तमिलनाडु सरकार ने पहली बार 10 कानूनों को गवर्नर की मंजूरी के बिना अधिसूचित किया है। अटॉर्नी जनरल ने इस पर संवैधानिक सवाल उठाए हैं। गृह मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार याचिका दाखिल कर सकता है।
तमिलनाडु सरकार ने एक ऐतिहासिक क़दम उठाते हुए पहली बार बिना राज्यपाल की मंजूरी के 10 क़ानूनों को अधिसूचित कर दिया है। यह क़दम सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले के बाद संभव हुआ। फ़ैसले में तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजने को अवैध और ग़लत क़रार दिया गया था। हालाँकि, इस फ़ैसले ने कई सवाल भी खड़े किए हैं। भारत के अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने कहा है कि राष्ट्रपति को इस मामले में सुना जाना चाहिए था। इसके साथ ही, केंद्रीय गृह मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ पुनर्विचार याचिका दायर करने की तैयारी कर रहा है।
यह घटनाक्रम तब चला है जब तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आर.एन. रवि के बीच लंबे समय से विधेयकों को मंजूरी देने को लेकर तनाव चल रहा था। 2020 से 2023 के बीच तमिलनाडु विधानसभा ने 12 अहम विधेयक पारित किए थे। इनमें से कई विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति में राज्यपाल की भूमिका को कम करने और इसे राज्य सरकार को सौंपने से जुड़े थे। इनमें से 10 विधेयकों को राज्यपाल ने मंजूरी देने से इनकार कर दिया और बाद में उन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिए भेज दिया था।
तमिलनाडु सरकार ने इस देरी और कार्रवाई को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। 8 अप्रैल 2025 को जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने फ़ैसला सुनाया कि राज्यपाल द्वारा इन विधेयकों को राष्ट्रपति को भेजना असंवैधानिक था। कोर्ट ने कहा कि जब विधानसभा ने इन विधेयकों को दोबारा पारित कर दिया था, तब राज्यपाल को इन्हें मंजूरी देनी चाहिए थी। कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यपाल विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक रोक नहीं लगा सकते और न ही उनके पास 'पूर्ण वीटो' का अधिकार है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने असाधारण अधिकारों का उपयोग करते हुए इन 10 विधेयकों को 18 नवंबर 2023 से मंजूर मान लिया। यह वह दिन था जब इन्हें दोबारा विधानसभा द्वारा पारित कर राज्यपाल को भेजा गया था। सुप्रीम कोर्ट के इसी फ़ैसले के बाद तमिलनाडु सरकार ने शनिवार को इन विधेयकों को राजपत्र में अधिसूचित कर दिया। जिन विधेयकों को अधिसूचित किया गया है उनमें तमिलनाडु मत्स्य विश्वविद्यालय (संशोधन) अधिनियम 2020 भी शामिल है। इस विश्वविद्यालय का नाम बदलकर तमिलनाडु डॉ. जे. जयललिता मत्स्य विश्वविद्यालय किया गया है।
अधिसूचित 10 कानूनों में कई ऐसे हैं जो तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार राज्यपाल से हटाकर राज्य सरकार को सौंपते हैं। इसके अलावा, तमिलनाडु विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) अधिनियम 2022 और तमिलनाडु डॉ. आंबेडकर विधि विश्वविद्यालय (संशोधन) अधिनियम 2022 जैसे क़ानून भी शामिल हैं।
तमिलनाडु में इन क़ानूनों के लागू होने से राज्य सरकार को उच्च शिक्षा संस्थानों पर अधिक नियंत्रण मिलेगा।
मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने इस क़दम को ऐतिहासिक क़रार देते हुए कहा, 'यह न केवल तमिलनाडु के लिए बल्कि भारत के सभी राज्यों के लिए एक बड़ी जीत है। डीएमके का मतलब है इतिहास रचना।' द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार डीएमके सांसद और वरिष्ठ अधिवक्ता पी. विल्सन ने कहा, 'यह भारतीय विधायिका के इतिहास में पहली बार है कि कोई क़ानून बिना राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की ताक़त पर लागू हुआ है।'
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने इस पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने द इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि इस मामले में राष्ट्रपति को सुने बिना फ़ैसला लिया गया, जो ठीक नहीं है। वेंकटरमणि ने तर्क दिया, 'राष्ट्रपति इस मामले में पूरी तरह से बाहर थीं। उन्हें सुना जाना चाहिए था।' उन्होंने यह भी संकेत दिया कि सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले पर पुनर्विचार याचिका लगाई जा सकती है। राष्ट्रपति को विधेयक प्राप्त होने के तीन महीने के भीतर निर्णय लेने के फ़ैसले को अटॉर्नी जनरल ने संवैधानिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप माना। वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने हालाँकि कोर्ट के फ़ैसले का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल और राष्ट्रपति को एक ही स्तर पर रखना उचित है।
इधर, केंद्रीय गृह मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ पुनर्विचार याचिका दायर करने की योजना बना रहा है। द हिंदू ने एक अधिकारी के हवाले से कहा है कि मंत्रालय का तर्क है कि कोर्ट ने जो समय-सीमाएं तय की हैं, वे संवैधानिक प्रक्रिया में अनावश्यक हस्तक्षेप करती हैं। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में 2016 के गृह मंत्रालय के कार्यालय ज्ञापन का ज़िक्र है जिसमें साफ़ कहा गया है कि राष्ट्रपति को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए तीन महीने का समय निर्धारित है। हालाँकि अधिकारी ने अंग्रेज़ी अख़बार से कहा कि कोर्ट द्वारा तय समय-सीमाओं पर पुनर्विचार की ज़रूरत है।
रिपोर्ट है कि यह याचिका जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की उस पीठ के समक्ष दायर की जाएगी, जिसने मूल फ़ैसला सुनाया है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला न केवल तमिलनाडु, बल्कि केरल, पश्चिम बंगाल और पंजाब जैसे अन्य विपक्षी शासित राज्यों के लिए भी अहम है। इन राज्यों में भी राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच ऐसे ही विवाद चल रहे हैं। केरल सरकार ने पहले ही सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया है कि उसकी याचिका को भी जस्टिस पारदीवाला की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जाए।
यह फ़ैसला भारत के संघीय ढांचे में विधायी स्वायत्तता और राज्यपाल की भूमिका को फिर से तय करता है। कोर्ट ने साफ़ किया है कि राज्यपाल को 'लोगों की इच्छा' को बाधित करने वाला नहीं, बल्कि 'मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक' होना चाहिए।
तमिलनाडु सरकार द्वारा 10 क़ानूनों को अधिसूचित करना एक अभूतपूर्व घटना है, जो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की ताक़त पर आधारित है। हालांकि, अटॉर्नी जनरल की आपत्तियों और गृह मंत्रालय की संभावित पुनर्विचार याचिका से यह मामला और जटिल हो सकता है।