सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान वक़्फ़ की रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया 1923 से ही अनिवार्य होने का ज़िक्र किया। तो क्या फ़ैसले का यह बड़ा आधार बनेगा? जानिए, कोर्ट में क्या दलीलें दी गईं।
सुप्रीम कोर्ट ने वक़्फ़ संशोधन अधिनियम पर रोक लगाने की मांग वाली याचिकाओं पर सुनवाई पूरी होने के बाद अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है। कोर्ट ने इस दौरान वक़्फ़ संपत्तियों के रजिस्ट्रेशन को लेकर अहम टिप्पणी की। इसमें कहा गया कि 1923 के वक़्फ़ अधिनियम के तहत वक़्फ़ संपत्तियों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य था। यह मामला देश भर में वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन और नए क़ानून के प्रावधानों को लेकर चल रहे विवाद के बीच काफ़ी अहम है। वक़्फ़ संशोधन अधिनियम को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएँ दायर की गई हैं, जिनमें इस क़ानून पर रोक लगाने की मांग की गई है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह क़ानून वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन और उनके धार्मिक महत्व को प्रभावित करता है। केंद्र सरकार का कहना है कि इसने इस क़ानून को वक़्फ़ बोर्ड के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए पेश किया है। हालाँकि, विपक्ष और कई मुस्लिम संगठनों ने इसे इस्लामिक परंपराओं और वक़्फ़ की स्वायत्तता पर हमला बताया है।
सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली बेंच ने इस मामले में लगातार तीसरे दिन सुनवाई की। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने याचिकाकर्ताओं की ओर से दलील दी कि 1923 के वक़्फ़ अधिनियम के तहत वक़्फ़ संपत्तियों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य था, लेकिन ग़ैर-रजिस्टर्ड संपत्तियां भी वक़्फ़ का दर्जा रखती थीं। उन्होंने कहा कि नया क़ानून वक़्फ़ संपत्तियों के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को कमजोर कर सकता है। केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए वकीलों ने कोर्ट में कहा कि वक़्फ़ सिर्फ़ एक चैरिटेबल संस्था है और यह इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। उन्होंने तर्क दिया कि वक़्फ़ संशोधन अधिनियम 2025 का उद्देश्य वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता लाना और ग़ैर-मुस्लिम सदस्यों को वक़्फ़ बोर्ड और काउंसिल में शामिल करके समावेशिता को बढ़ावा देना है।केंद्र सरकार की दलील
केंद्र ने यह भी कहा कि नए क़ानून के तहत पुरानी मस्जिदों या वक़्फ़ संपत्तियों के दस्तावेजों की मांग अव्यावहारिक नहीं है, क्योंकि रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था 1923 से ही लागू है।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने वक़्फ़ संपत्तियों के रजिस्ट्रेशन को लेकर अहम टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा, '1923 के क़ानून के तहत वक़्फ़ संपत्तियों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य था।' सीजेआई ने यह भी पूछा कि क्या पुराने क़ानून के तहत ग़ैर-रजिस्टर्ड संपत्तियां वक़्फ़ का दर्जा खो देती थीं, जिस पर कपिल सिब्बल ने जवाब दिया कि ऐसी संपत्तियां भी वक़्फ़ मानी जाती थीं। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि ग़ैर-मुस्लिमों को वक़्फ़ बोर्ड में शामिल करना जैसे वक़्फ़ संशोधन अधिनियम के कुछ प्रावधान विवादास्पद हो सकते हैं।सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
वक़्फ़ संशोधन अधिनियम में कई बदलाव प्रस्तावित हैं। वक़्फ़ बोर्ड में ग़ैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान मुस्लिम संगठनों के बीच विवाद का कारण बना है। वे इसे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप मानते हैं। नए क़ानून में पुरानी वक़्फ़ संपत्तियों के दस्तावेजों की जाँच और पुनर्मूल्यांकन का प्रावधान है, जिसे लेकर याचिकाकर्ताओं ने आपत्ति जताई है।वक़्फ़ पर क्या है विवाद?
केंद्र सरकार ने वक़्फ़ काउंसिल में भी ग़ैर-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करने का प्रावधान किया है, जिसे कई मुस्लिम संगठनों और विपक्ष ने अल्पसंख्यक अधिकारों पर हमला बताया है।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि 200-300 साल पुरानी मस्जिदों या वक़्फ़ संपत्तियों के दस्तावेज उपलब्ध कराना मुश्किल है और नए क़ानून के तहत ऐसी संपत्तियों को डी-नोटिफाई किया जा सकता है। कपिल सिब्बल ने कोर्ट में कहा कि यह क़ानून वक़्फ़ संपत्तियों की प्रकृति को बदल सकता है और धार्मिक स्वायत्तता को कमजोर कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है। कोर्ट ने पहले 16 अप्रैल 2025 को वक़्फ़ संशोधन अधिनियम पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था, लेकिन यह सुनिश्चित किया था कि वक़्फ़ बोर्ड और काउंसिल में ग़ैर-मुस्लिमों की नियुक्ति और वक़्फ़ संपत्तियों को डी-नोटिफाई करने की प्रक्रिया पर रोक रहेगी। गुरुवार को हुई सुनवाई में कोर्ट ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया।
यह मामला न केवल क़ानूनी, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक रूप से भी संवेदनशील है। कांग्रेस और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन जैसे विपक्षी दलों ने इस क़ानून को अल्पसंख्यक विरोधी क़रार दिया है। दूसरी ओर, बीजेपी ने इसे वक़्फ़ बोर्ड में सुधार और पारदर्शिता लाने का क़दम बताया है। सोशल मीडिया पर इस मुद्दे को लेकर तीखी बहस चल रही है, जिसमें कुछ लोग इसे धार्मिक स्वायत्तता पर हमला बता रहे हैं, तो कुछ इसे प्रशासनिक सुधार का ज़रूरी क़दम मान रहे हैं। वक़्फ़ संशोधन अधिनियम 2025 को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई ने देश भर में वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन और धार्मिक स्वायत्तता के सवाल को फिर से चर्चा में ला दिया है। कोर्ट की टिप्पणी कि 1923 से वक़्फ़ रजिस्ट्रेशन अनिवार्य था, इस मामले में एक अहम आधार प्रदान करती है। अब सभी की निगाहें सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फ़ैसले पर टिकी हैं।