विकास दर के जो तिमाही आँकड़े आए हैं वे पहली नज़र में आकर्षक नहीं भी लग सकते हैं। इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था 20.1 फ़ीसदी की रफ्तार से बढ़ी है, और सिर्फ़ संख्या की नज़र से देखें तो यह अपने आप में एक रिकॉर्ड है। लेकिन अगर आप यह सोच कर देखें कि पिछले वर्ष इसी तिमाही में हमारी अर्थव्यवस्था 24 फ़ीसदी तक गोता लगा गई थी तो तसवीर कुछ और ही दिखती है।
अगर किसी तिमाही में विकास दर बहुत ज़्यादा लुढ़क जाती है तो अगले साल उसी तिमाही में वह थोड़ी सी भी सकारात्मक हो जाए तो हमें जो आँकड़ा मिलता है वह बहुत बड़ा दिखता है। सच यह है कि पिछले साल इसी तिमाही में हमने जो गंवाया था, अभी तक उसे ही हासिल नहीं कर पाए हैं। अगर हम इस तिमाही की तुलना 2019-20 की पहली तिमाही से करें तो उसके मुक़ाबले हम अभी भी लगभग 12 फ़ीसदी पीछे हैं।
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लेकिन अगर दूसरी तरह से देखें तो ये आँकड़े एक अच्छी कहानी भी बता रहे हैं। इस साल अप्रैल से जून तक की तिमाही के ये आँकड़े उस दौर की बात बता रहे हैं जब देश में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर फैली थी। सबसे ज़्यादा लोग इन्हीं तीन महीनों में संक्रमित हुए। सबसे ज़्यादा जनहानि भी इसी दौर में हुई। बहुत सी व्यवसायिक गतिविधियों पर एक बार फिर से पाबंदी लगानी पड़ी। इसके बावजूद अगर इतनी विकास दर हासिल हो गई तो यह एक उपलब्धि तो है ही। भले ही इसे बहुत बड़ा न कहा जाए।
दूसरी बात यह है कि इस तिमाही में जो विकास दर हासिल हुई वह सरकार के अनुमान से ज़्यादा है, इसे भी एक सकारात्मक संकेत माना जाना चाहिए।
अगस्त के आख़िरी दिन जब सांख्यिकी विभाग ने ये आँकड़े जारी किए तब तक सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार के वी सुब्रमण्यम और प्रमुख आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल मीडिया को इंटरव्यू देने के लिए तैयार हो चुके थे। एक के बाद एक सभी टीवी चैनलों पर इसे सरकार की उपलब्धि बताया जाने लगा। यह कहा गया कि सरकार जिस वी शेप रिकवरी की बात कर रही थी वह अब शुरू हो गई है। लेकिन क्या इसे वाक़ई सरकार की उपलब्धि माना जा सकता है?

भारत के मध्यवर्ग को अर्थव्यवस्था की गति का मुख्य आधार माना जाता है। कई अर्थशास्त्री कह चुके हैं कि देश की अर्थव्यवस्था अगर पटरी पर लौटेगी, इसी मध्यवर्ग की सरवाईवल इंस्टिंक्ट के कारण। अभी जो हो रहा है वह शायद यही है।

यह इससे भी जाहिर होता है कि कृषि समेत अर्थव्यवस्था के ज़्यादातर क्षेत्रों ने काफ़ी अच्छे नतीजे दिए हैं। हालाँकि सेवा क्षेत्र का कामकाज बहुत ख़राब रहा है लेकिन जिस तरह से होटल, पर्यटन, सिनेमाघर वगैरह सब लगभग बंद हैं उसके चलते बहुत ज़्यादा उम्मीद भी नहीं की जा सकती।
अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के लिए मध्यवर्ग से तो उम्मीद थी लेकिन महामारी की शुरुआत से ही एक और चीज भी कही जा रही थी कि अगर सरकार को अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकनी है तो उसे ख़र्च बढ़ाना होगा। नई परियोजनाएँ शुरू करनी होंगी। ऐसे तरीक़े खोजने होंगे कि सार्वजनिक धन लोगों के पास पहुँचे, और इस पैसे को लेकर जब वे बाज़ार में निकलें तो अर्थव्यवस्था को नई गति मिले।
दुनिया के ज़्यादातर देशों ने महामारी के दौरान यही किया। लेकिन भारत में तमाम पैकेज घोषित करने के बाद ऐसा कुछ नहीं किया गया। सार्वजनिक व्यय अभी भी उसी स्तर पर बना हुआ है जिस स्तर पर वह महामारी के पहले था। दुनिया के कई दूसरे देशों की तरह ही अगर भारत में भी सरकारी ख़र्च को बढ़ाया जाता तो अर्थव्यवस्था के ये आँकड़े कहीं ज़्यादा बेहतर हो सकते थे।
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यानी हमें जो विकास दर के ताज़ा आँकड़े मिले हैं उसे इस देश ने सरकार की निष्क्रियता के बावजूद हासिल किया है।
अर्थव्यवस्था के ये आँकड़े एक बात और भी बताते हैं। पिछले वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में नतीजे इसलिए भी ख़राब रहे कि पूरे देश में बिना सोचे-समझे एक कड़ा लॉकडाउन लागू कर दिया गया था। जिसके बारे में हमें यह बताया गया था कि यह कर्फ़्यू ही है। इसी के चलते अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिरी थी। इस बार महामारी के सबसे भयानक दौर के बावजूद उतना सख़्त और चौतरफा लॉकडाउन नहीं लागू किया गया और अर्थव्यवस्था ने धूल झाड़कर खड़े होना शुरू कर दिया।