भाषा और लेखक का संबंध कैसा हो? माखनलाल चतुर्वेदी प्रेमचंद के विषय में लिखते हैं, 'वे शब्दों में डूबते-उतराते, अर्थों से उलझ और सुलझकर चलते, रस को बात करते ही प्रारम्भ कर देते, छन्दों की-सी वक्र गति से कहन को बचाते ....' माखनलाल चतुर्वेदी ठीक ही प्रेमचंद की ‘कठोर मज़दूरी को चिह्नित करते हैं। प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर सत्य हिन्दी की विशेष शृंखला, 10वीं कड़ी।
“कहते हैं चित्र और मूर्ति का प्रभाव कला में विश्व-व्याप्त होता है। विश्व के किसी भी कोने में उनकी पहुँच होती है। कला का वह रूप अपनी प्रेरणा से रस खींचता है, निर्माण में बचपन की-सी सरलता बोता है और अपनी लगन में इतना रंग जाता है कि लोग अपनी दिशा का उसे दीवाना कहने लगें। उसका महान गौरव और उसके महान गौरव-कर्त्ता यह नहीं जान पाते कि वह कठोर मज़दूरी करता है, तब अपनी सूझ के मुक्ता कणों को पात्रों का रूप देकर वह समझ, आकर्षण और चाह के देव-मन्दिरों में पहुँचा पाता है।”
“मुझे लगता है यह सीखने को तैयार हूँ कि लिखा कैसे जाता है। शब्दों से/में सोचो, विचारों से/में नहीं।”
“वे शब्दों में डूबते-उतराते, अर्थों से उलझ और सुलझकर चलते, रस को बात करते ही प्रारम्भ कर देते, छन्दों की-सी वक्र गति से कहन को बचाते ....”
सूसन सोंटैग के मुताबिक़ लेखक वह है जो दुनिया पर ग़ौर करता है। लेखक की दिलचस्पी सिर्फ़ विचारों में नहीं, दुनिया में होनी चाहिए। दुनिया का मतलब है लोग, जो हर क़िस्म के हैं। और दुनिया की हर चीज़, उसकी हर शै। लेखक का परहेज किसी से नहीं है।
“उस वक़्त मेरी उम्र कोई 13 साल की रही होगी। हिन्दी बिल्कुल न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढ़ने-लिखने का उन्माद था। मौलाना शरर, पं० रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मुहम्मद अली हरदोई निवासी, उस वक़्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे। इनकी रचनाएँ जहाँ मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था। उस ज़माने में रेनाल्ड के उपन्यासों की धूम थी। उर्दू में उनके अनुवाद धड़ाधड़ निकल रहे थे और हाथो हाथ बिकते थे। मैं भी उनका आशिक था। स्व० हज़रत रियाज़ ने जो उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे और जिनका हाल में देहान्त हुआ है, रेनाल्ड की एक रचना का अनुवाद ‘हरम सरा’ के नाम से किया था। उस ज़माने में लखनऊ के साप्ताहिक ‘अवध-पंच’ के सम्पादक स्व० मौलाना सज्जाद हुसैन ने, जो हास्यरस के अमर कलाकार हैं, रेनाल्ड के दूसरे उपन्यास का अनुवाद ‘धोखा’ या ‘तिलस्मी फ़ानूस’ के नाम से किया था। ये सारी पुस्तकें मैंने उसी ज़माने में पढ़ीं और पं० रतननाथ सरशार से तो मुझे तृप्ति न होती थी। उनकी सारी रचनाएँ मैंने पढ़ डालीं।”
“दो-तीन वर्षों में मैंने सैकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे। जब उपन्यासों का स्टॉक समाप्त हो गया, तो मैंने नवलकिशोर प्रेस से निकले हुए पुराणों के उर्दू अनुवाद भी पढ़े, और ‘तिलस्मी होशरुबा’ के कई भाग भी पढ़े। इस वृहद् तिलस्मी ग्रन्थ के 17 भाग उस वक़्त निकल चुके थे और एक-एक भाग बड़े सुपररायल के आकार के दो-दो हज़ार पृष्ठों से कम न होगा। और इन 17 भागों के उपरान्त उसी पुस्तक के अलग-अलग प्रसंगों पर पचीसों भाग छप चुके थे। इनमें से भी मैंने पढ़े। जिसने इतने बड़े ग्रन्थ की रचना की, उसकी कल्पना-शक्ति कितनी प्रबल होगी, इसका केवल अनुमान किया जा सकता है।”
“फ़ारसी में कच्चा और अरबी में नादान बच्चा है। इतिहास-भूगोल से उसको ज़रा भी लगाव नहीं, योरप की भाषाओं का क्या ज़िक्रे उर्दू में भी काफ़ी योग्यता नहीं रखता।”
“सिर्फ़ यह देखना चाहते हैं कि कहानी लिखने के मैदान में किसका कलम उड़ानें भरता है और इस कला में कौन अधिक कुशल है।”
नाविल नए ढंग का क़िस्सा है। वह दर्शन, इतिहास, समाजशास्त्र सबसे अलग है। मिलान कुंदेरा ने तो यह बात बहुत बाद में कही। प्रेमचंद ने अपने अंदाज़ में वैसी रचनाओं के प्रति अरुचि दिखलाई जो ‘गोया उपन्यास न हुए कोई दर्शन की किताब हुई जिसमें किसी न किसी थ्योरी को स्थापित करना ज़रूरी है।’
“सरशार ने जितनी किताबें लिखीं उनमें से एक भी ऐसी नहीं जिसको मुसलमान या ईसाई एक-सी दिलचस्पी से न पढ़ें। वे सब धार्मिक विद्वेष से मुक्त हैं।”
“प्रत्येक क्षण इस बात का ख्याल रखते थे कि उनकी कृति मानव के लिए कभी अमंगलकर न हो, सदैव मंगलकर बनी रहे...
“प्रेमचंद की रचना अपने प्रारंभ में भी मंगलकर है, अपने सर्वोच्च उठान में भी मंगलकर है, अपने असहाय उतार में भी मंगलकर है।”
“उन्होंने अपनी रचनाओं में तर्कों का ऐसे जालीदार पर्दे का निर्माण ही नहीं किया, जिसमें रचना लेखन-कौशल बन जाये और जीवन तड़पता रह जाये; उन्होंने जीवन को धर्म और सम्प्रदायों की तरह किस्तों में कहीं भी बाँटा। वे अनवछिन्न जीवन के व्यापक समर्थक रहे।”
“कहानीकार को तीन काम एक साथ करने होते थे। एक तो साहित्य के उतार-चढ़ाव का विवेक साधकर लिखना पड़ता, दूसरे जीवन के संघर्षों के प्रति जागरूक रहना पड़ता तथा अपनी कृति के शील को समाज में समा सकने योग्य बनाए रखना पड़ता।”
“प्रेमचंद साहित्य में प्रतिस्पर्धी भाव से नहीं आये... अपनी अंतिम बीमारी के दौरान भी वे इसी पक्ष पर बल दे रहे थे कि साहित्यकार समाजसेवी ही है और साहित्य-कर्म मूलतः साधना ही है।”
“उपन्यास मनोरंजन भी करता है, इस बात को वे कभी नहीं भूले और उनके उपन्यास हमेशा रोचक और पठनीय बने रहे; लेकिन साथ ही आरम्भ से एक नैतिक बोध उनके कृतित्व को आलोकित करता रहा। जिस दुनिया में हम जीते हैं, वह नैतिक दृष्टि से कितनी अँधेरी है, इस बात की पहचान उनकी रचनाओं में लगातार तीव्रतर होती गयी, यहाँ तक कि अंतिम काल की कुछ रचनाओं में तो वह मानो एक चरम अतिनैतिक अथवा नीति-निरपेक्ष संसार की देहरी पर आ खड़े हुए थे।”
“सामाजिक वास्तविकता का चित्र खींचते हुए उनका लक्ष्य एक नीति-निरपेक्ष संसार की उपेक्षा करना नहीं था, बल्कि एक नैतिक संसार की वास्तविकता प्रस्तुत करना था –वह नैतिक संसार चाहे कितना ही मर्माहत और उपेक्षित क्यों न हो। और नैतिक यथार्थ की वह पक्षधरता उनकी रचनाओं में अंत तक लक्षित होती है।”