सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को वक्फ संशोधन अधिनियम के लागू होने के बाद देश के कुछ हिस्सों में भड़की हिंसा पर गहरी चिंता व्यक्त की। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने इस हिंसा को बेहद परेशान करने वाला करार देते हुए कहा कि जब मामला न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है, तब इस तरह की हिंसा नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने यह टिप्पणी वक्फ संशोधन अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई के दौरान की।

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में वक्फ संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों के दौरान हिंसा भड़क उठी थी। इसमें वाहनों को जलाने और संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की घटनाएं सामने आईं। कुछ क्षेत्रों में हिंदू समुदाय के लोग अपने घरों से भागने को मजबूर हुए, क्योंकि उन्हें अपनी सुरक्षा को लेकर ख़तरा महसूस हुआ। याचिकाकर्ताओं की ओर से पैरवी कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने भी हिंसा को रोकने की ज़रूरत पर जोर दिया।

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मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने सुनवाई के दौरान कहा, 'एक बात जो बहुत परेशान करने वाली है, वह है हिंसा। यह मामला अदालत के समक्ष है और हम इस पर फैसला करेंगे। इस तरह की घटनाएँ नहीं होनी चाहिए।' उन्होंने यह भी साफ़ किया कि अदालत इस मामले की गंभीरता को समझती है और इसका निष्पक्ष समाधान करेगी।

केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने हिंसा पर चिंता जताते हुए कहा कि ऐसा नहीं लगना चाहिए कि हिंसा का उपयोग इस तरह के मामलों में दबाव डालने के लिए किया जा सकता है। उन्होंने अदालत से अनुरोध किया कि इस तरह की घटनाओं को गंभीरता से लिया जाए।

वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 को हाल ही में संसद ने पारित किया है। यह विधेयक 5 अप्रैल को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी के बाद क़ानून बन गया। कहा गया है कि इस अधिनियम का उद्देश्य वक्फ बोर्डों के प्रबंधन और प्रशासन में सुधार लाना है, जिसमें गैर-मुस्लिम सदस्यों को बोर्ड में शामिल करने का प्रावधान शामिल है। सरकार ने इसे पारदर्शिता और समावेशिता बढ़ाने के क़दम के रूप में पेश किया है। हालाँकि, इस संशोधन को कई संगठनों और नेताओं ने धार्मिक स्वायत्तता पर हमला बताते हुए इसकी आलोचना की है।

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड यानी एआईएमपीएलपी, जमीयत उलमा-ए-हिंद, एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी, डीएमके, और कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी और मोहम्मद जावेद सहित अन्य ने इस अधिनियम की वैधता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में दर्जनों याचिकाएँ दायर की हैं।

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कई महत्वपूर्ण सवाल पूछे। मुख्य न्यायाधीश खन्ना ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा, 'क्या आप तैयार हैं कि मुस्लिमों को हिंदू धार्मिक न्यासों का हिस्सा बनने की अनुमति दी जाए? खुलकर बोलें।' यह सवाल वक़्फ़ बोर्डों में ग़ैर-मुस्लिमों को शामिल करने के प्रावधान के जवाब में उठा, जिससे धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन में समानता और धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा सामने आया।


कोर्ट ने यह भी पूछा कि क्या यह संशोधन संविधान के अनुच्छेद 14 यानी समानता का अधिकार और अनुच्छेद 25 यानी धार्मिक स्वतंत्रता के अनुरूप है। इसके अलावा, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि सैकड़ों साल पुरानी मस्जिदों के दस्तावेज उपलब्ध कराना व्यावहारिक नहीं है, जिस पर कोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा।

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सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने यूज़र द्वारा वक्फ को रद्द करने की व्यावहारिकता पर चिंता जताई। भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने देखा कि कई पुरानी मस्जिदें, खासकर 14वीं से 16वीं सदी की मस्जिदें, रजिस्टर्ड सेल डीड्स नहीं रखती हैं। सीजेआई ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा, 'आप ऐसे वक्फ बाय यूज़र को कैसे पंजीकृत करेंगे? उनके पास कौन से दस्तावेज होंगे?' उन्होंने चेतावनी दी कि ऐसे वक्फ को रद्द करने से बड़े मुद्दे पैदा हो सकते हैं।

यह स्वीकार करते हुए कि कानून का कुछ दुरुपयोग होता है, मुख्य न्यायाधीश ने जोर देकर कहा कि वास्तविक वक्फ संपत्तियाँ भी हैं जिन्हें लंबे समय से उपयोग के माध्यम से मान्यता दी गई है। उन्होंने कहा, 'मैंने प्रिवी काउंसिल के फैसलों को भी पढ़ा है। वक्फ बाय यूज़र को मान्यता दी गई है। अगर आप इसे रद्द करते हैं तो यह एक समस्या होगी।'

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना आदेश सुरक्षित रख लिया है और सुनवाई गुरुवार को दोपहर 2 बजे फिर से शुरू होगी। कोर्ट के फ़ैसले का न केवल वक्फ बोर्डों, बल्कि तिरुपति तिरुमाला देवस्थानम या शिरडी साईं बाबा ट्रस्ट जैसे अन्य धार्मिक न्यासों के प्रबंधन पर भी प्रभाव पड़ सकता है।

सामाजिक दृष्टिकोण से यह मामला भारत की धर्मनिरपेक्षता और बहु-सांस्कृतिक सौहार्द के लिए एक अहम परीक्षा है। हिंसा की घटनाएँ समुदायों के बीच तनाव को उजागर करती हैं। यदि नीतियाँ असमान रूप से लागू की गईं तो यह अविश्वास को और बढ़ा सकता है। दूसरी ओर, यदि कोर्ट समावेशी और निष्पक्ष नज़रिए को बरकरार रखता है तो यह धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन के लिए एक नया मॉडल दे सकता है।

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केंद्र सरकार ने 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में एक कैविएट दायर किया था, जिसमें मांग की गई थी कि इस मामले में कोई भी आदेश पारित करने से पहले उसकी बात सुनी जाए। सरकार का तर्क है कि यह संशोधन वक्फ संपत्तियों के बेहतर प्रबंधन और दुरुपयोग को रोकने के लिए ज़रूरी है। हालांकि, याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह मुस्लिम समुदाय के धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप करता है।


सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी और हिंसा की निंदा न केवल वक्फ संशोधन अधिनियम पर विवाद को रेखांकित करती है, बल्कि भारत में धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन में समानता, पारदर्शिता और संवैधानिक सिद्धांतों के पालन के महत्व को भी सामने लाती है। कोर्ट का अंतिम फ़ैसला इस बात को निर्धारित करेगा कि क्या यह क़ानून सामाजिक सौहार्द को बढ़ावा देगा या तनाव को और गहरा करेगा। इस बीच, हिंसा की घटनाएँ सामाजिक एकता के लिए ख़तरे का संकेत देती हैं।