प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं के माध्यम से यह चुनौती दी हम सबको: यह तुम हो सकते हो, क्या ऐसा होने की इच्छा और बल जुटाओगे? ऐसा नहीं कि मनुष्य और मानवीय जीवन और समाज की क्षुद्रताओं से उनकी कलम अपरिचित है या उनसे आँख चुराती है, लेकिन वह हमेशा ही उनका अतिक्रमण करने का एक मौक़ा मुहैया कराती है। वह मनुष्यता को कभी निरुपाय नहीं छोड़ती।
'सुनते तो हैं कि पाठक समुदाय में प्रेमचंद की कृतियाँअभी भी बड़ी लोकप्रिय हैं, पर जहाँँतक प्रबुद्ध पाठक का सवाल है, क्या प्रेमचंद की कृतियाँँउसे छूती भी नहीं हैं? क्या उनका स्पंदन ठंडा पड़ गया है, वे कहीं उद्वेलित नहीं करतीं न उत्प्रेरित करती हैं?...कुछ दोस्तों का कहना है कि प्रेमचंद का शिल्प और शैली बहुत पुराने हैं। कहानी आज बहुत विकसित हो चुकी है।'
प्रेमचंद जन्मशती वर्ष के मौके पर भीष्म साहनी ने लगता है एक दुखते हुए दिल से ये सवाल पूछे थे। उन्हें लेकर यह संदेह बार बार होता रहा है, खुद उनके प्रशंसकों को भी। क्या है प्रेमचंद में अगर वह कोरा आदर्शवाद नहीं है? उन्हें पढ़ें कैसे, यह ऐसी समस्या है, जिसपर उनके समकालीनों से लेकर आज तक सक्रिय रचनाकार विचार करते रहे हैं।
ज़िंदगी की तड़प
फ़िराक गोरखपुरी अपनी तरुणावस्था से प्रेमचंद के मित्र बन गए थे। अंग्रेज़ी के उस्ताद का ओहदा उन्हें बाद में मिलने वाला था। उस वक़्त तो वे तालिबे इल्म ही थे। लेकिन शायर थे और प्रेमचंद ने उनमें एक फलसफाना रुझान नोट कर लिया था। फ़िराक बहुपठित थे। यूरोपीय साहित्य के अलावा भारतीय साहित्य से, खासकर बांग्ला साहित्य से उनकी अच्छी वाकफ़ियत थी। प्रेमचंद से अपनी दोस्ती के अलावा उनकी रचनाओं पर वे जो लिखते हैं उससे शायद हमें प्रेमचंद को पढ़ने का तरीका मिल सके:
'यदि हम प्रेमचंदजी के बारे में यह कहें कि उनकी कलम जादू का सा काम करती थी तो यह उनके सम्बन्ध में कोई बड़ी बात न होगी। उनके प्रत्येक पृष्ठ में सभ्यता के प्रवर्तकों के पहले कदमों की चाप सुनाई देती है।'
यह गौरव बहुत कम रचनाकारों को मिलता है। उनमें वाग्विदग्धता और कला चातुर्य तो हो सकता है, लेकिन क्या वे ‘सामूहिक जीवन के समस्त अमर, स्थायी और दृढ अंगों में फिर से नवीन जीवन का संचार’ भी कर पाते हैं? फ़िराक अपने अध्ययन की विशालता के अधिकार के साथ आगे लिखते हैं,
'इस तरह की कोई चीज़ बंकिमचन्द्र चटर्जी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय ...ने भी दुनिया के सामने पेश नहीं की। यद्यपि उक्त लेखकों के उपन्यासों और कहानियों में बहुत अधिक गंभीरता और शक्ति है, लेकिन फिर भी अधिकतर वे मानसिक भावों की सूचक हैं और प्रायः अपनी आवश्यकता से अधिक सतर्कता के कारण वे गद्य कथानकों का सच्चा आदर्श नहीं हो सकतीं...'
असीम करुणा और असीम ज्वाला
फ़िराक की हमवतन यानी एक दूसरी इलाहाबादी महादेवी वर्मा प्रेमचंद के बारे में पूछती हैं,
प्रेमचंद को लेकर बाहरी जगत और भीतरी जगत के द्वंद्व और उसमें प्रेमचंद के सतह पर अटके रह जाने की आह उनके पैरोकारों के मन में भी उठती है। वे समाज की हलचल तो दिखलाते हैं, लेकिन व्यक्ति के अंतर्मन को झलक नहीं देते, यह शिकायत प्रेमचंद से अक्सर की जाती है। महादेवी की अंतर्दृष्टि इस प्रसंग में अचूक है,
मनुष्य की गरिमा के प्रति, उसके कल्याण के प्रति अटूट निष्ठा और एक अदम्य आस्था शुभ और शिव को चरितार्थ करने की मानवीय क्षमता में। या यह कह सकते हैं कि प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं के माध्यम से यह चुनौती दी हम सबको: यह तुम हो सकते हो, क्या ऐसा होने की इच्छा और बल जुटाओगे?
ऐसा नहीं कि मनुष्य और मानवीय जीवन और समाज की क्षुद्रताओं से उनकी कलम अपरिचित है या उनसे आँख चुराती है, लेकिन वह हमेशा ही उनका अतिक्रमण करने का एक मौक़ा मुहैया कराती है। वह मनुष्यता को कभी निरुपाय नहीं छोड़ती।
तुर्की में हाया सोफिया को जब मसजिद में तब्दील कर इसलाम की प्रतिष्ठा का ऐलान किया जा रहा था, कतई इत्तेफाक था कि मैं ‘मानसरोवर’ के पहले खंड में संकलित कहानी ‘दिल की रानी’ पढ़ रहा था। हाया सोफिया जो कभी मूर्ति पूजकों का उपासनास्थल था, फिर गिरिजाघर और फिर वहाँ नक्श बुतों और तस्वीरों को पोशीदा करके जिसे मसजिद में तब्दील कर दिया गया।
कमाल अतातुर्क ने इतिहास की इन परतों को पलट कर देखते हुए इंसानी हिमाकत पर विचार करने के लिए, इस हिमाकत पर कि एक की पवित्रता दूसरे की पवित्रता को कुचलना कैसे अपना हक मानती है, उसे एक संग्रहालय में बदल दिया। लेकिन इतिहास इससे उदासीन चलता जाता है, कुछ हँसते और कुछ रोते हुए इन्सान की धृष्टता पर। यह धृष्टता जिसके लिए पवित्र, पाक से वफ़ादारी दरअसल अपना दुनियावी दबदबा कायम करने का बहाना है।
‘दिल की रानी’ तातारी तैमूर के तुर्की पर हमले और उसकी फ़तह के वर्णन से शुरू होती है। अनुरोध है कि इसका एक भी लफ्ज़ न गँवाइए:
'जिन वीर तुर्कों के प्रखर प्रताप से ईसाई-दुनिया काँप रही थी, उन्हीं का रक्त आज कुस्तुन्तुनिया की गलियों में बह रहा है। वही कुस्तुन्तुनिया जो सौ साल पहले तुर्कों के आतंक से आहत हो रहा था, आज उनके गर्म रक्त से अपना कलेजा ठंडा कर रहा है। और तुर्की सेनापति एक लाख सिपाहियों के साथ तैमूरी तेज के सामने अपनी किस्मत का फ़ैसला सुनने के लिये खड़ा है।'
इस छोटे से हिस्से में युद्ध, मनुष्य के वर्चस्व के अहंकार की व्यर्थता और उसकी विजय की दयनीय क्षणिकता सब पर टिप्पणी कर दी गई है। व्यंग्य परिस्थिति के अनुकूल शांत है, बल्कि विडंबना का भाव उभर आता है।
सभ्यता की सनद
तैमूर मानता है कि वह धर्म की प्रतिष्ठा करने के लिए युद्ध कर रहा है। वह विलासिता में डूबे धर्म से विमुख हो चुके तुर्कों को परास्त कर सच्चा इसलाम स्थापित करने का पाक फ़र्ज अदा कर रहा है,
तैमूर हिंसा हिंसा के लिए नहीं करता। उसकी हिंसा जायज़ और न्यायप्रिय है, एक मक़सद के लिए है, ऐसा उसका खयाल है। उसकी धार्मिकता शुष्क है। लेकिन बंदी सेनापति यजदानी इसका उत्तर देता है:
'जहाँपनाह इस वक़्त फतहमंद हैं, लेकिन अपराध क्षमा हो तो कह दूँ कि अपने जीवन के विषय में तुर्को को तातरियों से उपदेश लेने की ज़रूरत नहीं। पर जहाँ खुदा ने नेमतों की वर्षा की हो, वहाँ उन नेमतों का भोग न करना नाशुक्री है। अगर तलवार ही सभ्यता की सनद होती, तो गाल कौम रोमनों से कहीं ज्यादा सभ्य होती।'
तलवार सभ्यता की सनद नहीं है। बहस आगे चलती है और तैमूर जवाब देता है,
'तुम कहते हो, खुदा ने तुम्हें ऐश करने के लिए पैदा किया है। मैं कहता हूँ,, यह कुफ़्र है। खुदा ने इन्सान को बन्दगी के लिए पैदा किया है और इसके ख़िलाफ़ जो कोई कुछ करता है, वह काफ़िर है, जहन्नुमी है। रसूलेपाक हमारी ज़िन्दगी को पाक करने के लिए, हमें सच्चा इन्सान बनाने के लिए आये थे, हमें हराम की तालीम देने नहीं। तैमूर दुनिया को इस कुफ़्र से पाक कर देने का बीड़ा उठा चुका है। रसूलेपाक के कदमों की कसम, मैं बेरहम नहीं हूँ, जालिम नहीं हूँ, खूँखार नहीं हूँ, लेकिन कुफ्र की सजा मेरे ईमान में मौत के सिवा कुछ नहीं है।
हिंसा के प्रवाह पर रोक
अगर आपको ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फ़िल्म की और उस पर हुई बहस की याद हो तो आप इस बहस को उससे जोड़ पाएँगे। प्रेमचंद ने वाजिद अली शाह के शासन का चित्रण करते समय किंचित्त् रुखाई बरती। सत्यजित रे का विचार अलग था। वाजिद अली शाह के प्रति उनकी सहानुभूति उसके कलाप्रिय होने के कारण थी। इसलिए फिल्म में उन्होंने बादशाह का चित्रण प्रेमचंद से अलग किया उसके प्रति सकारात्मक रुख अपनाते हुए।
तैमूर और यजदानी की इस बहस में हसतक्षेप करता है यजदानी के ठीक पीछे खड़ा एक सुदर्शन युवक:
'तू इन मुसलमानों को काफ़िर कहता है और समझता है कि तू इन्हें क़त्ल करके खुदा और इसलाम की ख़िदमत कर रहा है? मैं तुमसे पूछता हूँ, अगर वे लोग जो खुदा के सिवा और किसी के सामने सिजदा नहीं करतें, जो रसूलेपाक को अपना रहबर समझते हैं, मुसलमान नहीं हैं तो कौन मुसलमान हैं? मैं कहता हूँ, हम काफ़िर सही, लेकिन तेरे ...खुदा ने अगर तुझे ताक़त दी है, अख्तियार दिया है तो क्या इसीलिए कि तू खुदा के बन्दों का ख़ून बहाए? क्या गुनाहगारों को क़त्ल करके तू उन्हें सीधे रास्ते पर ले जाएगा? तूने कितनी बेहरमी से सत्तर हजार बहादुर तुर्को को धोखा देकर सुरंग से उड़वा दिया और उनके मासूम बच्चों और निपराध स्त्रियों को अनाथ कर दिया, तुझे कुछ अनुमान है। क्या यही कारनामे हैं, जिन पर तू अपने मुसलमान होने का गर्व करता है। क्या इसी क़त्ल, खून और बहते दरिया में अपने घोडों के सुम नहीं भिगोए हैं, बल्कि इसलाम को जड़ से खोदकर फ़ेंक दिया है। यह वीर तुर्को का ही आत्मोत्सर्ग है, जिसने यूरोप में इसलाम की तौहीद फैलाई। आज सोफिया के गिरजे में तुझे अल्लाह-अकबर की सदा सुनाई दे रही है, सारा यूरोप इसलाम का स्वागत करने को तैयार है। क्या यह कारनामे इसी लायक हैं कि उनका यह इनाम मिले? इस खयाल को दिल से निकाल दे कि तू खूरेजी से इसलाम की खिदमत कर रहा है। एक दिन तुझे भी परवरदिगार के सामने कर्मो का जवाब देना पड़ेगा और तेरा कोई उज्र न सुना जाएगा, क्योंकि अगर तुझमें अब भी नेक और बद की तमीज़ बाकी है, तो अपने दिल से पूछ। तूने यह जिहाद खुदा की राह में किया या अपनी हविस के लिए और मैं जानता हूँ, तुझे जो जवाब मिलेगा, वह तेरी गर्दन शर्म से झुका देगा।'
यह ओजपूर्ण वक्तृता मात्र जिहाद के नाम पर खूँरेजी की भर्त्सना नहीं है, बल्कि वह उस धोखे पर उँगली रखती है धर्म के नाम पर हिंसा करनेवालों के दावों में छिपा है। दूसरों को क़त्ल करने या उन्हें बेइज्जत करने वाली हिंसा को जिहाद कहनेवाले जानते हैं कि वे यह अपनी हविस के लिए कर रहे हैं, धर्म की प्रतिष्ठा के लिए नहीं।
प्रेमचंद की शैली पर लोक कथाओं का प्रभाव नोट किया गया है। किस्सागोई का भी।
साहस और सत्य का आकर्षण
साहस की अभिव्यक्ति सुरक्षा के आश्वासन के साये में नहीं होती। बहरहाल! तैमूर यजदानी के बेटे हबीब को अपना वज़ीर बनाकर अपने साथ ले जाना चाहता है। इस पूरे प्रसंग को भी फलाँग न जाइए भले ही वह यहाँ उद्धृत नहीं किया जा रहा। और इसकी वजह यह है कि हड़बड़ी में आप ऐसे नगीनों से वंचित रह जाएँगे जिनके बिना प्रेमचंद की कथा भाषा को समझा ही नहीं जा सकता।
यजदानी का परिवार तैमूर के प्रस्ताव पर दुविधा में है। पहली वजह तो यह कि हबीब लड़का नहीं, लड़की है। यजदानी शुरू से मुसलमान न था। आतिशपरस्त था। माँ-बाप के धर्म परिवर्तन के साथ ही बेटी ने उनका रास्ता नहीं अपना लिया था। जिस विचार स्वातंत्र्य की बहस हम 'नबी का नीति निर्वाह' में सुन चुके हैं, वह यहाँ भी है। प्रेमचंद सिर्फ किस्सा नहीं सुना रहे, जीने का रास्ता भी सुझा रहे हैं,
'हबीब यजदानी का लड़का नहीं लड़की थी। उसका नाम उम्मतुल हबीब था। जिस वक़्त यजदानी और उसकी पत्नी मुसलमान हुए, तो लड़की की उम्र कुल बारह साल की थी, पर प्रकृति ने उसे बुद्धि और प्रतिभा के साथ विचार-स्वातंत्र्य भी प्रदान किया था। वह जब तक सत्यासत्य की परीक्षा न कर लेती, कोई बात स्वीकार न करती। माँ-बाप के धर्म-परिवर्तन से उसे अशांति तो हुई, पर जब तक इसलामम की दीक्षा न ले सकती थी। माँ-बाप भी उस पर किसी तरह का दबाव न डालना चाहते थे। जैसे उन्हें अपने धर्म को बदल देने का अधिकार है, वैसे ही उसे अपने धर्म पर आरूढ़ रहने का भी अधिकार है। लड़की को संतोष हुआ, लेकिन उसने इसलाम और जरथुश्त धर्म - दोनों ही का तुलनात्मक अध्ययन आरंभ किया और पूरे दो साल के अन्वेषण और परीक्षण के बाद उसने भी इसलाम की दीक्षा ले ली। माता-पिता फूले न समाए। लड़की उनके दबाव से मुसलमान नहीं हुई है, बल्कि स्वेच्छा से, स्वाध्याय से और ईमान से। दो साल तक उन्हें जो शंका घेरे रहती थी,, वह मिट गई।'
बहस इसपर नहीं है कि इसलाम श्रेष्ठ है या नहीं, कोई भी मत बिना परीक्षा के नहीं अपनाया जा सकता।
माँ-बाप की आशंका और असमंजस के बावजूद हबीब तैमूर का प्रस्ताव कबूल करके उसके साथ जाने का जोखिम लेती है। यह इसलिए कि उसे यकीन है कि अब तक तैमूर ग़लत राह पर था, लेकिन वह उसे रास्ता बदलने को प्रेरित कर सकती है,
'मुझे यकीन है कि अमीन तैमूर को मैं अपनी दियानत, बेगरजी और सच्ची वफादारी से इन्सान बना सकती हूँ और शायद उसके हाथों खुदा के बंदों का खून इतनी कसरत से न बहे। वह दिलेर है, मगर बेरहम नहीं। कोई दिलेर आदमी बेरहम नहीं हो सकता। उसने अब तक जो कुछ किया है, मजहब के अंधे जोश में किया है। आज खुदा ने मुझे वह मौका दिया है कि मै उसे दिखा दूँ कि मजहब खिदमत का नाम है, लूट और क़त्ल का नहीं।'
दियानत, बेगरजी और सच्ची वफ़ादारी के रास्ते इंसानियत; दिलेरी और रहम; मजहब और खिदमत का रिश्ता! अभी भी, बल्कि अभी और ज्यादा इस सबक को दुहराने की ज़रूरत है।
राह में खुशबू फैलाती शख्सियत
ऐसी शख्सियत जिसके जाने के बाद राह में खुशबू रह जाए और दूसरी जो कटुता ही पैदा करे। प्रेमचंद का वक़्त ऐसी शख्सियतों का वक्त था, गांधी उनमें सबसे बड़ा नाम थे, जैसा जॉर्ज ऑरवेल ने कहा था और वे अंग्रेजों के भी अजीज़ थे। और यही बात अमृता शेरगिल ने नेहरू के बारे में उन्हें लिखे अपने ख़त में कही थी।
तो जैसा हम पहले कह आए हैं, कहानी किस्सा है, घटनाओं का बयान और विचित्रताएँ वहाँ चाहिए लेकिन एक रौशनी वह देती है जो अपनी ज़िंदगी की राह आसान करने में हमारी मदद करे।
तैमूर के साम्राज्य में बग़ावत होती है जिसे दबाने को बावजूद तैमूर के मना करने के हबीब निकल पड़ता है। इस्तखर आर्मीनियाई ईसाइयों का इलाक़ा है, जिसपर तैमूर की वजह से मुसलमानों का कब्जा है। ईसाइयों पर पाबंदियाँ हैं, वे गिरिजे में घंटा नहीं बजा सकते और उन्हें जज़िया देना पड़ता है। शराब पीने पर भी रोक लगा दी गई है। जब मुसलमानों ने शस्त्र बल से इन्हें लागू करना चाहा तो ईसाइयों ने इनका विरोध किया। मुसलमान सूबेदार क़ैद कर लिया गया और किले पर सलीबी झंडा फहरा दिया गया।
हबीब को इस बग़ावत को कुचलना था। लेकिन जीवन के अपने आदर्शों के कारण उसके मन में दुविधा थी:
'उसका उदार हदय कहता था, ईसाइयों पर इन बंधनों का कोई अर्थ नहीं। हरेक धर्म का समान रूप से आदर होना चाहिए, लेकिन मुसलमान इन कैदों को हटा देने पर कभी राजी न होगें। और यह लोग मान भी जाएँ तो तैमूर क्यों मानने लगा। उसके धार्मिक विचारों में कुछ उदारता आई है, फिर भी वह इन कैदों को उठाना कभी मंजूर न करेगा, लेकिन क्या वह ईसाइयों को सज़ा दे कि वे अपनी धार्मिक स्वाधीनता के लिए लड़ रहे हैं। जिसे वह सत्य समझता है, उसकी हत्या कैसे करे। नहीं, उसे सत्य का पालन करना होगा, चाहे इसका नतीजा कुछ भी हो। अमीन समझेंगे मैं जरूरत से ज्यादा बढ़ा जा रहा हूँ। कोई मुजायका नहीं।
दूसरे दिन हबीब ने प्रातः काल डंंके की चोट ऐलान कराया- जज़िया माफ़ किया गया, शराब और घण्टों पर कोई क़ैद नहीं है।'
इसलाम पर ईमान ले आई हबीब के लिए उसूल अभी भी वही है, धार्मिक स्वतंत्रता, प्रत्येक धर्म और जीवन शैली का आदर। भारत में यह बहस चल ही रही है और कोई हबीब अब नहीं दीखता। कभी गांधी और नेहरू प्रेमचंद के इस पात्र की जुबान बोल रहे थे: हिंदुओं की जीवन शैली भारत में रहनेवाले सब धर्मालंबियों की नहीं हो सकती।
ईमान का उसूल
वज़ीर के इस फ़ैसले से मुसलमानों में तहलका मच गया। हबीब को न रोका गया तो इसलाम की जड़ खुद जाएगी। अब वे वज़ीर के ख़िलाफ़ बगावत कर देते हैं, शाही फ़ौज भी अपने पाशा के ख़िलाफ़ हथियार उठा लेती है। हबीब किले में क़ैद है और उसे मुसलमानों ने घेर रखा है।
खबर तैमूर तक लेकर लेकर कासिद पहुँचता है। यह सुनकर कि हबीब ने जज़िया माफ़ कर दिया, गिरिजों पर घंटे की इजाज़त दे दी और शराब पर पाबंदी हटा दी, तैमूर एक पल तो सोचता है लेकिन उसकी प्रतिक्रिया हबीब जैसी ही है:
....बेशक जज़िया मुआफ़ होना चाहिए। मुझे मजाज [भ्रम] नहीं कि दूसरे मजहब वालों से उनके ईमान का तावान लूँ। कोई मजाज नहीं है, अगर मसजिद में अजान होती है, तो कलीसा में घंटा क्यों बजे। घंटे की आवाज में कुफ़्र नहीं है। काफ़िर वह है, जो दूसरों का हक़ छीन ले जो ग़रीबों को सताए, दगाबाज हो, खुदगरज हो। काफिर वह नहीं, जो मिटटी या पत्थर के एक टुकड़े में खुदा का नूर देखता हो, जो नदियों और पहाड़ों मे, दरख्तों और झाडि़यों में खुदा का जलवा पाता हो। यह हमसे और तुझसे ज़्यादा खुदापरस्त है, जो मसजिद में खुदा को बंद समझते हैं। ….किसी को काफ़िर समझना ही कुफ़्र है। हम सब खुदा के बंदे हैं, बस। जा और उन बाग़ी मुसलमानों से कह दे, अगर फौरन मुहासरा [घेरा] न उठा लिया गया, तो तैमूर कयामत की तरह आ पहुँचेगा।'
तैमूर खुद फ़ौज लेकर इस्तखर की तरफ कूच करता है। किले से घेरा उठा लिया गया है, लेकिन हबीब को शुबहा है कि कहीं वह हमला करने न आ रहा हो। लेकिन तैमूर सफ़ेद झंडा उड़ाता सुलह के लिए आगे बढ़ता है। हबीब और तैमूर आमने सामने हैं:
प्रेमचंद की इस बोलती हुई भाषा का स्रोत क्या हो सकता है? हक़ और हकीक़त, फरिश्तों सा दिल और शेरों की हिम्मत! यह कमाल हिंदी से क्यों खोता गया आख़िर!
तैमूर की जुबान से गांधी बोल रहे हैं या खुद प्रेमचंद? यह आधुनिक राज्य का सिद्धांत है। किसी को किसी पर हुक़ूमत का अधिकार नहीं और हर आबादी को बराबरी की इज्ज़त से रहने का हक, तादाद उनकी कितनी ही कम क्यों न हो!
क्या यह सब कुछ सिर्फ हमारे कथाकार की कल्पना है? क्या हमें हबीब और तैमूर न चाहिए?