अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होते हुए भी बढ़ते क़र्ज़ के बोझ से कैसे जूझ रहा है? जानिए अमेरिका के क़र्ज़ संकट की वजहें, इतिहास, और वैश्विक असर।
दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और महाशक्ति, संयुक्त राज्य अमेरिका, आज एक अभूतपूर्व कर्ज संकट से जूझ रहा है। इसका राष्ट्रीय कर्ज 36.2 ट्रिलियन डॉलर (लगभग 3,000 लाख करोड़ रुपये) के पार पहुँच चुका है। यह संकट न केवल अमेरिका, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए भी चिंता का विषय है, जिसमें भारत जैसे उभरते बाजार भी शामिल हैं।
अमेरिका का कुल कर्ज 36.2 ट्रिलियन डॉलर (1 ट्रिलियन = 1,000 अरब) तक पहुँच गया है, जो देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 122% है। यह कर्ज हर तिमाही 1 ट्रिलियन डॉलर की रफ्तार से बढ़ रहा है। हाल ही में क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने अमेरिका की रेटिंग को Aaa से घटाकर Aa1 कर दिया। एक सदी से अधिक समय में पहली बार है कि दुनिया के सबसे बड़े बॉन्ड मार्केट को शीर्ष रेटिंग नहीं मिली। इससे पहले 2011 में स्टैंडर्ड एंड पूअर्स और 2023 में फिच ने भी अमेरिका की रेटिंग घटाई थी।
अमेरिका पर क़र्ज़ के विभिन्न स्रोत हैं-
हर साल अमेरिका अपनी आय से अधिक खर्च करता है, जिससे राजकोषीय घाटा बढ़ता है। इसे पूरा करने के लिए सरकार ट्रेजरी बिल्स, नोट्स, और बॉन्ड्स के जरिए उधार लेती है। इन प्रतिभूतियों को निवेशक खरीदते हैं, और सरकार ब्याज के साथ इसे चुकाने का वादा करती है। लेकिन इस उधार की एक सीमा, जिसे ऋण सीमा कहते हैं, होती है। 1960 से अब तक अमेरिकी कांग्रेस ने इस सीमा को 78 बार बढ़ाया है। हाल ही में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के नए टैक्स कट बिल को मंजूरी मिली, जो 2017 के टैक्स कट्स को और बढ़ाएगा। यह कर्ज में 5 ट्रिलियन डॉलर और जोड़ सकता है।
अगर कर्ज का ब्याज भुगतान बढ़ता है, तो सरकार को बजट में कटौती या टैक्स बढ़ाना पड़ सकता है। इससे बंधक, कार लोन, और क्रेडिट कार्ड बिल जैसे खर्चे महँगे हो जाएँगे, जिसका सीधा असर आम अमेरिकी पर पड़ेगा।
आज अमेरिका वैभव और शक्ति का प्रतीक है, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था। मध्यकाल तक दुनिया का अधिकांश हिस्सा अमेरिका से अनजान था। 12 अक्टूबर 1492 को क्रिस्टोफर कोलंबस ने, जो भारत की खोज में निकला था, गलती से बहामास द्वीप पर कदम रखा। उसने वहाँ के मूल निवासियों को 'रेड इंडियंस' कहा। बाद में इटली के नाविक अमेरिगो वेस्पुची के नाम पर इस महाद्वीप का नाम 'अमेरिका' पड़ा।
1776 में 'लिबर्टी' (स्वतंत्रता) के मंत्र के साथ अमेरिकी क्रांति हुई। उस समय अमेरिका ब्रिटिश उपनिवेश था, जहाँ ब्रिटेन सजायाफ्ता लोगों को भेजता था। धनी किसान जॉर्ज वाशिंगटन ने इस क्रांति का नेतृत्व किया जो अमेरिका के पहले राष्ट्रपति बने। क्रांति के बाद अमेरिका की आर्थिक और राजनीतिक यात्रा शुरू हुई।
19वीं सदी में औद्योगिक क्रांति ने अमेरिका को बदल दिया। रेलवे, स्टील, और तेल उद्योगों ने अर्थव्यवस्था को गति दी। हेनरी फोर्ड की ऑटोमोबाइल क्रांति और जॉन डी. रॉकफेलर जैसे उद्योगपतियों ने इसे औद्योगिक ताकत बनाया।
1914-1918 के प्रथम विश्व युद्ध ने अमेरिका को आर्थिक शक्ति के रूप में उभारा। यूरोप में युद्ध के दौरान अमेरिका ने मित्र राष्ट्रों को हथियार, खाद्यान्न, और कर्ज दिया। युद्ध के बाद यूरोपीय देशों का पुनर्निर्माण भी अमेरिकी पूँजी से हुआ। 1920 के दशक में अमेरिकी डॉलर वैश्विक मुद्रा बनने की राह पर था, और वॉल स्ट्रीट वित्तीय केंद्र बना। लेकिन 1929 की महामंदी ने अर्थव्यवस्था को झटका दिया। 1930 के दशक में राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट की 'न्यू डील' नीतियों ने बुनियादी ढांचे, रोजगार, और सामाजिक सुरक्षा पर जोर देकर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया। लेकिन असली उछाल द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान आया।
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) अमेरिका के लिए टर्निंग पॉइंट था। जब यूरोप और एशिया में तबाही मची, अमेरिका सुरक्षित रहा। उसने मित्र राष्ट्रों को हथियार, गोला-बारूद, और खाद्यान्न की आपूर्ति की, जिससे कारखाने पूर्ण क्षमता पर चले और बेरोजगारी खत्म हुई।
जे. रॉबर्ट ओपेनहाइमर के नेतृत्व में चले मैनहट्टन प्रोजेक्ट ने अमेरिका के लिए परमाणु बम विकसित किया। 1945 में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम के हमले के साथ युद्ध समाप्त हुआ। यह सैन्य शक्ति का प्रदर्शन था, जिसने अमेरिका को दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति बनाया।
1944 में ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में अमेरिकी डॉलर को वैश्विक मुद्रा के रूप में स्थापित किया गया। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की स्थापना हुई, जिसने अमेरिका को वैश्विक वित्तीय प्रणाली का केंद्र बनाया। युद्ध के बाद मार्शल प्लान के तहत यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए अरबों डॉलर का निवेश किया गया।
युद्ध के बाद अमेरिका ने नाटो जैसे गठबंधनों के ज़रिए सैन्य उपस्थिति बढ़ाई। कोल्ड वॉर में सोवियत संघ के साथ प्रतिस्पर्धा ने इसे वैश्विक नेता बनाया। अमेरिका ने शोध और अनुसंधान को बढ़ावा दिया, स्वतंत्र चिंतन को प्राथमिकता दी, और लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत किया। यह दुनिया भर के प्रतिभाशाली लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बना।
अमेरिका का कर्ज संकट भारत जैसे देशों को कई तरह से प्रभावित कर सकता है:
अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। अगर अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आती है, तो भारत के आईटी, टेक्सटाइल, और फार्मास्यूटिकल्स जैसे निर्यात प्रभावित होंगे। एक प्रतिशत की मंदी भी वैश्विक आपदा बन सकती है।
अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग में कमी से वैश्विक शेयर बाजार अस्थिर हो सकते हैं। भारत के स्टॉक मार्केट और निवेशकों पर इसका असर पड़ सकता है। अगर अमेरिका डिफॉल्ट करता है, तो वैश्विक ब्याज दरें बढ़ेंगी, जिससे भारत में उधार लेना महँगा होगा।
भारत ने अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्ड्स में 220 अरब डॉलर का निवेश किया है। अगर अमेरिका की रेटिंग और गिरती है, तो इन निवेशों का मूल्य घटेगा, जिससे भारत का 690 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार प्रभावित होगा।
अमेरिका भारत का रणनीतिक साझेदार है। कर्ज संकट से उसकी आर्थिक शक्ति कमजोर होने पर रक्षा, अंतरिक्ष, और परमाणु ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में सहयोग प्रभावित हो सकता है।
भारत का कर्ज भी बढ़ रहा है, लेकिन यह संकट की स्थिति में नहीं है:
2014 में कर्ज: कुल कर्ज 55 लाख करोड़ रुपये था, जिसमें बाहरी कर्ज 31 लाख करोड़ रुपये (461 अरब डॉलर) था। प्रति व्यक्ति कर्ज लगभग 42,307 रुपये था।
2025 में कर्ज: अनुमानित कुल कर्ज 200-220 लाख करोड़ रुपये, जिसमें बाहरी कर्ज 55.38 लाख करोड़ रुपये (663.8 अरब डॉलर) है। प्रति व्यक्ति कर्ज अब लगभग 1.44 लाख रुपये है।
वृद्धि: कुल कर्ज में 181-300% की वृद्धि हुई।
भारत में हर नवजात शिशु लगभग 1.5 लाख रुपये के कर्ज के साथ पैदा हो रहा है। ब्याज भुगतान की लागत बढ़ रही है, और अगर राजकोषीय घाटा नियंत्रित नहीं हुआ, तो भविष्य में दबाव बढ़ सकता है।
36.2 ट्रिलियन डॉलर का कर्ज और 122% का कर्ज-से-जीडीपी अनुपात अमेरिका के लिए चेतावनी है। यह वैश्विक अर्थव्यवस्था, विशेष रूप से भारत जैसे देशों, को प्रभावित कर सकता है। अमेरिका के कर्ज संकट से भारत को सतर्क रहने की जरूरत है, क्योंकि वैश्विक मंदी, निर्यात में कमी, और निवेश पर असर भारत की अर्थव्यवस्था को चुनौती दे सकता है।