कर्नाटक के उस सरकारी आदेश पर हाईकोर्ट ने अंतरिम रोक लगा दी है जिसको आरएसएस से जोड़कर देखा जा रहा है। इस सरकारी आदेश में सरकारी संपत्तियों पर निजी संगठनों द्वारा आयोजित गतिविधियों के लिए पहले मंजूरी लेना अनिवार्य किया गया है। कुछ लोगों ने इस आदेश को आरएसएस की गतिविधियों को सीमित करने की कोशिश के रूप में देखा था। हाईकोर्ट की धारवाड़ बेंच की एकल पीठ के न्यायाधीश नागप्रसन्ना ने इस आदेश पर स्टे देते हुए मामले को 17 नवंबर के लिए सुनवाई के लिए स्थगित कर दिया। यह कर्नाटक की कांग्रेस सरकार के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। 

यह फ़ैसला आरएसएस के शताब्दी वर्ष के संदर्भ में आया है, जब संगठन राज्य भर में मार्ग शोभायात्राएं और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने की योजना बना रहा था। इसी बीच सरकार ने सरकारी संपत्तियों के इस्तेमाल से पहले मंजूरी लेने को ज़रूरी कर दिया था। इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार याचिका दायर करने वाले वकील अशोक हरनाहल्ली ने सुनवाई के दौरान तर्क दिया कि यह आदेश नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर सीधा हमला है। उन्होंने कहा, 'सरकार ने 10 से अधिक लोगों के जमावड़े के लिए अनुमति अनिवार्य कर दी है। यह संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध है। अगर पार्क में कोई पार्टी या वॉकिंग ग्रुप हो, तो भी यह अवैध जमावड़ा माना जाएगा।'
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आरएसएस पर नकेल कसने की कोशिश?

इस फ़ैसले से जुड़ा सरकार का यह सरकारी आदेश 18 अक्टूबर 2025 को जारी किया गया था, जो मूल रूप से 2013 के एक पुराने सर्कुलर को फिर से लागू करने का प्रयास था। इसमें सरकारी स्कूलों, कॉलेज ग्राउंड, पार्क, खेल मैदानों और अन्य संस्थागत स्थलों पर निजी या सामाजिक संगठनों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों, सभाओं या सांस्कृतिक आयोजनों के लिए संबंधित विभाग प्रमुखों से लिखित अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया था। आदेश में साफ़ तौर पर कहा गया कि बिना अनुमति के 10 से अधिक लोगों का जमावड़ा अवैध माना जाएगा और कर्नाटक भूमि राजस्व अधिनियम तथा शिक्षा अधिनियमों के तहत कार्रवाई की जाएगी। जिला प्रशासनों को अनुपालन की निगरानी करने और उल्लंघनों पर सख्ती बरतने का निर्देश दिया गया था।

हालाँकि आदेश में किसी विशेष संगठन का नाम नहीं लिया गया, लेकिन राजनीतिक हलकों में इसे आरएसएस पर निशाना साधने की रणनीति माना गया। यह आदेश सूचना प्रौद्योगिकी एवं जैव प्रौद्योगिकी मंत्री प्रियांक खड़गे के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को लिखे पत्र के बाद आया था। खड़गे ने पत्र में आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों की सार्वजनिक स्थलों पर गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। 

प्रियांक खड़गे ने कर्नाटक सिविल सेवा (आचरण) नियमावली का हवाला देते हुए कहा था कि सरकारी कर्मचारी राजनीतिक संगठनों से जुड़े कार्यक्रमों में भाग नहीं ले सकते। खड़गे ने यह भी ज़िक्र किया कि हाल के दिनों में सरकारी अधिकारी आरएसएस कार्यक्रमों में भाग ले रहे हैं, जो नियमों का उल्लंघन है।

क्या आदेश किसी संगठन के ख़िलाफ़?

मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने साफ़ किया था कि यह आदेश किसी एक संगठन के ख़िलाफ़ नहीं है, बल्कि सार्वजनिक संपत्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए है। उन्होंने कहा, 'यह नियम बीजेपी सरकार के जगदीश शेट्टार काल में 2013 में ही लागू किया गया था। बिना अनुमति के कोई संगठन सरकारी संपत्ति का उपयोग नहीं कर सकता।' वहीं, संसदीय कार्य मंत्री एचके पाटिल ने भी कहा, 'इस आदेश का कोई विशेष संगठन से लेना-देना नहीं है। सरकारी संपत्तियों का उपयोग सही उद्देश्य के लिए और सही अनुमति से ही होगा। किसी भी उल्लंघन पर मौजूदा कानूनों के तहत कार्रवाई होगी।'
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मौलिक अधिकारों का सवाल

याचिका पुणशचैतन्य सेवा संस्था ने दायर की थी, जो एक निजी संगठन है। याचिका में तर्क दिया गया कि यह आदेश निजी संगठनों के वैध गतिविधियों के अधिकारों का हनन करता है। याचिकाकर्ता ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण सभा का अधिकार का हवाला दिया। संस्था की ओर से पेश वकील हरनाहल्ली ने अदालत में कहा कि पार्क और सड़कें स्थानीय प्राधिकरणों के अधीन हैं, न कि राज्य सरकार के। उन्होंने कर्नाटक पुलिस अधिनियम का ज़िक्र करते हुए कहा कि पहले से ही सभाओं का नियमन होता है, ऐसे में नया आदेश अनावश्यक और अलोकतांत्रिक है।

सुनवाई के दौरान जस्टिस नागप्रसन्ना ने शुरुआती टिप्पणियों में कहा कि आदेश 'नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों को छीन लेता है' और इसे संवैधानिक अधिकारों के ऊपर प्राथमिकता नहीं दी जा सकती। अदालत ने राज्य सरकार, गृह विभाग और हुबली पुलिस आयुक्त को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। अगली सुनवाई 17 नवंबर को होगी, तब तक आदेश निलंबित रहेगा।
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस

यह मामला कर्नाटक में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम सार्वजनिक संपत्तियों के नियमन की बहस को तेज कर सकता है। जानकारों का मानना है कि यह फ़ैसला अन्य राज्यों के लिए भी नजीर बन सकता है, जहां राजनीतिक संगठनों पर इसी तरह के प्रतिबंध लगाए जाते रहे हैं। मामले की अगली सुनवाई में सरकार के तर्कों पर नजरें टिकी हैं।