने इस बात पर हैरानी जताई है कि कैसे कुछ जानेमाने अर्थशास्त्री इस मामले में पाला बदलते नज़र आ रहे हैं। उन्होंने बाकायदा नाम लेकर उदाहरण दिए हैं कि यूपीए सरकार के दो आखिरी मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु और रघुराम राजन अपने आर्थिक सर्वेक्षणों में यही कदम उठाने की पैरवी करते थे और अब वे इन क़ानूनों का विरोध करते हैं। 
उनका पहला उदाहरण है वित्त वर्ष 2011-12 का आर्थिक सर्वेक्षण, जिसे कौशिक बसु ने तैयार किया। इसमें कहा गया है कि कोई किसान अगर मंडी के बाहर या अपने खेत पर ही अपना अनाज बेचने के लिए बेहतर दाम और बेहतर शर्तें पा सकता है तो उसे इसकी आज़ादी मिलनी चाहिए।
कौशिक बसु ने यह भी लिखा था कि फसल तैयार होने या कटने के बाद जो सुविधाएँ चाहिए, उनकी कमी और इसके लिए भारी निवेश की ज़रूरत देखते हुए कृषि उपज के संगठित कारोबार को बढ़ावा देने की ज़रूरत है।
उनका मानना था कि एक बार मल्टी- ब्रांड रिटेल में सीधे विदेशी निवेश की इजाज़त मिल गई तो यह काम काफी आसान हो जाएगा। 

क्या कहा था राजन ने?

इसके अगले साल 2012-13 का आर्थिक सर्वेक्षण रघुराम राजन ने तैयार किया था, जो बाद में रिजर्व बैंक के गवर्नर बने। उसमें भी करीब करीब यही बात फिर से मौजूद थी।
farm laws 2020 : experts opinion divided on farmers' agitation - Satya Hindi
रघुराम राजन, पूर्व गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक
इस सर्वेक्षण में कहा गया कि ऐसी व्यवस्था तैयार करना ज़रूरी है जो खेती को थोक प्रसंस्करण, ढुलाई और रिटेलिंग यानी खुदरा बिक्री से जोड़ दे, ताकि बेहतर उपज, बेहतर कीमत वगैरह हासिल किए जा सकें। इन कड़ियों को जोड़ने या तैयार करने में निजी क्षेत्र को शामिल करना चाहिए।
राजन ने यह भी कहा था कि अब रिटेल में सीधे विदेशी निवेश को मंजूरी भी मिल चुकी है, जिससे खेती में उन्नत तकनीक और फसल की बेहतर मार्केटिंग के लिए निवेश मिलने का रास्ता आसान हो सकता है।

विदेशी निवेश का समर्थन?

इसके बाद पानगढ़िया कहते हैं कि दोनों ने कृषि उपज की मार्केटिंग में न सिर्फ देशी बल्कि विदेशी कंपनियों के भी प्रवेश का समर्थन किया था, और अब ये दोनों कहते हैं कि ऐसा करने से किसानों के शोषण का रास्ता खुल जाएगा। 
farm laws 2020 : experts opinion divided on farmers' agitation - Satya Hindi
वे यह गुंजाइश भी सामने रखते हैं कि हो सकता है कि इन दोनों के विचार पहले से ही ऐसे रहे हों, लेकिन क्योंकि वे सरकार के लिए काम कर रहे थे, इसलिए उन्होंने खुद सहमत न होते हुए भी यह बात सर्वे में लिखीं। लेकिन दोनों में से एक ने भी ऐसा कहा हो, यह जानकारी अभी तक तो मिली नहीं है।
पानगढ़िया इन कानूनों का विरोध करनेवाले सभी जानकारों को चुनौती सी देते हैं कि वे बताएं कि कोई प्राइवेट कंपनी किस तरह किसानों का शोषण करेगी, मंडी समितियों के उन ठेकेदारों और व्यापारियों के गठजोड़ से किसानों को मुक्ति नहीं मिलेगी जो बिना उससे कोई राय मशविरा किए उसकी फसलें मनमाने दामों पर खरीदते- बेचते रहे हैं?
पानगढ़िया याद दिलाते हैं कि पंजाब के दूध उत्पादक बरसों से अपने उत्पाद नेस्ले और हैटसुन जैसी कंपनियों को बेच कर फ़ायदा उठाते रहे हैं। वहां किसान खतरे में नहीं पड़े तो अब यह डर क्यों है?

किसानों को भरोसे में नहीं लिया!

और भी बहुत से आंकड़ों, दृष्टांतों और उदाहरणों के साथ अपनी बात पर जोर देते हुए पानगढ़िया इस सवाल का भी जवाब देते हैं कि यह फ़ैसला करने से पहले इस मसले पर किसानों को भरोसे में क्यों नहीं लिया गया। 
उनका कहना है कि यदि सुधारों को लागू करने के पहले ज़मीन तैयार होने का इंतजार किया जाता तो दूरसंचार और विमानन से लेकर जीएसटी तक, अब तक के सारे बड़े सुधारों को लागू करना मुश्किल होता। उनका कहना है कि उल्टे यह किसानों को इस फायदे से वंचित करते रहने का बहाना भी बन सकता था। 
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इसी अख़बार में ठीक इसके सामने उन कौशिक बसु का लेख भी छपा है, जिनके नाम और आर्थिक सर्वेक्षण का जिक्र अरविंद पानगढ़िया के लेख में है। कौशिक बसु के साथ कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर निर्विकार सिंह भी इस लेख के लेखक हैं। दोनों जाने माने अर्थशास्त्री हैं।
बसु भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार और विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री रहे हैं। जाहिर है वे सुधारों के आलोचक या विरोधी नहीं हैं। उन्होंने अपने लेख की शुरुआत में ही बताया कि वे क्या क्या मानते रहे हैं कि भारत के कृषि क़ानून पुराने पड़ चुके हैं, एपीएमसी एक्ट में सुधार ज़रूरी है, कुल मिलाकर कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधारों की ज़रूरत  है। 

छोटे किसानों का क्या होगा?

दोनों लेखक कहते हैं कि ऐसे देखें तो हमें इन सुधारों से खुश होना चाहिए था। लेकिन बारीकी से कानूनों को पढ़ने के बाद उन्हें पूरा विश्वास है कि यह नए कानून किसानों को नुक़सान पहुँचाएंगे, ख़ासकर छोटे और सीमांत किसानों को। उनका कहना है कि मोटे तौर पर देखने में यह बात समझना मुश्किल है कि इन क़ानूनों की इबारत के बीच क्या- क्या छिपा है। 
किसानों के लिए विकल्प खुलें, यह अच्छी बात है, लेकिन बाज़ार खुलने के साथ साथ खतरों के लिए भी रास्ते खुल जाते हैं। इन कानूनों में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि उन खतरों से बचने का क्या इंतजाम है। ख़ासकर ग़रीब किसानों के लिए। 

किसानों का डर बाजिव?

इसीलिए यह लेखक मानते हैं कि किसानों के मन में जो डर है वह वाजिब है। उनका मानना है कि एमएसपी और सरकारी खरीद की व्यवस्था धीरे धीरे गायब होती जाएंगी और उसकी जगह लेंगी ऐसी कंपनियां जो बाज़ार में बहुत ताक़तवर होंगी। आज की व्यवस्था में भी शक्ति संतुलन सही नहीं है, लेकिन नई व्यवस्था में यह असंतुलन बहुत बढ़ जाएगा, खासकर छोटे किसानों के संदर्भ में। 
जमाखोरी पर लिमिट हटाने और किसी भी गड़बड़ी की शिकायत के लिए क़ानूनी मदद का रास्ता बंद करने के मामले के अलावा दोनों लेखक यह देखकर भी चिंतित हैं कि नए कानूनों की पूरी व्यवस्था यह नजरंदाज़ कर रही है कि दुनिया भर में किसानों को सब्सिडी और संरक्षण दिया जाता है, अमेरिका में भी औऱ चीन में भी। 

खुलेपन के ख़तरे

ऐसे में किसानों की मदद करने और उनके जोखिम कम करने के लिए खड़े किए गए पूरे तंत्र को ख़त्म करने की कोशिशें उन्हें बड़े ख़तरे की ओर धकेल सकती हैं। 
क़ानून बनाते समय इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि खुले बाज़ार और विकल्प की आज़ादी के नाम पर कहीं लोगों को ग़ुलामी चुनने के लिए मजबूर तो नहीं होना पड़ेगा।
खुले बाज़ार के सबसे बड़े गढ़ अमेरिका ने भी यह बात 1980 में ही समझ ली थी और बड़ी कंपनियों की ताकत पर अंकुश लगाने के लिए क़ानून बना दिया था। 
पिछले दिनों दुनिया भर में जाने माने विश्लेषक लगातार यह चिंता जता रहे हैं कि डिजिटल दुनिया में एकाधिकार की प्रवृत्ति रखनेवालों की ताक़त बढ़ रही है और सरकारों को अपने छोटे दुकानदारों और कामगारों की हिफ़ाजत के लिए कदम उठाने पड़ेंगे। 
क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कृषि क़ानूनों पर लोगों को गुमराह कर रहे हैं? वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष ने आन्दोलन से जुड़े योगेंद्र यादव से ख़ास बात की। 

सुधार ज़रूरी!

इन लेखकों का अब भी मानना है कि कृषि कानूनों में सुधार और उदारीकरण की ज़रूरत है। लेकिन नए क़ानूनों में कुछ गंभीर समस्याएं हैं और जिस ग़ैर-लोकतांत्रिक तरीके से उन्हें लागू किया गया उसमें भी। 
वे कहते हैं कि अब इनमें थोड़े बहुत बदलाव से भी हालात काबू में नहीं आएंगे। सरकार को इन्हें वापस लेकर नए सिरे से क़ानून लिखने का काम करना होगा। इस बार उसमें राज्यों को भी बराबर से शामिल किया जाना ज़रूरी है।    
गाँव, ग़रीब और हाशिए पर पड़े लोगों के लिए पत्रकारिता करनेवाले पी. साईनाथ ने इन क़ानूनों को  बारीकी से पढ़ा है। उनका कहना है कि ये क़ानून असंवैधानिक हैं और किसानों का विरोध एकदम सही है। उनका यह भी कहना है कि बात सिर्फ किसान की नहीं है।
उनका कहना है कि खेती न करनेवाले भारतीय नागरिकों को भी पढ़ना और समझना चाहिए कि यह क़ानून दरअसल उनके भी ख़िलाफ़ हैं और उन्हें भी आवाज़ उठानी चाहिए।
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